Saturday, August 15, 2020

वैतरणी पार .. एपिसोड IX

 

एपिसोड  IX - वैतरणी पार

फिर वह शुभ घड़ी भी आई जब वैतरणी एवं मेरा विवाह, कोरोना के इस समय में, अपेक्षित सादगी से संपन्न हुआ। ऐसा होने के साथ मुझे अनुभव हुआ कि मेरे ईश्वर ने मेरी गलती का प्रायश्चित की पूर्णतः, सुनिश्चित करते हुए मेरे पर अपना महान आर्शीवाद बनाये रखा है। 
हमेशा से, अपने हनीमून के लिए, मेरा पसंदीदा स्थान स्विट्जरलैंड था। मगर कोरोना एवं उस पर, वैतरणी की अभिलाषा कि वह देश में ही टूरिज्म को प्रोन्नत करने में सहयोगी हो। हमने देश में ही हनीमून का निर्णय लिया। पिछले वर्ष से निर्मित परिस्थितियों में कश्मीर जाने को लेकर घबराहट से प्रभावित लोग वहाँ पर्यटन को नहीं जा रहे थे। ऐसे हालत में कश्मीर के लोग अपनी आय की कमी से व्यथित थे। इसे दृष्टिगत रखते हुए वैतरणी ने अपनी ओर से उन्हें अवसर प्रदान करने के लिए, कश्मीर जाने की अभिलाषा दर्शाई। मैंने वैतरणी की इक्छा का आदर करते हुए कश्मीर के लिए आवश्यक बुकिंग करवाई। 
यद्यपि हमारे परिजन इस बात से कुछ भयाक्रांत थे मगर उन्होंने हमारी ख़ुशी के लिए हमारी ट्रिप को स्वीकृति दे दी। 
हम आज सुबह ही कश्मीर आए हैं। और अभी हम सुसज्जित शिकारा में डल झील की सैर पर हैं। 
यहाँ मैंने तय अनुसार अपने किये अपराध का वैतरणी के सम्मुख कॉन्फेशन करने के लिए, कहना शुरू किया है - वैतरणी, यह मैं उचित समय मानता हूँ कि मैं तुम्हें यह बताऊँ कि बारहवीं में हमारी वॉटरफॉल पर पिकनिक मेरी सुनियोजित योजना थी। तब मैं स्कूल में सर्वोच्च स्थान पर आने के लिए मर रहा था। 
मेरी यह महत्वाकांक्षा तुम्हारे कारण पूर्ण नहीं हो पाती थी। योजना अंतर्गत मैं तुम्हारा ध्यान पढ़ाई पर से भटकाना चाहता था। अकेले अध्ययन के बलवूते मैं तुम्हें पीछे नहीं कर पा रहा था अतः तुम्हें अश्लील वीडियो देखने की आदत देना, तब का मेरा मंतव्य था। 
जिसमें मैं सफल भी हुआ था। और वैतरणी पार कर तब मैं, प्रथम आ सका था। मगर मेरी महत्वाकांक्षा पूरी होने पर भी मैं, खुश नहीं हो सका था। उसका कारण, तुम्हारा कमजोर स्टूडेंट से भी पिछड़ कर सातवें स्थान पर आना था। 
ऐसा नहीं होता और मैं प्रथम और तुम व्दितीय होतीं तो वैतरणी, मैं अपने बुरे कर्म को, कभी अपना अपराध ना मान पाता। 
तुम्हें सातवें स्थान पर देखने से मुझे अत्यंत ग्लानि बोध हुआ एवं तब मैंने तुमसे किये अपने छल का प्रायश्चित करने का निर्णय लिया। मुंबई आईआईटी में प्रवेश ना लेकर तुम्हें मिलने वाले कॉलेज में प्रवेश लेना मेरे प्रायश्चित का आरंभ था। 
मुझे ख़ुशी है कि मेरे ईश्वर ने इसके बाद मुझे अवसर सुलभ कराये और उसकी परिणिति में आज तुम मेरी परिणीता हुई हो। 
अपने किये छल की मैं आज तुमसे क्षमा माँगता हूँ। मैं ऐसा करना इसलिए उचित मानता हूँ कि अपने दांपत्य की बुनियाद में ही हमारे मध्य पूर्ण पारदर्शिता सुनिश्चित हो सके। 
मैं चाहता हूँ कि अब से आगे के जीवन में हम दोनों के बीच कोई राज, राज ना रहे। 
मेरे मुख से यह सुन कर वैतरणी खिलखिलाकर हँस पड़ी। 
उसके मुखड़े पर इस हँसी से उसके दोनों गालों पर सुंदर डिंपल निर्मित हो रहे थे। वैतरणी के इन डिंपल्स का मैं मन ही मन सदा से मुरीद था। मगर मेरी इस स्पष्टवादिता पर, उसका नाराज होने की जगह हँसना, मुझे असमंजस में डाल रहा था। 
