Sunday, June 10, 2018

डिवोर्स के पहले


डिवोर्स के पहले

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 भारतीय परिवेश में डिवोर्स क्यों उपयुक्त नहीं इस पर ऐसे विचार करने की जरूरत है -

बेटी को विदा करने और इक नए सदस्य को परिवार में बहू के रूप में लाने के पूर्व दोनों ही परिवार को बहुत साहस जुटाना होता है। ज़ाहिर है कि बहुत पड़ताल के बाद , विवाह होता है। दोनों ही पक्ष एक बहुत बड़ा खर्च (जो क्षमता से कहीं अधिक होता है) विवाह आयोजन पर करते हैं। अगर ऐसा नहीं है और विवाह - इश्क होने के बाद प्रेमी युगल के बीच होता है तो इस प्रेम संबंध में धन के रूप में बहुत नहीं किंतु समय के रूप में ज़िंदगी का बेशक़ीमती वक़्त जाया किया गया होता है। दोनों ही तरह के विवाह इसलिए अलग अलग नज़रिये से बहुत महँगे होते हैं। ऐसे में अगर दो-चार साल में यह संबंध विच्छेद की नौबत आ जाए तो यह साफ प्रतीत होता है कि कम से कम एक में समझ की कमी है। दूसरे शब्द में लिखें तो उसमें पति (या पत्नी) होने की काबिलियत ही नहीं होती। उन्हें यह समझना जरूरी है कि विवाह परिवार और समाज दोनों ही दृष्टि से बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है। यह वह शपथ होती है जिसे कुछ बातों के कारण तोड़ना - सिवाय मूर्खता के कुछ नहीं होता । हमारे समाज में डिवोर्स लड़का और लड़की सहित दो परिवारों की प्रतिष्ठा पर भी प्रश्न चिन्ह अंकित कर देता है। डिवोर्स - ईगो की अधिकता का द्योतक होता है , जिसके कारण आँखों पर चढ़ा चश्मा यह देख नहीं पाता है कि दूसरे पक्ष पर इसके बुरे प्रभाव क्या हो सकते हैं। यह साबित होता है कि जिससे इश्क़ और ज़िंदगी भर का साथ निभाने का वादा था , उसे थोड़े से अर्से में ही दगा दिया जा रहा है. यह सिध्द करता है कि पति-पत्नी और परिवार में ज़िंदगी की चुनौतियों और नित होते बदलाव के साथ सामंजस्य बिठाने की समझदारी का अभाव है। यह अति आशावाद है कि डिवोर्स के बाद ज़िंदगी के कष्ट मिट जायेंगे। समझने के जरूरत यह है कि अभी कुछ मुश्किलें हैं तो तलाक के बाद मुश्किलें और भी होंगी , क्या हर मुश्किलों का सामना , दायित्वों से पलायन कर देना अनुचित नहीं ?

कोई भी हो उसे डिवोर्सी नहीं जिम्मेदार होने की जरूरत है , कोई और ज़िंदगी के फ़लसफ़े समझाये उससे बेहतर खुद समझने की जरूरत है। हमें दयनीय या उपहास रूप में औरों के सामने जाने की जरूरत नहीं , अपितु परिवार की प्रतिष्ठा के रक्षक के रूप में नज़र आने की जरूरत है। इस खुशफ़हमी को खत्म करना भी नितांत जरूरी है कि तलाक के बाद फिर विवाह में कोई बहुत अच्छा साथ ही मिल जाएगा। हो सकता है , पछतावा रहे कि इससे बेहतर तो वह थे/थी। निभाने की मजबूरी आगे भी संभावित अगर हो तो बुध्दिमानी से अभी के दाम्पत्य को ही निभा लिया जाना चाहिए । परस्पर समझदारी से उन कारणों को दूर करने के उपाय कर लिए जाने चाहिए जिनसे संबंधों पर यह संकट आया है।

अगर आप डिवोर्स के फ़ैसले के पूर्व समझदारी से अपना दाम्पत्य बचा लेते हैं तो -  अपने उपहास से बचते हैं , अपने को जिम्मेदार साबित करते हैं , अपनी प्रतिष्ठा बचा लेते हैं , दो परिवारों को परस्पर बैरी हो जाने से बचा लेते हैं , अपने इश्क़ के वादे को निभा लेते हैं अथवा अपने विवाह पर किये गए व्यय को व्यर्थ नहीं जाने देते हैं। अगर आपका कोई बच्चा हो गया है तो बड़ा-समझदार होकर आपको धिक्कारेगा इस संभावना से आप बचते हैं। स्मरण रखें कि आपके  जीवनकाल के लगभग 18000 दिन ही अभी बाकि बचते हैं , तलाक़ मिलने के लिए लग जाने वाले 1000 दिन आप व्यर्थ तनावों या चिंताओं में नहीं जाने दें , इसके बाद के कई और दिन इन पछतावे में नहीं जाने दें कि व्यर्थ गुस्से या ईगो में आपने बड़ी भूल की है। छोटी सी ज़िंदगी का हर दिन बेशक़ीमती है उसे अपनी और औरों की ख़ुशी के लिए व्यतीत करना चाहिए . कोई भी दिन अवसाद में व्यर्थ नहीं किया जाना चाहिए।

तलाक दे देना वीरोचित नहीं होता , हर परिस्थिति में अपने विवाह ( पूर्व निर्णय ) को निभा लेना साहासिक कार्य होता है।

अतः उचित है कि डिवोर्स को अंतिम विकल्प के तौर पर देखा जाना चाहिए।

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
10-06-2018

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