Monday, June 4, 2018

एक बार पूछ तो लो उससे ....

एक बार पूछ तो लो उससे ....
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"इक तुम्हें मिली - इक उसे मिली ज़िंदगी
तुमने तो जी ली - उसे मर मर के जीने दी"

किस सोच से ? , किस उद्देश्य से ? या क्या जस्टिफिकेशन है? पुरुष की कई कई औलादें पैदा करने के पीछे इसमें हमें जाना नहीं है। यहाँ सवाल कई कई बार प्रसव की वेदना सहती बेचारी नारी के मनोभाव का है। एक छोटी सी तकलीफ जिसमें रिस्क ज़िंदगी की होती है अगर स्वयं अपने पर आती है तो हम सब भयाक्रांत हो जाते हैं किंतु एक नारी को गर्भवस्था के दौरान ऐसे कितनी बार ज़िंदगी का भय सताता है , किसी को यह सोचने की परवाह नहीं । चलो माना पैदा भी कर दिए मजबूरी में 6-8 बच्चे उसने , किंतु उसकी दयनीय करुणाजनक मनोस्थिति का अंत यहीं नहीं हो जाता है। इसके बाद बारी और भी ज्यादा गहन कष्टों की आती है। हमारे समाज के घर-परिवार में अभावों का बसेरा होता है।  बच्चे कपड़े को लालायित रहते हैं , अच्छे भोजन को तरसते हैं , शिक्षा की गंभीरता बताने वाला उन्हें कोई नहीं और संस्कारों एवं उचित आचरण की प्रेरणा देने वाला उन्हें कोई नहीं होता है। अपने बच्चों की अपूरणीय मंसूबों को देखना , समाज के उन्नत परिवारों के बच्चों से उन्हें पिछड़ते देखना , यह करुणामयी किसी माँ के हृदय पर कितना बड़ा दबाव होता है , किसी को समझना नहीं है। उसकी चिंता उसके दुःख की मनोस्थिति उसकी नियति होती है। अभावों और शिक्षा संस्कारहीनता में पले बढ़े , बच्चे बड़े होकर , चोर - जेबकतरे हो सकते हैं। अपने तरफ किसी लड़की को आकृष्ट नहीं होते देख जोर जबरदस्ती और दुराचार को उन्मुक्त हो सकते हैं। कोई और सिर झुकाने वाले काम उनसे हो जाए - तब भी दोष इस बेचारी माँ पर आता है कि किस माँ का जना है यह दुष्ट। इस देश के पुरुषों , मेहरबानी कर इस समाज - इस देश पर इतनी करो कि 'एक बार पूछ तो लो उससे' कि कितनी औलाद ख़ुशी से वह पैदा कर सकती है। कितना है घर में कि कितने बच्चों की परवरिश वह ख़ुशी से कर सकती है ? कितने बच्चे को उचित शिक्षा-संस्कार के लिए उसके पास वक़्त होगा ? जितना घर परिवार और बच्चों पर देने के बाद थोड़ा वक़्त अपनी निजी ख़ुशी के लिए भी निकाल सकेगी।
 ज्यादा औलादों की सब तरह की अपेक्षाओं की पूर्ति के दबाव में नारी , चाहे वह किसी भी संप्रदाय की हो उम्र से पहले बूढी होती है , और ज़िंदगी को समझे बिना दुनिया से रुखसत होती है। नारी के लिए ज़िंदगी का मायने इतने बस में सीमित न करो , उसे ज़िंदगी का हक़ ज्यादा नहीं दे सको तो कोई बात नहीं , अपने बराबर का तो उपलब्ध कराओ।
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
04-06-2018

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