गद्दार ...
1. मुठभेड़
हम चार साथियों का लक्ष्य चिल्लीपोरा आर्मी कैंप पर बम बारी करके, वहाँ सेना के जवानों को बड़ी संख्या में मारने के था। हम इस लक्ष्य से वहाँ घुसे थे। वहाँ मौजूद सुरक्षा बल की सतर्कता ने हमें कामयाब नहीं होने दिया था। तब, उनकी फायरिंग से बचते हुए, हम भागे थे।
हमारा भाग्य था कि हमें गोलियां नहीं लगीं थी, मगर सुरक्षा बल के जवान हमारे पीछे लग गये थे। जान बचा कर भाग रहे हम, शोपियां के हेफ शरीमल में इन सुरक्षा बलों से घिर गए थे। तब उनसे बचने के लिए, हम एक घर में घुस आये थे। हमने घर की चार औरतों को, बंधक बना लिया था।
हमारे कमांडर ने घर के दो पुरुष एवं तीन छोटे बच्चों को बाहर भगा दिया था। ताकि सुरक्षा बलों को, ये महिलाओं के बंधक होने की जानकारी दे सकें। यह हमारी योजना का हिस्सा था। हमें पता था कि चार निर्दोष औरतों के घर में होने की जानकारी से सेना के जवान, घर को बारूद से ध्वस्त करने की कार्यवाही नहीं का सकेंगे।
वास्तव में चिल्लीपोरा आर्मी कैंप को निशाना बनाने का काम, हमारे कमांडर को, पाकिस्तान से संचालित, हमारे संगठन द्वारा सौंपा गया था। यह ज़िम्मेदारी लेते हुए हमें मालूम था कि पिछले कुछ माहों से ऐसे काम को अंजाम देना, पहले से बहुत ज्यादा खतरनाक हो गया था।
हमारी तमाम सावधानियों के बावजूद हमारा मंसूबा, सुरक्षाबलों को पता चल गया था। शायद उन्होंने हमारे संगठन मुख्यालय और हमारे बीच के कम्युनिकेशन को इंटरसेप्ट कर लिया था।
मैं अपने साथियों में सबसे नया था। हमारे साथ, हमारा कमांडर पाकिस्तान का था। उसे हमारे कश्मीर में आतंकवाद के पस्त होते हौसलों में नई जान फूँकने के लिए तैनात किया गया था। बाकी के हम तीन लड़के, दक्षिण कश्मीर के विभिन्न गाँवों के थे।
कमांडर 30 साल का सबसे ज्यादा अनुभवी आदमी था। मैं सबसे छोटा, बीस की उम्र का था।
मेरे लिए यह पहला मौका था जब हमारी, सेना से सीधी मुठभेड़ हो रही थी।
कमांडर ने मुझे बंधक औरतों के ऊपर नज़र एवं नियंत्रण रखने के निर्देश दिए थे। कमांडर और बाकी दो साथी, घर की सभी तरफ की खिड़कियों पर से, बाहर सेना की गतिविधियों पर निगरानी कर रहे थे।
अभी सूर्यास्त का धुँधलका छाया हुआ था। कमांडर की योजना रात के अंधेरे के, प्रतीक्षा करने की थी। तब तक हम सभी को सुरक्षित रहने के उपाय करने थे। बाद में अंधेरा होने पर अवसर देख कर, इन्हीं औरतों को कवर बनाते हुए, घने जंगलों में भाग निकलना था।
कमांडर एवं शेष साथी खिड़कियों से, थोड़े थोड़े अंतराल में गोली दाग रहे थे ताकि सेना के जवान घर के बहुत करीब नहीं आ सकें। बीच बीच में, सामने से भी फायरिंग हो रही थी।
मुझे यह विचार परेशान कर रहा था कि जैसे जैसे समय बीतेगा वैसे वैसे, सेना जवानों की संख्या बढ़ जायेगी। तब उन के घेरे से हमारा जीवित बच निकलना, मुश्किल हो जाएगा।
मैंने कमांडर से यह कहा भी किंतु उसने, यह कहते हुए मुझे चुप करा दिया कि ‘अपना दिमाग ना लगाओ। जैसा मैंने कहा है उसके अनुसार ही, इन औरतों पर निगरानी रखो’।
मैं घबराया हुआ था तब भी अपने भय पर नियंत्रण करते हुए, औरतों के तरफ ध्यान देने लगा। इनमें एक विधवा बूढ़ी, एक अधेड़, एक 40 के लगभग उम्र की शादीशुदा औरत थी एवं चौथी, एक कमसिन, मेरी उम्र की लड़की थी।
लड़की के अतिरिक्त सभी घबरायी एवं सहमी हुईं थीं। लड़की मुझे दया भाव से निहार रही थी।
मैंने, उससे पूछा - ऐसे क्या देखती है?
उसने कहा - तेरी उम्र मरने की नहीं, जीने की है।
मैंने कहा - परतंत्र जीने को तू, जीना कहती है?
उसने कहा - तू काहे का परतंत्र है? जिस देश में पैदा हुआ, उसमें ही तो रहता है। तू पाकिस्तान का तो लगता नहीं?
मैंने कहा - मैं पाकिस्तान का होता तो स्वतंत्र होता। इस भारत ने देखती नहीं, हमारे सब विशेषाधिकार खत्म कर दिए हैं?
