Monday, June 4, 2018

रोज़ा-उपवास

रोज़ा-उपवास
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अभी बच्चे और नवयुवा जिन्हें भूखे रहने का अभ्यास ही नहीं उन पर रोजा-उपवास की पाबंदी से किसी को धर्म लाभ नहीं मिलता , अपितु उल्टा होता है। मजहब के नाम पर किसी को भूख से तरसाना - उनका दिल दुखाना है। दिल दुखाना , मज़हब नहीं होता। बच्चे-नवयुवा , पढ़ने- जॉब में मन लगायें या भूख से व्याकुल रोजा या उपवास खोलने के वक़्त का बेसब्री से इंतजार करें? चिकित्सा विज्ञान भी पेट ,पाचन और स्वास्थ्य की दृष्टि से इसे उचित नहीं कहता। लंबे समय भूखे रहना और फिर गरिष्ठ भोजन पर टूट पड़ना अजीब है. धर्म गुरुओं को दकियानूसी रिवाजों को बदलने के लिए आगे आना चाहिए। अब वक़्त दसवीं - बारहवीं सदी का नहीं जहाँ कुछ को करते देखने की नकल करना बाकि उचित मानते थे। अब हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं , जहाँ अंधविश्वासों को जगह नहीं होनी चाहिए। अब हमारे सामने उन्नत विज्ञान है , हम पढ़े-लिखें हैं हमें तर्क संगत बातें करना चाहिए तर्क संगत आचार-व्यवहार करना चाहिए। मैं जानता हूँ - रोजा रखवाने के चक्कर में माँ-बीबी सारी रात जागा करती हैं , दिन में भी सो पाना मयस्सर नहीं होता। मज़हब से क्या मिलेगा पता नहीं किंतु तय है कि स्वास्थ्यगत समस्यायें तो उनकी बढ़ेंगी ही।
किसी भी धर्म मजहब में - नेक इंसान होना सबसे पहली जरूरत है। मज़हब के प्रति आदर है तो पहली कोशिश अच्छे इंसान बनने की होना चाहिए , इससे हमें धर्म लाभ मिलता है , हमारा समाज देश अच्छा होता है। फिर रोज़े उपवास भी ख़ुद से मन में आएं तो ही किसी को रखना चाहिए। संकोच,नकल या जोर जबरदस्ती से नहीं रखे जाने चाहिए।
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
04-06-2018

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