वैतरणी ने मुझे ज्यादा असमंजस में नहीं रहने दिया, कहा - तुमने, चाहे जिस अभिप्राय से मुझे वह वीडियो दिखाया था लेकिन मैंने अभिप्राय सिद्ध नहीं होने दिया था। मैंने पिकनिक की एक एक बात अगली ही सुबह अपने पापा को बता दी थी। फिर पापा ने मेरा आगे का व्यवहार तय किया था। मैं, उसी अनुसार तुमसे व्यवहार किया करती थी। 
यह सुनकर चौंकने की बारी अब मेरी थी। मैंने ऐतराज के स्वर में वैतरणी से कहा - मेरी सब गंदी बातें तुम अपने पापा से कैसे कह सकीं, वैतरणी? तुम बहुत दुष्ट हो, उन पर मेरा इम्प्रैशन ही ख़राब कर दिया तुमने। 
वैतरणी मुस्कुराई संयत स्वर में बोली - बुरे काम का बुरा नतीजा भुगतने से तुम्हारा यूँ घबराना, कैसा?
मैं लज्जित हुआ, मैंने जिज्ञासा में उससे पूछा - फिर तुम्हारा, मुझसे मोबाइल पर वीडियोस की फरमाईश करना क्या होता था ?
वैतरणी - मैं, तुम्हारा मोबाइल लेकर, उस पर सब्जेक्ट की नेट सर्फिंग किया करती थी और तुम्हें देने के पूर्व हिस्ट्री डिलीट कर देती थी। 
मेरी उत्सुकता का अंत नहीं होने पा रहा था। मैंने फिर पूछा - तब बारहवीं एवं आईआईटी में मुझसे तुम्हारा पिछड़ना, कैसे हुआ यह सब?
वैतरणी फिर मुस्कुराई थी उसके डिंपल फिर स्पष्ट थे उसने धीमे स्वर में कहा - मैंने दोनों परीक्षाओं में, जितने प्रश्न हल किये वे सभी सही थे। मगर जानबूझकर मैंने कुछ प्रश्न छोड़ दिए थे। 
मैं तनिक उत्तेजित हुआ, बोला - वैतरणी भला तुम ऐसा कैसे कर सकती थी ?
वैतरणी - मेरे पापा एवं मैं, उस वर्ष तुम्हें मुझसे आगे के स्थान पर देखना चाहते थे। 
मैं - (हतप्रभ था) मगर इससे तुम्हें एवं पापा को क्या मिलना था?
वैतरणी - अति स्वार्थ लिप्सा में इक भटके (तुम)को सही मार्ग पर लाना हमारा लक्ष्य था। 
अब मैं ठंडा पड़ गया था, मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरी सारी शक्ति निचोड़ ली हो। समर्पण के भाव में मैंने पूछा - अगर मैं, मार्ग पर नहीं आया होता तो क्या होता? 
वैतरणी - हमें ईश्वर पर एवं मेरी प्रतिभा पर भरोसा था, जिनके होने से मेरा कुछ बिगड़ना नहीं था। 
अब मैं वैतरणी की गोद में सिर रखकर निढाल पढ़ गया था - धीमे स्वर में जैसे अपने आप से कह रहा था - खुद वैतरणी ने ही, मेरी वैतरणी पार लगाकर, मुझे स्वर्ग के द्वार पर पहुँचाया है, धन्य हूँ, मैं। 
वैतरणी अब मेरे सिर एवं सीने पर अत्यंत प्रेम एवं कोमलता से थपकी दे रही है, कश्मीर की सुंदर वादियों से अभी अधिक सुंदर मुझे, मेरी वैतरणी अनुभव हो रही है। 
यह अनुभूति करते हुए मेरी आँखे मुंद जाती हैं एवं मेरे मनो-मष्तिष्क में वैतरणी के साथ आगामी जीवन को लेकर सुखद सपने तैरने लगते हैं। मैं तब उसके साधारण पापा-मम्मी के बारे  सोचने लगता हूँ जिन्होंने अपनी बेटी के लालन पालन एवं उसके व्यक्तित्व निर्माण में अपना जीवन लगा दिया है। 
मैं मन ही मन संकल्प लेता हूँ कि हमारी आने वाली वंश बेल का लालन पालन मैं, राष्ट्रनिष्ठ एवं न्यायप्रिय नागरिक बनाने की दृष्टि से करूँगा  ...

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
15-08-2020

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