Saturday, August 15, 2020

वैतरणी पार .. एपिसोड II

 

एपिसोड II - महत्वाकाँक्षा 

हमारे स्कूल की शुल्क इतनी अधिक होती है कि जिसे, मुझ जैसे अति धनिक परिवार ही, अपने बच्चों के लिए सरलता से अदा कर सकते हैं। 
मेरे पापा जैसे धनी व्यक्ति यहाँ, इस स्कूल में मुझे एवं मेरे भाई को पढ़ाते हुए यह सोचते हैं कि इसमें बच्चों को, धनी पृष्ठभूमि के परिवारों के बच्चों की ही संगत सुनिश्चित हो सकेगी। जिससे स्कूल की शिक्षा एवं सुसंगत से, उनके बच्चों का आधुनिक तरह के शिष्टाचार के साथ ही सर्वांगीण विकास सुनिश्चित होगा।
यह स्कूल मगर धन के लोभ में, मध्यमवर्गीय परिवार के उन बच्चों को भी प्रवेश दे देता है, जिनके पालक अपने बच्चों के लिए, संभ्रांत परिवार के, हम जैसे बच्चों की संगति चाहते हैं। 
यूँ तो उनके लिए हमारे स्कूल के महँगे शुल्क भरना कठिन होता है फिर भी अपनी जीतोड़ कोशिशों से वे, इसे अदा करते हैं। 
मैं, आज समझ पा रहा हूँ कि उस दिन, मेरे मन में ये सब विचार वास्तव में मेरी कुंठा एवं ईर्ष्या प्रेरित होकर आ रहे थे। वास्तव में मेरी इस कुंठा का कारण, मेरी सहपाठी लड़की वैतरणी थी। 
मेरे बालमन से ही मेरी अभिलाषा अधूरी रहती आई थी कि मैं स्कूल टॉपर के रूप में जाना जाऊँ। मेरी इस महत्वाकाँक्षा के मार्ग में, वैतरणी अपने नाम अनुरूप बड़ी बाधा थी। अर्थात मेरी महत्वाकांक्षाओं एवं सपने का स्वर्ग स्कूल में 'सर्वोच्च स्थान' वैतरणी पार करके ही प्राप्त किया जा सकता था। वैतरणी पार ना कर सकने से मैं, पहली से ग्यारह कक्षा तक, अपने ग्यारह प्रयासों में व्दितीय ही आता रहा था। 
उस समय हम कक्षा बारह के छात्र थे। बारहवीं की वार्षिक परीक्षा, छह मास बाद होनी थी। जैसा चल रहा था वैसा ही चलते रहना, फिर वैतरणी को पार करने में मेरी असफलता ही तय करने वाला था। 
मैं अपनी इस कल्पित असफलता से व्याकुल था। मेरी अठारह वर्ष तक की आयु में जितनी शातिराई मुझे आई थी उससे मै, आखिरी रहने वाले प्रयास में अपनी सफलता सुनिश्चित करने की युक्तियाँ सोच रहा था। 
मुझे मालूम था कि वैतरणी से अपनी लकीर बड़ी करना, लगभग असंभव था। उसकी लकीर मिटा कर उसे छोटी करके ही मैं, वैतरणी के पार जा सकता था। 
यह ख्याल आने के बाद, मैंने एक योजना तय कर ली, जिसके सफल क्रियान्वयन कर सकने से, वैतरणी का मन पढाई से हटाया जा सकता था। 

