Thursday, August 27, 2020

गद्दार ... 6. मातृभूमि

 गद्दार ... 

6. मातृभूमि  

जंगल में, मैंने अगले सात दिन और रातें गुप्त रूप से काटी थीं। युवक हर दिन भेड़ें चराने आया करता। 

घर से आते हुए मेरे लिए दिन भर का खाना एवं पीसी गई जड़ी बूटियों का लेप, घावों पर लगाने के लिए ले आया करता। 

यह समय काटना किसी के लिए कठिन होता लेकिन, आगामी जीवन के लिए अपने संकल्प को स्मरण करते हुए तथा उस पर दृढ़ता लाने के लिए मैंने यह समय, एक तरह से तपस्यारत रह कर काटा। 

इस बीच जब जब मुझे यह कठिन लगता मैं, ऋषि कश्यप का तपस्या करना स्मरण करता जिससे, अपने संकल्प के लिए मुझे आत्मबल मिलता। मेरे शरीर पर के सभी घाव ठीक हो गए। 

इन सात दिनों में यहाँ अवश्य कोई बुरी बात नहीं हुई थी, किंतु पाकिस्तान स्थित आतंकवादी मुख्यालय में मेरा कोई सुराग नहीं मिलने से हड़कंप मची हुई थी। संगठन प्रमुख अपने मातहतों से कह रहा था - 

शायद वह (मैं) सेना की लगी गोली से घायल होकर वीरान में, दूर कहीं दम तोड़ चुका है या फिर हमसे बच रहा है। 

वहाँ मौजूद एक अन्य ने कहा - 

मुझे, आपकी कही दूसरी बात ही सही लग रही है अन्यथा उसका मोबाइल मुठभेड़ वाली रात से ही हमें अनरीचेबल नहीं मिलता। 

प्रमुख बोला - 

अगर यह सच है तो वह, हमारे प्लान एवं वहाँ हमारे लिए काम कर रहे, हमारे लोगों के लिए बहुत बड़ा खतरा हो गया है। हमें, हमारे लोगों को उसके घर एवं करीब के रिश्तेदारों की निगरानी करने को बताना होगा। वह निश्चित ही घर के लोगों से संपर्क करेगा। 

तब दूसरे अन्य ने कहा - उसका सुराग मिलते ही हमें, उसको खत्म करवाना होगा। ताकि वहाँ सेना उसे पकड़, उससे हमारे राज ने उगलवा सके। 

प्रमुख - हाँ, हमें जल्द से जल्द ऐसा करना होगा। 

फिर उसने अपने मोबाइल से कोई नंबर मिलाया था। सामने से रिप्लाई मिलने पर, अपने उस आदमी को निर्देश देने लगा था।      

अपने पर इस मँडराने लगे खतरे का मुझे सिर्फ अनुमान ही था। अतः मैं सावधानी तो ले रहा था मगर उतनी नहीं जितनी मेरे जीवित बच पाने के लिए जरूरी थी। 

मेरे बाँह में गोली लगे वाले भाग में, भरते जा रहे घाव की बची गहराई एवं त्वचा पर गुलाबी रंगत, मुझे, गोली लगने की चुगली कर रही थी। यद्यपि उसमें पीड़ा नहीं रह गई थी। वह भाग कपड़ों में स्वाभाविक रूप से छिपता था। अतः यह, मेरी चिंता का विषय नहीं रह गया था। 

तब एक शाम युवक के साथ मैं चरवाहे की वेशभूषा में, वापिस उनके घर पहुँचा। रात के भोजन के बाद अब सबने मिल कर मेरे परिवार और मेरी नबीहा से, मेरे मिल सकने की योजना को अंतिम रूप दिया। 

मेरा इनमें से किसी को मोबाइल पर कॉल या कोई मैसेज करना खतरनाक हो सकता था। अतः उनसे मिलने के लिए, मेरा ऐसा ना करना तय किया गया। हमें उनसे मिलने का सहज कारण दिखाते हुए घर के बाहर ही कहीं मिलना था। 

तीनों ने इन सब बातों पर जिस गंभीरता से विचार करते हुए चर्चा में हिस्सा लिया, उससे मैं समझ सका कि उन्होंने, अपने से, मुझे आत्मीय रूप से जोड़ लिया है।   