उसने जबाब दिया - मुझे तो लगता है भारत तो हमें, परतंत्र नहीं रखता लेकिन तेरे जैसों की सोच एवं करनी से, हम परतंत्र होने से बुरे जीवन जीने को बाध्य हैं।
मैंने पूछा - मैंने, क्या किया है?
उसने कहा - तेरे जैसे लड़के और पुरुष, हम लड़कियों पर अनेक पाबंदी लगाकर, अपने सम्मान का प्रश्न बनाकर, हमें अपढ़ गँवार रख, आजीवन हमें घरों में बंद रखते हैं। ऐसे रह कर तू देख तो जरा! तुझे परतंत्र होना क्या होता है, समझ आ जायेगा।
लगता है कमांडर के कानों में हमारी बातें पड़ गई थी। एकाएक वह आया। उसने लड़की के मुहँ पर एके47 की नोंक रख दी, बोला - अपनी चपर चपर बंद कर. मेरा दिमाग़ ख़राब कर रही है, अभी एक गोली से हमेशा को चुप कर दूँगा, समझी?
फिर वह मेरे पर चिल्लाया - तुझे क्या लग रहा है, यहाँ बच्चों का खेल हो रहा है जो तू इसको मुहँ लगाये हुए है? सबके मुहँ और हाथ-पैर बाँध। मुझे सामने की फायरिंग से बचना है, इसकी बक़वास नहीं सुनना है, समझा?
फिर वह वापिस खिड़की पर से, बाहर नज़र रखने लगा। मैंने वहाँ रखी संदूकों में से, कुछ ओढ़निया निकालीं और सभी के हाथ-पैर एवं मुहँ पर बांधना शुरू कर दिया।
मैंने चारों को बांध दिया था। हमारे पास के खतरनाक हथियारों से वे सब भयाक्रांत थीं। अतः ज्यादा प्रतिरोध नहीं किया था।
मैंने दिखावे में कमांडर के आदेश का पालन किया था। वास्तव में मैंने, सभी को इस तरह ढ़िलाई से बाँधा था कि उन्हें ज्यादा असुविधा न हो।
वास्तव में, जब मैं लड़की को बाँध रहा था तो उसके रुआँसे हुए चेहरे को देख, मुझे अपनी मंगेतर, नबीहा की याद आ गई थी। छह माह पहले जब से मैं, घर से भाग आया था तब से मैंने, उसे देखा नहीं था।
पता नहीं सब लड़कियाँ एक जैसा कैसे सोच लेतीं हैं। वह भी इसी लड़की की तरह ज़िंदगी की बात करती थी।
मुझे ज़िंदगी में नबीहा का साथ तो चाहिये था, मगर स्वतंत्र कश्मीर में। इसी विचार से प्रेरित मैं कश्मीर को स्वतंत्र करने की लड़ाई लड़ रहा था।
इस बीच अंधेरा हो गया, साथ ही बाहर से फायरिंग बहुत बढ़ गई। तब मुझे लगने लगा कि आज मेरा बच पाना कठिन है।
तभी कमांडर ने कहा - इन के पैर खोल दो। हम सभी को इनमें से एक एक की आड़ लेते हुए बाहर निकल कर, जंगल में भागना है। जितनी संख्या जवानों की बढ़ रही है उसे देखते हुए, और देर करना अब हमारे लिए अच्छा नहीं होगा।
बाहर सुरक्षा बलों के द्वारा अब स्पीकर से अनाउंस किया जाना लगा था - अपनी जान की खैरियत चाहते हो तो औरतों को मुक्त करो एवं सरेंडर कर दो।
हमें ट्रेनिंग में बताया गया था कि आत्मसमर्पण करने के बाद की प्रताड़ना सहने से, मर जाना ज्यादा आसान होता है। आत्मसमर्पण कायरता एवं लड़ाई में मरना मज़हब की महान सेवा है। हमारा आज का ऐसे मरना, आगे के समय में स्वतंत्र कश्मीर के लिखे जाने वाले इतिहास में, हमें हीरो बताएगा, हमें यह सब बताया गया था।
हमारे कमांडर सहित अन्य दोनों ने, एक एक औरत को साथ लिया था एवं बाहर निकले थे। कमांडर चिल्ला कर कह रहा था - अगर हम पर फायर किया गया तो हम, इन बंधक औरतों को मार देंगे।
इसे सुन कर पहले, सामने तरफ से फ़ायरिंग कुछ थमी थी। मगर बाद में फिर एकाएक बढ़ गई। मैं डर रहा था, मुझे लग रहा था टॉर्चर होना बाद की मुसीबत है, मेरी जान पर तो अभी ही मुसीबत है।
हमने बत्तियाँ बुझा रखी थी। कंदील के हल्के उजाले में, अपने अलावा घर में बच रही लड़की के चेहरे को मैंने देखा, उस पर मुझ जैसी दहशत नहीं थी।
मैंने पूछा - यहाँ जान पर बनी है, तुझे घबराहट नहीं होती?
उसने कहा - तू डर, तू गद्दार है। मुझे कोई डर नहीं मैंने कोई अपराध नहीं किया है।
मुझे उसका गद्दार कहना गड़ रहा था। फिर भी मैंने रिएक्ट नहीं किया था। उसमें मुझे, मेरी नबीहा के अक्स दिख रहे थे।
तभी बाहर की फायरिंग में, दर्दनाक चीखें सुनाई पड़ी थीं। लगता था कमांडर को गोली लगी थी। फिर एकाएक भारी शोरगुल सुनाई पड़ा था।
(क्रमशः)
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
25-08-2020
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