Wednesday, August 26, 2020

गद्दार - 3. सपना और उसमें दुविधा

 

3.  सपना और उसमें दुविधा 


तंद्रा में डूबे हुए चलते चलते मेरे विचारों में, वह मारी गई लड़की एवं नबीहा छाई हुईं थी। इसी से मेरे मन में एक भयानक प्रश्न, कल्पना बन कर उभरा। वह यह कि जिस प्रकार कल हम, उस लड़की के घर में जबरन दाखिल हुए थे, ऐसे ही कोई अन्य आतंकवादी मेरी नबीहा के घर में घुस जायें एवं नबीहा इस लड़की की तरह मारी जाये तो? 

इस कल्पना से मेरे शरीर में सिहरन पैदा हुई थी। तब मैं सोचने को बाध्य हुआ कि वह लड़की भी, मेरी नबीहा के तरह किसी की मंगेतर रही होगी। 

इससे मेरा अपराध बोध और भी गहरा हो गया था। यही अपराध बोध मेरे आगामी जीवन के लिए टर्निंग पॉइंट साबित होने वाला था। 

मेरी तंद्रा तब भंग हुई थी जब, बाजू से अचानक मेरे सामने, दो कुत्ते आ गए जो मुझ पर भौंक रहे थे। एक बारगी मुझे ऐसा लगा जैसे सुरक्षाबल के जवानों ने मुझे खोज निकाला है। लेकिन यह मेरी आशंका मात्र सिध्द हुई थी। वास्तव में ये जंगली कुत्ते थे।   

अंधेरे में इनकी भयावह रूप से चमकती दो जोड़ी आँखों ने, मुझे आतंकित कर दिया। मुझे पछतावा हुआ कि क्यूँ मैंने अपने बैग का गोला बारूद फेंक दिया था, अन्यथा इन कुत्तों से आसानी से निबटा जा सकता था। 

मेरे दिमाग में तभी एक युक्ति आई। मैंने, मेरे बैग में रखी बिरयानी एवं गोश्ताबा के पैकेट्स उनके सामने खोल कर ज़मीन पर रख दिए।

कौतूहल में उन्होंने भौंकना बंद किया एवं जब मैं वहाँ से थोड़ा हट गया तो वे उस खाने पर टूट पड़े। अब वे खाते हुए आपस में ही लड़ रहे थे बिलकुल ऐसे, जैसे कश्मीर को लेकर दो कौमों के खुदगर्ज लोग आपस में लड़ रहे थे।

कुत्ते तो लड़ भिड़ कर थोड़ा कम ज्यादा खाकर शांत हो गए थे। जबकि हमारी कौम ने संख्या में अधिक होने से कश्मीर से, पंडितों को पूरी तरह बेदखल कर दिया था। 

हमने कुत्तों से अधिक स्वार्थ लोलुप होने का परिचय दिया था। मैं सोचने लगा यदि ऐसा नहीं किया गया होता तो शायद आज कश्मीर में अमन चैन रहता। 

हम सब मिलकर ज़िंदगी मजे से जी रहे होते। ना मासूम लोग मारे जा रहे होते ना मेरे जैसे बरगलाये गए कश्मीर के लड़के मारे जा रहे होते और ना ही देश के सुरक्षा में तैनात जवान शहीद हो रहे होते।

तरह तरह के विचारों की तंद्रा तब भंग हुई थी जब मुझे, पक्षियों का कलरव सुनाई दिया। साफ़ था, जल्द ही अब नई सुबह का प्रकाश फैलने वाला था। मैंने अनुमान लगाया कि अब मैं, हेफ शरीमल से लगभग दस किमी दूर आ चुका था। बीच जंगल में, इस समय मैं अकेला इंसान था। 

यहाँ मुझे सेना से कोई खतरा नहीं था। दिन निकलने पर जंगल के जानवरों से भी खतरा कम हो जाएगा सोच कर मुझे तसल्ली हुई थी। 

घावों की पीड़ा, लड़की एवं नबीहा के विचार सहित अपनी जान की चिंता में पूरी रात जागते-चलते बीती थी। अब मैं कुछ घंटे सोना चाहता था। 

जब आकाश में सुबह की लालिमा दिखने लगी तब मैं, अपनी दृष्टि सब तरफ दौड़ाते चल रहा था कि कौन सा स्थान, मेरे सोने के लिए ज्यादा सुरक्षित होगा।

कुछ दूर पर मुझे एक ऊँची चट्टान दिखाई दी थी। इसकी ऊपरी सतह समतल थी। इस पर किसी साधारण व्यक्ति या जंगली जानवर का चढ़ पाना कठिन था। जबकि मैंने, मुझे मिली ट्रेनिंग से ऐसी चट्टानों पर चढ़ना सीखा था। मैं, थोड़े प्रयास में उस पर चढ़ गया था। फिर अपने हाथ पैर फैला कर चट्टान पर पसर गया था। 