यहाँ से मेरा गाँव 27 किमी था।

अगली सुबह युवक के साथ, (मैं) गुज्जर दिखते हुए, भेड़ों को लेकर, मेरे गाँव के लिए निकले थे। ख़ानाबदोश लोगों का ऐसा भ्रमण, किसी शक के दायरे में नहीं था। हम आपस में तो बात करते मगर रास्ते में, जहाँ भी कहीं किसी से बात करना होती या कोई चीज खरीदना होती तो, युवक ही यह करता रहा। 

हमें यह सावधानी रखनी थी, क्यूँकि मेरी ज़ुबान एवं लहजा गुज्जर जैसा नहीं था।  

हम जंगल के छोटे रास्तों से होकर, सूर्यास्त के समय, मेरे गाँव पहुँचे थे। संध्या के समय ही भेड़ों और हमारे, रात गुजारने के लिए, युवक ने एक पेड़ के नीचे प्रबंध किया था। 

रात को हमने, भोजन किया था। फिर मैं सोने की कोशिश करते हुए खुले आसमान के नीचे अपनी मातृभूमि की सुगंध की अनुभूति कर रहा था। आज के पूर्व, इस शिद्द्त से मैंने इस भूमि के प्रति ऐसा प्रेम अनुभव नहीं किया था। आज ऐसा कर पा रहा था उसका कारण, मन में मेरे विचारों का 180 अंश से घूम जाना था। 

मैं अब बरगलावों को भूल, इस देश एवं भूमि के प्रति, अपनत्व मानते हुए अपनी जिम्मेदारी अनुभव कर रहा था। 

अब मैं चाहता था कि अपनी पूरी आपबीती सुना कर, अपने परिवार और नबीहा को पूर्व में, अपने वंश के धर्म एवं आस्था के प्रति प्रेरित करूँ। फिर सेना के सामने अपने अपराध को स्वीकार करते हुए आत्मसमर्पण करूँ। मेरे अपराध की जो भी सजा मुझे मिले, उसे काटूँ। फिर आगे के जीवन में  मैं, अपने राष्ट्र एवं अपनी मातृभूमि के प्रति निष्ठा से रहना सुनिश्चित करूँ। 

अगले दिन, घर के पास के बाज़ार में, मैं तीन भेड़ों को बेचने के बहाने बैठा था। मैं इंतजार कर रहा था कि घर से, कोई बाजार आये। मैं गुज्जर पहनावे में था। लोग मुझे पहचान नहीं रहे थे। जबकि मैं सबको पहचान रहा था। छह माह के बाद इन्हें देखना, मुझे अच्छा लग रहा था। 

तीन लोग, मेरी भेड़ की कीमत करने आये थे। मैंने, उन्हें इतनी ऊँची कीमत बताई जिससे लोग, हैरत से मेरी सूरत देखते हुए आगे बढ़ गए थे। अब मेरा इंतजार खत्म हुआ था मुझे सामने से आते अब्बू दिखाई पड़े थे। वे जब पास आये तो मैंने, उन्हें आकर्षित करने के लिए आवाज़ लगाई -  भेड़ ले लो। 

इससे अब्बू के कदम ठिठके थे। उन्हें, मेरी आवाज़ परिचित लगी थी। 

मुझे देखते हुए जब करीब आये तो मैंने फुसफुसा कर कहा - अब्बू, मैं हूँ। 

वे घबड़ा गए थे। उन्होंने आसपास देखा कि हमें, कोई सुन-देख तो नहीं रहा है। जब उन्हें तसल्ली हुई कि किसी का ध्यान नहीं है, तब उन्होंने इशारा किया। मैं अपनी भेड़ लेकर सुनसान स्थान, जहाँ युवक ने डेरा डाल रखा था, की तरफ बढ़ गया। अब्बू कुछ देर करके, खोजते हुए वहाँ आये। 

चिंतित स्वर में उन्होंने, मुझे आगाह करने के लिए कहा - 

घर नहीं आना, पकड़े जाओगे। निगरानी हो रही है। टीवी में तुम्हारी तस्वीर दिखाई जा रही है। बहुत खतरा है। 

मैंने कहा - 

मैं, जानता हूँ। इसलिए कॉल नहीं किया है। आप बताइये मेरा, सबसे मिलना कैसे हो? 