जो मुझे तब ज्ञात नहीं था 

अपने बैंक में चपरासी, पिता एवं माँ की इकलौती संतान वैतरणी, माँ की लाड़ली एवं पापा की उसको लेकर, उनकी अति महत्वकांक्षाओं की सिध्दी का माध्यम थी। 
वैतरणी की माँ पूर्व पीढ़ी की, ग्रामीण परिवेश से आई साधारण पढ़ी लिखी गृहणी थी। वैतरणी के 3 सदस्यीय इस परिवार में सभी महत्वपूर्ण बातें परंपरागत रूप से (परिवार के मुखिया) उसके पापा तय किया करते थे। 
उसके पापा स्वयं अति बुध्दिमान थे। मगर अपने पिता की कम उम्र में ही मृत्यु हो जाने से, उनके परिवार अर्थात माँ, एक भाई एवं एक बहन की जिम्मेदारी उनके ऊपर आ जाने से, उन्हें कम वय में ही कमाने वाले की भूमिका ग्रहण करने के लिए, पढाई बीच में छोड़ने पड़ी थी। ऐसे वे, अपनी उन्नीस की उम्र से ही बैंक में चपरासी की नौकरी करने लगे थे। 
वैतरणी छोटी ही थी तबसे उसने, पापा को अथक परिश्रम करते हुए देखा था। उसने पापा को, चाचा एवं बुआ की पढ़ाई, फिर उनकी नौकरी और बाद में उनके विवाह की जिम्मेदारियाँ निभाते देखा था। 
अपने माँ एवं पापा के परिवार के लिए इस तरह समर्पण को देखते हुए, बचपन से अनायास ही वैतरणी ने, जिम्मेदारी के संस्कार स्वयं ग्रहण किये थे। 
12-13 वर्ष की अपनी वय तक पापा का ज्यादा दुलार एवं समय, वैतरणी को नहीं मिल सका था। 
जब उसके पापा, चाचा एवं बुआ के विवाह तक की जिम्मेदारी निभा चुके एवं चाचा, पापा से अच्छी नौकरी में एवं बुआ, विवाह होने के बाद अन्य शहरों में जा चुके, तब से ही वैतरणी के लिए पापा समय देने लगे थे। 
तब से वैतरणी ने अपने पापा को, पापा रूप में अनुभव किया था। 
वैतरणी के पापा, पेशे से चपरासी होने से, दुनिया के सामने अत्यंत साधारण व्यक्ति समझे जाते थे। मगर उनमें एक अति बुध्दिमान व्यक्तित्व निहित था। 
उन्होंने देश एवं स्वयं के परिवार की आवश्यकता को समझते हुए, अपने परिवार को सीमित किया था। इस तरह वैतरणी उनकी अकेली संतान थी। अन्य जिम्मेदारियों को निभा चुकने के बाद अब, पापा के समस्त सपनों की पूर्ति की माध्यम, उनकी लाड़ली वैतरणी ही थी। 
इकलौती बेटी वैतरणी को, पापा ने अपनी हैसियत से बढ़कर महँगे स्कूल में प्रवेश दिलाया था। 
और जब से वे अपनी अन्य जिम्मेदारियों से मुक्त हुए तब से अपने नौकरी के बाद का ज्यादा समय वे, वैतरणी के लिए ही देते थे। वैतरणी के बिना कहे, उसकी आवश्यकताओं को समझते हुए उसकी व्यवस्था करना, अपनी किशोरवया बेटी के मनोविज्ञान को समझते हुए उसका मार्गदर्शन करना उनका नित दिन का कार्य था। 
पापा ने वैतरणी के लालन पालन में, इस बात को प्रमुखता दी थी कि वैतरणी अपने मन में उठने वाले, सभी संशय एवं प्रश्न उनसे निःसंकोच कह सके। ऐसे ही पापा समाज में चलती बुराइयों का एवं उससे कैसे बचा जाता है, का ज्ञान भी वैतरणी को स्वयं कराते थे। 
जब पापा ऐसा करते तो वैतरणी को पापा, पापा नहीं एक करीबी मित्र होने का एहसास कराते थे। 
जब मेरे दिमाग में, वैतरणी की लकीर छोटी करने का उपाय चल रहा था। उस समय वैतरणी के छोटे से घर में, मेरे मंसूबों पर पानी फेरने वाली चर्चा चल रही थी। 
पापा - बेटी, तुमने अब तक हर कक्षा में, स्कूल में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। इससे अब, आगे के आठ माह तुम्हारे लिए अति महत्वपूर्ण हो गए हैं। जिसमें तुम्हें आईसीएसई की बोर्ड एवं बाद में आईआईटी जेईई की परीक्षाओं में हिस्सा लेना है। 
वैतरणी - हाँ, पापा!
पापा - यहाँ ज़रूरी अब यह है कि पढ़ाई से विमुख करने वाली बातों से, जैसे तुम दूर रहती आई हो वह जारी रखो। साथ ही पूर्णतः स्वस्थ रहने के प्रति तुम जागरूक रहो। 
वैतरणी - हाँ, पापा! जैसा आप कहते हैं वैसे ही मैं, पढ़ने के समय के अतिरिक्त पूर्ण निद्रा/आराम के साथ साथ, चुप रहते हुए, कुछ समय मम्मी की रसोई में, हाथ बँटाया करती हूँ। 
पापा (दुलार से वैतरणी के सिर पर हाथ रखते हुए) - बेटी, जानती हो अगर मेरी कल्पना साकार हो सकीं तो कुछ माह के बाद यह समाचार वायरल होगा कि "एक चपरासी की बेटी ने, बारहँवी एवं आईआईटी जेईई में देश में गौरवशाली स्थान हासिल किया"। 
वैतरणी - जी पापा, जिससे आप एवं माँ को गौरव अनुभव होता है मैं, ऐसा हर कार्य करना चाहूँगी। 
माँ (पहली बार बोलीं) - हाँ वैतरणी, मैं जानती हूँ, तुम कभी कोई कार्य ऐसा नहीं करोगी, जिससे हमारा सिर लज्जा से झुकता हो। 
तीनों हँसे थे, फिर अपने अपने कार्य में लग गए थे। 
(क्रमशः)
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
15-08-2020

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