अब मुझे गोली से घायल हुई अपनी बाँह एवं खाई में लुढ़कते-घिसटते हुए गिरने से, शरीर पर लगी चोट में, होते दर्द का एहसास हो रहा था। शरीर के पोर पोर में दर्द उठ रहा था। फिर भी थकान और रात्रि जागरण के कारण कुछ ही देर में, मेरी आँख लग गई थी। 

इंसान जैसे विचार करते हुए सोता है कई बार उसकी नींद में, वैसे ही सपने आते हैं। नींद लगते ही मैं एक सपना देखने लगा था -   

आज तारीख 5 जून 1391 है। सामने मंदिर के शिखर की, आँगन में पड़ती छाया से हरि प्रसाद को, अपराह्न 3.30 बजे होने का अनुमान हो रहा है। घर की महिलायें रसोई में आ गईं है ताकि दिन के प्रकाश में ही, रात्रि के भोजन की ज्यादातर सामग्री पका ली जा सके। 

बच्चे खेलने बाहर गए हुए हैं। हरि प्रसाद की 14 एवं 13 वर्ष की दो पोतियाँ, मंदिर में गाने के लिए, एक नये भजन का अभ्यास कर रहीं हैं। हरि प्रसाद का छोटा भाई, बेटा एवं भतीजा व्यवसाय के कामों में, दुकान तथा बाजार गए हुए हैं। 

हरि प्रसाद को बुखार-ताप होने से वे, सामने के कक्ष में पलंग पर लेटे हुए हैं। इस संयुक्त परिवार के इस पुश्तैनी घर में, हरि प्रसाद एवं उनके छोटे भाई के परिवार, साथ निवास करते हैं। 

हरि प्रसाद को तब बाहर अचानक हो-हल्ला सुनाई पड़ता है। हरि प्रसाद रोग से उत्पन्न कमज़ोरी में भी, आशंकित होकर पलंग से उठकर बाहर आते हैं। बाहर सुल्तान के आततायी सैनिक सामने मंदिर एवं आस-पड़ोस के घरों में घुसते दिखाई पड़ते हैं। यह देखते ही हरि प्रसाद को माजरा समझ आता है। 

खतरा भाँपते ही उनका मस्तिष्क एवं रोगी शरीर भी, तुरंत सक्रिय हो जाता है। वे बाहर खुलने वाले किवाड़ की साँकल लगा कर भजन गा रही दोनों पोतियों को चुप रहने का इशारा करते हैं और उन्हें अपने पीछे आने के लिए कहते हैं। 

फिर एक अंधेरी खोली के भीतर, गुप्त तह खाने का ढक्कननुमा द्वार उठा कर दोनों पोतियों को उसमें अंदर छुप जाने एवं चुपचाप रहने को कहते हैं। जब पोतियाँ भीतर चली जाती हैं तब वे ढक्कन ऊपर से, फिर बंद कर देते हैं। तह खाने का यह द्वार, एक तरह से गुप्त है। यह  किसी नए व्यक्ति को आसानी से दिखाई नहीं देता है। 

यह करने के बाद हरि प्रसाद रसोई में काम कर रही घर की महिलाओं को बताते हैं कि सुल्तान के लोग मंदिर एवं घर घर घुस रहे हैं। मैंने बच्चियों को तह खाने में छिपा दिया है। आप भी कपड़ों एवं घूघँटों में व्यवस्थित रहो। महिलायें घबराहट से भर जाती हैं। 

इतना सब कर लिए जाने के बाद हरि प्रसाद वापिस पलंग पर आकर लेटते हैं। 

कुछ देर में उन्हें अपने घर के किवाड़ों पर, डंडे से खटखटाये जाने की आवाज़ आती है। हरि प्रसाद कहते हैं - कौन है, भाई? रुको आ रहा हूँ। 

फिर वे साँकल खोलते हैं। किवाड़ खुलते ही पाँच आदमी धड़धड़ाते हुए घर में प्रवेश करते हैं। उनके धक्के से हरि प्रसाद गिरते गिरते बचते हैं। तब किसी तरह संभल कर पलंग पर जा बैठते हैं और कहते हैं - बीमार हूँ भाई, आप लोग, मेरे घर में ऐसे क्यों घुसे चले आ रहे हो?

आततायियों द्वारा इसे अनसुना कर दिया जाता है।

आततायियों में से एक, घर में स्थापित भगवान की मूर्ति को देख कर, दूसरों से कहता है - काफिर का घर है। फिर हरि प्रसाद से कई प्रश्न एक साथ करता है - अभी तक इस्लाम स्वीकार नहीं किया है? सबक सिखाना पड़ेगा? तुम्हारी लड़कियाँ कहां हैं?