उन्होंने कहा - 

रात में छुप कर शब्बीर भट के घर आओ, खतरा न लगा तो मै तुम्हारी अम्मी को लेकर वहाँ आने की कोशिश करूँगा। उनका घर थोड़ा अलग है इस कारण वहाँ मिलना सुरक्षित होगा।

मुझे मालूम था कि शब्बीर भट, अब्बू के जिगरी दोस्त हैं। मेरी ख़ुशी इसलिए ज्यादा थी कि नबीहा उन्हीं की बेटी होने से, मुझे नबीहा से अलग से मिलने की, जरूरत नहीं बचनी थी।

सिर हिलाकर मैंने, हामी भरी।

फिर उन्होंने मुझे कहा - 

चौकन्ना रहना नहीं तो पकड़े जाओगे। फिर खुद चौकन्ने होकर सब तरफ देखते हुए वे वापिस चले गये थे।

मैंने युवक को बताया और रात तक का इंतजार करने को मनाया, उसने सहमति दी। वह बाजार से दोनों के लिए खाना ले आया। फिर हमने, दिन भर भेड़ों को जंगल में चराते हुए दिन बिताया। मेरे लिए यह एक नया एवं सुखद अनुभव था। 

शाम को पिछली रात वाले स्थान पर हमने, फिर अपना डेरा जमाया एवं जब रात गहरा गई तब, मैं नबीहा के घर पहुँचा। 

अब्बू ने शब्बीर चचा को मेरे आने के बारे में, दिन में बता दिया था। अतः गुज्जर के रूप में मुझे, अपने दरवाजे पर देख उन्हें अचरज नहीं हुआ था। उन्होंने भीतर आने कहा था फिर दरवाजे वापिस बंद कर दिए थे। अंदर कमरे में नबीहा और उसकी अम्मी थी। बच्चों एवं बाकी मेंबर को चचा ने, उस कमरे में आने को मना कर दिया गया था।

नबीहा के चेहरे पर उदासी साफ़ झलक रही थी।

हम बात शुरू करते उसके पहले ही कॉलबेल बजने लगी थी। चचा ही दरवाजे पर गए थे। मेरे अब्बू एवं अम्मी आ गए थे। चचा, उन्हें इसी कमरे में ले आये थे।

अम्मी की ममता कई दिनों बाद मुझे देख कर एकदम उमड़ आई थी। मुझसे गले लग कर वे रो पड़ी थीं। उन्हें सम्हलने में कुछ मिनट लगे थे फिर गुस्से में प्रश्न किया - तुमने, यह क्यों किया? कैसे बचा पायेंगे हम, तुम्हें?

उनके पास जाकर अब मैंने प्यार से गले लगाया फिर उल्टा प्रश्न उनसे किया - उस मुठभेड़ में, मैं वहाँ से भाग निकला था। वहाँ बाद में, हुआ क्या था?

अम्मी भाव विह्वलता में बोल न सकीं तब उत्तर अब्बू ने दिया - 

तुम्हारे तीनों साथी मारे गए थे एवं उस घर की एक लड़की भी मारी गई थी। तीन महिलायें घायल हुईं थीं। उनका इलाज कर उन्हें बचा लिया गया था।

मैंने पूछा - 

सुरक्षाबल में से भी, कोई मारा गया था या नहीं?

अब्बू ने बताया - नहीं, उनमें कोई हताहत नहीं हुआ था।

मैंने चैन की श्वाँस लेते हुए कहा - 

तब मेरा अपराध हल्का हो गया है। मैं, यह चाहूँगा कि अब्बू आप खुद ही, मुझे कल थाने पहुँचा दें। मैं, वहाँ आत्मसमर्पण कर दूँगा।

अब्बू बोले - 

वे तुम्हारा बुरा हाल करेंगे, तुम्हें समझ नहीं आ रहा है। तुम सहन ना कर सकोगे। तुम्हें भाग कर पाकिस्तान नहीं जाना चाहिए था। सरेंडर करना, अब सही बात नहीं होगी।

मैंने कहा - 

सरेंडर नहीं किया तो मारा जाऊँगा। सेना नहीं मारेगी तो आतंकवादी मार डालेंगे क्योंकि मैं उनका साथ छोड़ देना चाहता हूँ। उससे वे, मेरा ज़िंदा रहना खुद के लिए खतरा मानेंगे।

अब तक अम्मी ने स्वयं को संयत कर लिया था, शिकायती लहजे में वे बोलीं - 

तुम्हें यही करना था तो तुम उनके साथ गए ही क्यों थे? तुम नहीं समझ रहे हो मेरे बेटे, माँ होकर तुम्हारे दिख रहे अंजाम से, मेरे जान पर आ रही है।

मैंने कहा -

मैं सरेंडर करने ख्याल से, उनमें शामिल नहीं हुआ था। मगर मुठभेड़ के वक़्त से दो घटनाओं ने मेरा हृदय परिवर्तन कर दिया।


(क्रमशः)

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

27-08-2020


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