Monday, October 12, 2015

पापा और बेटी

पापा और बेटी
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सजी दुकानों में नये नये सामानों ने
बेटी तुम्हें जब तब ललचाया था
मै चाहता ,तुम्हें दिलवाना लेकिन
सभी कुछ नहीं दिलवा पाया था

तुमने सीमा क्षमता पापा की जानी
बुध्दिमानी पर अचरज में ,मैं होता था
हर चीज़ नहीं बनी तुम्हारे लिए
तुमने छोटी उम्र में ही यह समझा था 

प्रतिस्पर्धाओं में योग्यता जितनी
सफलता में संतोष ,जीवन कला होती है
यह संस्कार तुम ग्रहण कर सकी ,
जिससे अपराध बोध से मैं बच सका था
--राजेश जैन
12-10-2015
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