Tuesday, July 9, 2013

सही दिशा में श्रम-उन्नतिशीलता

सही दिशा में श्रम-उन्नतिशीलता
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मनुष्य के युवाकाल  , शारीरिक सौन्दर्य और युवा शारीरिक क्षमताओं को आधुनिक और पाश्चात्य जीवन शैली में  ज्यादा महत्व और पसंद दी जाती है .
लेकिन प्राचीन और भारतीय संस्कृति में जीवन के हर काल का अपना महत्व माना जाता रहा है . इस तरह से प्रौढ़ता की अवस्था का महत्व युवाकाल से ज्यादा नहीं मानें तब भी वह उससे कम भी नहीं होता .
वास्तव में पैतीस-चालीस  वर्ष की आयु तक .. शारीरिक क्षमता तथा शारीरिक सौन्दर्य जीवन काल के... शिखर पर आ चुकता है .. इसके बाद उत्तरोत्तर धीमी गति से इसमें कमी आना आरम्भ हो जाती है .

युवा काल इसलिए भी पसंद किया जाता है क्योंकि इस उम्र तक पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्व कम ही सर पर आये होते हैं . शरीर पूर्णतः स्वस्थ होने से आहारचर्या में स्वतंत्रता होती है . विवाह और जीवनसाथी का मिलना भी नया होता है . नन्हें -नन्हें गोद में/आँगन में खेलते बच्चे (आजकल बच्चा ) बहुत प्यारे लगते हैं . कहीं भी घूमने फिरने में आलस्य नहीं होता . धन वैभव का संग्रह की अपेक्षा उपभोग पर व्यय ज्यादा प्रमुख होता है .

स्पष्ट है कि कन्धों पर उत्तरदायित्व कम और उपभोग स्वतंत्रता प्राप्त होती है .. निश्चित ही जीवन ज्यादा  सरलता से चलता है . सरल स्थिति को निभाना आसान होता है इसलिए युवाकाल पसंद किया जाता है .

जब स्थिति पैतीस-चालीस के बाद बदलनी आरम्भ होती है .. तब शारीरिक क्षमता तथा शारीरिक सौन्दर्य ढलान पर आने लगता है जिम्मेदारी कन्धों पर आते जाती है . प्रौढ़ता आने की आहट मिलने लगती है . दिनचर्या में लापरवाही ज्यादा हुई तो कुछ स्वास्थ्य समस्याएं भी उत्पन्न होने लगती हैं .

भारतीय संस्कृति में पूरे जीवन काल की पध्दति और महत्व है . किन्तु पाश्चात्य प्रभाव में आयु बीतने के बाद भी युवा दिखने और बने रहने लालसा मन में समाई रहती है .
संस्कृति जब उपभोग को सीमाओं में रख पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों के निर्वहन को प्रेरित करती है . लेकिन हम दूसरों को देख आडम्बरों से ही चमत्कृत होते हैं . चूँकि आयु शरीर पर असर करती है अतः उस को निष्प्रभावी करने की चिंता और उपायों में लग हम असफल होने लगते हैं .. उसकी(उपभोगों ) चिंता करते हैं .और जीवन जितना कठिन नहीं होना चाहिए .. उससे अधिक कठिन बनाते हैं .

जीवन का स्वरूप ऐसा है ... जब युवा काल के विदा होने से जीवन में कुछ कमी आनी आरम्भ होती हैं तो उसकी प्रतिपूर्ति के अवसर भी सुलभ होते हैं .
 हम पहले पारिवारिक और फिर सामाजिक उत्तरदायित्वों का अनुभव कर उसे यथा प्रकार  निभाते हैं तो हमारी मानसिक सुन्दरता बढती है .. हो रही शारीरिक सौन्दर्य की कमी को यह सुन्दरता निष्प्रभावी करती है .


पारिवारिक और फिर सामाजिक उत्तरदायित्वों के उचित निर्वहन से हमारी वैचारिक क्षमता बढती है . जो नई पीढ़ी को संस्कार और सद्प्रेरणा उपलब्ध कराती है . युवाकाल की अपेक्षा आई शारीरिक क्षमता में गिरावट की प्रतिपूर्ति मानसिक वैचारिक क्षमता करती है .

शारीरिक क्षमता से  हम स्वयं का कुछ भला करते हैं और सृजन श्रम से कुछ संरचनाएं भी  देते हैं इसका महत्व तो होता ही है किन्तु सही वैचारिक क्षमता से राष्ट्र,समाज और मानवता को बेहद ही सच्ची दिशा दे सकते हैं .
राष्ट्र और समाज हित की दृष्टि से किसी युवा का योगदान से ,प्रौढ़ (परिपक्व ) का योगदान बीसा ही हो सकता है .. क्योंकि सही दिशा में किया श्रम उन्नति प्रशस्त करता है .  सच्ची दिशा में युवा क्षमताओं को उपयोग और प्रेरित करना बहुत प्रासंगिक है .जो मानवता और हमारे समाज हित में है ..

प्रौढ़ता में कर्तव्यों का अनुभव कर मिले अवसर पर न्याय करने की भावना .. और एक सिस्टम के लिए महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को  सफलता से निभाने की अनुभूति आनंदित करती है ..
प्रौढ़ता पर पहुँची वर्तमान  पीढ़ी को इसका आनंद अनुभव करना चाहिए ना कि बीते को वर्तमान बनाने की चिंता करनी चाहिए .
बीता वर्तमान नहीं हो सकता किन्तु सही जीवन संचालन से बीते और वर्तमान से अच्छा भविष्य हो सकता है वह भी सिर्फ अपना ही नहीं ... बल्कि राष्ट्र का ,समाज  और सम्पूर्ण मानवता का भी...

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