नहीं मात्र दोषी दामिनी के दोषी बनते वे जीवन दायिनी के
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प्रथम दृष्टया दिखते मात्र दामिनी अत्याचार के वे दोषी
मनुष्य वेश में ऐसे पशु करते अबला पर जो अत्याचार
नारियां मुख अपना छिपातीं जिन की कोख से वे जन्मते
पले गोद पिता-भाइयों की लज्जावश सिर झुकता उनका
बहिनें उनकी स्वयं कुचलती अपने हाथ की वे अंगुलियाँ
जिनसे रहीं रक्षा सूत्र थी बांधती कलाईयों पर पशुओं की
जिन गावों शहरों में जन्मे जहाँ हुआ लालन-पालन उनका
माटी धिक्कारे करती अचरज ऐसे नहीं थे संस्कार वहां के
जिन पुरुषों पर हावी होते मन में कुत्सित ऐसे विचार
राजेश करता हाथ जोड़ प्रार्थना करें स्वयं वे पुनर्विचार
कृत्य अमानुष नहीं शोभित है सभ्य हुए मनुष्य समाज में
नहीं मात्र दोषी दामिनी के दोषी बनते वे जीवन दायिनी के
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