Monday, February 2, 2015

भारतीय सिने इंडस्ट्री - एक आलोचक दृष्टि -1

भारतीय सिने इंडस्ट्री - एक आलोचक दृष्टि  -1
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ऊपर से नीचे उतरेंगे ?
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दो प्लेटफॉर्म्स हैं , एक नीचा , एक ऊँचा। ऊँचे पर ज्यादा अच्छाई हैं , नीचे पर बुराइयाँ ज्यादा हैं। हम ऊँचे पर हैं, नीचे वालों से क्या व्यवहार रखेंगे ? हम उन्हें सहारा देकर ऊपर लायेंगे या उनकी बुराइयों में मिल जाने को स्वयं ऊपर से नीचे उतरेंगे ?

अपने, हम संस्कार खोते ?
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सिनेमा आया , आरम्भ में वे लोग ज्यादा आये , जिनकी सामाजिक पृष्ठभूमि हीन थी।  जो समाज में सम्मानीय नहीं थे। लोकप्रियता और आय की सुलभता ने बाद में , संभ्रांतों को भी इसमें आकर्षित किया, वे सिने इंडस्ट्री में सम्मिलित हुये।  वहाँ चित्र बना , उच्च संस्कारी का हीन संस्कारों से सानिध्य का। क्या -अपेक्षित था ? उच्च संस्कारी अपनी संगत में उन्हें सुधारते या निम्न के साथ मिल अपने, संस्कार खोते ?

जो न होना चाहिए था, वह क्या हुआ यहाँ ?
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उच्च संस्कारों में उन्हें प्रोन्नत करने की जगह , निम्न के व्यसन और बुराइयाँ ग्रहण की गईं। ऊँचे पर खींच ले जाने का पुरुषार्थ न कर , सरलता से नीचे उतरने का विकल्प चुन लिया। कम चिंता की बात होती अगर इतना सिने इंडस्ट्री वालों के बीच ही घटता रहता। लेकिन इस घटिया ऐतिहासिक घटना के परिणाम इसलिए घातक रहे , क्योंकि यहाँ की प्रस्तुतियों (फिल्मों) को समाज में अविश्वसनीय लोकप्रियता मिली।  समाज के दैनिक व्यवहार , रीति -रिवाज घटिया फिल्मों से दुष्प्रभावित हुए। उत्कृष्ट साहित्यिक और साँस्कृतिक सृजन /रचनायें हाशिये पर चले गये।

भाषा में अश्लीलता और गालियाँ
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मनोरंजन - और हास्य शिष्ट -शालीन तरीकों से प्रस्तुत किया जा सकता था। इन्होनें फ़ूहड़ ,व्दिव -अर्थी संवादों और दृश्यों से इन्हें समाज /दर्शक के सम्मुख परोसा। समाज के निचले तबके की भाषा और रंगढंग को अच्छी दिशा दे सकते थे। फिल्मों ने शिष्ट व्यक्तियों की भाषा में अश्लीलता और गालियाँ समाविष्ट कर दी। द्रुव्यसनों को फैशन की तरह प्रस्तुत कर दिया।

दिमाग नहीं था क्या ?
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बचाव में कह सकते हैं , हमारे कहने पर सब क्यों कूद गये कुओं में ? स्वयं का चरित्र और दिमाग नहीं था क्या ?
देखने वाला बच्चा /किशोरवय और युवा भी था , जिसका चरित्र निर्माण होना चल रहा था। दर्शक गरीब -अपढ़ भी था , परिश्रम से चूर उनका दिमाग , गहन चिंतन उचित /अनुचित के भेद को जानने को पर्याप्त सक्रिय न रह पाता था ।

देश और समाज बिगाड़ के रख दिया
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बहुत फ़िल्मी नायक -नायिकायें सो चुकी चिर निद्रा में , समाज उत्कृष्ट परम्पराओं और उच्च सँस्कारो को लीलने का कलंक अपनी छाती पर रखके। जो वर्तमान हैं वो सुधर जायें।

दूध और यौवन
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दूध आँच पर गर्म करने पर एक अवस्था में उफनने को होता है। तब आँच कम कर उसके उफान पर नियंत्रण किया जाता है। ऐसा न करने पर उफनकर बाहर गिर कर बर्तन , गैस और प्लेटफॉर्म ख़राब करता है।  ठीक उस भाँति , सभी की अवस्था आती है , जब यौवन का उफान उठता है। यह उफान नियंत्रित न किया जाये तो स्वयं का भविष्य , परिवार की प्रतिष्ठा और समाज को ख़राब करता है। नियंत्रण को सँस्कार और संस्कृति भी कहा जा सकता है।

अधेड़ भी बौराये
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फिल्मों ने इस उफान को और आँच दी है।  यौवन उफ़नकर समाज को ख़राब करता है। इसकी परिणीति , नारी से  अश्लील कमेंट , गंदी दृष्टि , छेड़छाड़  और कहीं रेप के रूप में देखने में आते हैं। पाश्चात्य विश्व की जिस बात को लेखक प्रहार करता आया है , उसमें पोर्नोग्राफी प्रमुख है।  इसने यौवन को ऐसे उफनाया हुआ है कि पूरा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया गन्दा हो गया है। पोर्नोग्राफी और फिल्मों की आँच से अब युवा तो क्या अधेड़ भी बौराये हुए हैं , जहाँ देखो नारी अपमानित की जा रही है।
अपने 50 -60 वर्ष के मौज मजे के लिए , क्यों पूरा समाज परिदृश्य और राष्ट्र -जीवन का अहित करते हो ?

विष बेल स्वयं मुरझायेगी
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इनका साथ कई औरों ने दिया यद्यपि वे भी दोषी गिनाये जा सकते हैं , किन्तु लेखक का प्रहार बुराई की जड़ पर है , जड़ मिटेगी विष बेल स्वयं मुरझायेगी।
--राजेश जैन
03-02-2015

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