फिर वे सब घर के भीतर के कमरों में जबरन घुस जाते हैं। इधर उधर खोजते हुए घूमते हैं। फिर रसोई में घुसते हैं। वहाँ उपस्थित सभी औरतों के घूँघट, जबरन उघाड़ते हैं। जिससे वे सब अपमानित और क्रोधित हुई दिखती हैं। 

एक आततायी दूसरे से कहता है - नई जवान लड़कियाँ तो घर में, कोई दिखाई नहीं पड़ रहीं हैं। इन दो औरतों में अभी जवानी बाकी है। कहो तो इन्हें ही, उठा ले चलते हैं। 

दूसरा कहता है - तुझे काफिर की जूठन चाटने की पड़ी है। छोड़ इन्हें, किसी और घर में लड़कियाँ मिलेंगी उन्हें उठा लेंगे। 

फिर वह हरि प्रसाद के सामने कहता है - देख बुड्ढे! इस्लाम मान ले नहीं तो अगली बार आकर तुम्हारी इन औरतों को उठा ले जायेंगे। समझ कि औरतों के उठ जाने के बाद, फिर मुसलमान बनने से, तेरी क्या इज्जत रह जायेगी?

हरि प्रसाद के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना फिर वे सभी, घर के बाहर चले जाते हैं। 

जिन दो महिलाओं को उठा ले जाने की बात उनमें से एक ने की थी, उनमें एक, हरि प्रसाद एवं दूसरी हरि प्रसाद के भाई की बहुएं थीं। 

अभी ये सभी अत्यंत अपमानित अनुभव कर रहे थे। बहुएं तो क्षोभ में रो रहीं थीं। तभी हरि प्रसाद जी की पत्नी को तह खाने में बंद पोतियों का स्मरण आ जाता है। वे उन्हें तह खाने से बाहर लाती हैं। तब दोनों किशोरियाँ भयाक्रांत दिखती हैं।  

छोटी की ओर इशारा करते हुए बड़ी पोती सबको बताती है कि - डर के मारे इसने अपने कपड़े खराब कर लिए हैं। 

तब बच्ची की माँ, अपना अपमान एवं रोना भूल जाती है। बेटी को पीछे स्नानागार में ले जाती है। 

बच्ची की इस हालत से एवं घर की महिलाओं के किये गए अपमान को देखने की, अपनी विवशता से हरि प्रसाद का मुखिया हृदय द्रवित हो जाता है। वे पुरुष होकर भी रोने लगते हैं। उन्हें रोता देख, सभी पुनः रोते हैं। 

जब बाहर से छोटे बच्चे खेल कूद कर वापिस आयेंगे तब, उन पर बुरा प्रभाव ना पड़े, यह सोच कर, बड़ी बहू अपने को संयत करती है फिर, सभी को ढाँढस दिलाती है। 

उस रात्रि घटना से अनभिज्ञ, छोटे बच्चे जब भोजन उपरांत सो चुकते हैं तब, सभी बड़े भीतर के बड़े कक्ष में फर्श पर चटाइओं पर, मातमी हालत में बैठे, यूँ प्रतीत हो रहे हैं जैसे कि परिवार के किसी सदस्य की मौत हो गई हो।

हरि प्रसाद का बेटा कहता है - सुल्तान ने अपने लोगों को खुली छूट दे रखी है कि वे मंदिर लूटें और तोड़ें। हिंदुओं पर जोर जबरदस्ती से उन्हें इस्लाम स्वीकार करने को बाध्य करें। जो हिंदू परिवार इसका प्रतिरोध करें, उनकी लड़कियों-औरतों को जबरन उठाकर उनसे निकाह करके, उन्हें मुसलमान बना लें।

इस बात पर हरि प्रसाद का भाई कहता है - भाग्य की बात है कि बुखार होने से आज भाई, घर में थे। जिससे भाई की सूझबूझ से हमारी बच्चियाँ, उठा लिए जाने से बच सकीं हैं। मुझे सुनने मिला है कि हमारे पास पड़ोस से आज, आततायी 12 बेटियों को उठा ले गए हैं। साथ ही मंदिर में भी तोड़ फोड़ एवं लूट की है। 

हरि प्रसाद कहते हैं - आज तो हमारा परिवार बच गया है लेकिन आगे बहुत दिनों बच पाना कठिन होगा। अब हमारे पास दो ही उपाय हैं- 

पहला, हम जेवरात एवं धन लेकर रातों रात अन्य रियासत के लिए, यहाँ से पलायन कर लें। 

या दूसरा, हम इस्लाम स्वीकार कर लें।

बेटा कहता है - इस्लाम भी बुरा धर्म नहीं। 

हरि प्रसाद कहते हैं - संध्या से ही मैं, इसी पर विचार कर रहा हूँ। निःसंदेह इस्लाम धर्म स्वयं में बुरा नहीं है, लेकिन इसके मानने वालों में, सुल्तान एवं उसकी तरह ही क्रूर, ये उसके आदमी भी तो हैं। 

बेटा फिर पूछता है - हम, धर्म बदलें तो हमें इस्लाम मानना है। उसके अन्य अनुयायियों से क्या लेना-देना है?

हरि प्रसाद उत्तर देते हैं - किसी में दुष्टता है तो वह कभी न कभी, खुद उसके अपनों पर खतरा हो जाती है।    

(क्रमशः)

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

26-08-2020


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