नारी के लिए दुनिया और ज़िंदगी अलग क्यों?
-------------------------------------------------------------------------------भारतीय परिवेश में देखें तो इक शताब्दी पूर्व तक नारी होने का अर्थ- वस्त्र की परतों में छिपी रहना , घर की सीमा में बँधी होना और चूल्हा चौका , बच्चों की देखभाल तथा घर के बड़ों और पुरुषों की सेवा में रत रहना होता था। बाहर और परिवार के लिए किये जाने निर्णयों में प्रत्यक्ष कोई हस्तक्षेप नहीं था। उनका बाहर - धर्म / मंदिर , पास पड़ोस में सुख-दुःख के महिला आयोजनों एवं घर की आवश्यकता के लिए कुयें , जलाशय से जल भर लाना होता था। मध्यम और उच्च वर्ग की महिलायें , आजीविका अर्जन के लिए बाहर नहीं निकलती थीं। लेकिन गरीब घरों की स्त्रियाँ , झाड़ू ,कपड़े ,बर्तन और अन्य सेविका के कार्यों से धन अर्जन को विवश होती थीं। हर नई पीढ़ी की पैदा होने वाली बेटियाँ , अपनी माँ और अन्य बड़ी औरतों को यह सब करते देख , इसे ही नारी के जीवन के तौर पर स्वीकार करती थीं , यानि मानसिक रूप से इन ही दायित्वों में सिमटने और इस तरह के बंधन में रहने के लिए उनका प्रगट विरोध नहीं होता था। यह सब विचित्र तो था लेकिन किसी को विचित्र नहीं लगता था। जबकि तन की रचना सिर्फ अलग थी पर मन की रचना से नारी कहीं भी पुरुष से भिन्न नहीं थी।
हम पर ही सारे बंधन क्यों और पुरुष अपने मन की करने को स्वच्छंद क्यों ? यह नारीवादी , समाज व्यवस्था से विद्रोह का प्रश्न पिछले सौ वर्षों से ज्यादा पुराना नहीं है। पाश्चात्य देशों में बेहतर कानून व्यवस्था के कारण , नारी की शारीरिक निर्बलता के बाद भी उन के विरुध्द अपराधों पर नियंत्रण होने से , वहाँ की नारी गृह सीमा से पहले बाहर निकली , उसने शिक्षा हासिल करने की नई परंपरा रखी और धन अर्जन में पुरुष की तरह ही भागीदारी करना आरंभ किया। पश्चिम के बदलाव की यह हवा भारतीय उप महाद्वीप में भी पहुँची। यहाँ भी सदियों या कहें सभ्यता के आरंभ ही से दबा यह तर्क कि नारी भी एक मनुष्य होने नाते पुरुष से समानता रखती है , मुखर होना आरंभ हुआ। पहले कम फिर क्रमशः नारीवाद का यह स्वर बुलंद होता गया। समाज के प्रगतिशील पुरुषों ने इसे न्यायप्रियता से लेकर अपने घर परिवार की नारी के लिए समानता के अवसर देना आरंभ किया। कुछ की देखादेखी और भी पुरुष और नारी इस बदलाव को स्वीकार करते चले गए। शिक्षा और धन अर्जन की नारी क्षमता , उन्हें परिवार और परंपरागत आर्थिक निर्भर नारी से ज्यादा औचित्यपूर्ण लगी।
इन हालात में जरूरत है कि बदलाव के इस काल में दकियानूसी परंपराओं को लागू रखने में अपनी शक्ति खर्च करने की जगह , उन व्यवस्थाओं और अपने मन परिवर्तन पर शक्ति लगाना चाहिए। साबित यह हुआ है कि कोई भी प्रगतिशील परिवर्तन रुकता नहीं है। कोई देश , कोई समाज या कोई संप्रदाय उसे बीस-पचास साल टाल तो सकता है किंतु रोक नहीं सकता। वैसे भी नारी आबादी लगभग 50 फ़ीसदी होती है। लगभग आधे इंसान के दिल में उभर रहे सवाल की अनदेखी उचित नहीं होती है। क्या अब तक सही नहीं था को भूलकर , क्या सही किया जाए इस नज़रिये से हमें देखना चाहिए। जो पूरा समाज 50 साल बाद करेगा , उसे आज हम आरंभ करें तो बुध्दिमानी ही होगी। नारी पर बर्बरता के प्रतिबंध लगे रहेंगे तो वह प्रतिक्रिया में ज्यादा विद्रोह करेगी। मगर उसके समानता की परिस्थिति निर्मित करेगें तो वह सहजता में ज्यादा जिम्मेदार होगी। उस पर वस्त्रों के , संबंधों की जबरन पाबंदी नहीं होगी तो उसे खुद ज्ञान रहेगा कि उसकी और परिवार का हित किन आचरण में है।
प्रतिक्रिया में वह यदि अर्धनग्न दिखना चाहती है तो सहजता में शालीनता को पसंद करेगी। जो कार्य पुरुष के करने पर कलंक नहीं उसे नारी के करने पर कलंक के तौर पर देखना प्राकृतिक न्याय के विपरीत है। प्राकृतिक न्याय को स्वीकार करते हुए नारी को अपनी ज़िंदगी , अपनी ख़ुशी से जीने की राह प्रशस्त करना अब लाजिमी होगा.
अपने कानून व्यवस्था , धार्मिक रिवाजों और समाज में यह प्रावधान हमें कर देना चाहिए कि हमारे परिवार / समाज / मज़हब की नारी के दिल/जेहन में गुलामों जैसी पाबंदियों के विरुध्द उमड़ता आक्रोश शांत हो। अब का समय नारी के मन में उसी के प्रति आदरभाव पैदा करेगा जो उसे अपने समान इंसान के रूप में देखेगा , उनसे व्यवहार करेगा।
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--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
11-06-2018
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