Tuesday, August 25, 2020

गद्दार ... 2. ह्रदय परिवर्तन

 

गद्दार ...

2. ह्रदय परिवर्तन 


ऐसी मुठभेड़ के अवसरों पर जैसा पूर्व में होते आया था वैसा ही हुआ लग रहा था। 

लड़की ने मुझ जैसों को, जिस बात के लिए गद्दार कहा था, वैसे ही, गाँव से कुछ गद्दार निकले थे। उन्होंने हम आतंकवादियों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोले जवानों पर, पत्थरों से हमला किया था।    

बाकी तीन मेरे साथी बच पाते हैं या नहीं मुझे पता नहीं, मगर अब मची अफरा तफरी में, मोर्चा खोले जवानों का ध्यान दो तरफ बँटा था। उसमें मुझे अपने बचने की उम्मीद दिखाई दी। 

मैंने लड़की का हाथ थामा एवं उसे अपने साथ बाहर आने को मजबूर किया। कोई सैनिक पास ही था उसने, हमारी आहट सुन फायर किया। गोली लड़की के माथे पर लगी। वह बेजान होकर मेरी बाँह में झूल गई। 

बिना किसी गलती और अपराध के मेरी जैसी युवा अवस्था में ही, उसके मारे जाने के लिए जिम्मेदार, मैं था। तब मगर दुर्भाग्यपूर्ण रूप से मैंने निपट स्वार्थ का परिचय दिया था। 

मैंने, उसके बेजान शरीर को परे धकेल दिया था। मुझे अब अपनी जान की पड़ी थी। 

यह प्रश्न आगामी जीवन में मेरे खोज का विषय होने वाला था कि दो भिन्न शरीर में, एक जैसे प्राण होने पर, हम अपने प्राणों की जिस तरह परवाह करते हैं वैसे, दूसरे के प्राणों की क्यों नहीं कर पाते हैं? 

अपने प्राण बचाने की चिंता में मगर अभी यह समय, इन बातों के सोचने का नहीं था। अपने जीवन पर संकट दूर करने के लिए मैं, अंधेरे में एक तरफ भागने लगा था। तब एक गोली, मेरी दाहिनी भुजा के मांसल भाग को चीरती हुई, आरपार हो गई थी। 

मेरे हाथ से एके47 छूट गई। इसकी परवाह नहीं करते हुए मैं, एक तरफ भाग निकला। बाँह में तीव्र पीड़ा हो रही थी, लेकिन अभी रुकने से मुझे जान से हाथ धो देने का खतरा लग रहा था। 

अत्यंत वेदना की हालत में भी, मैं, अंधेरे में अंधाधुंध भागा जा रहा था। फायरिंग एवं शोरगुल की आवाज पीछे छूटते जा रही थी। तभी  भागते हुए मेरा पैर, हवा में रह गया। सामने शायद खाई थी, मैं उसमें गिरा था। 

फिर मैं सैकड़ों फिट फिसलता-लुढ़कता गया था। बाँह में लगी गोली एवं खाई में गिरने  से लगे जख्मों ने, मेरे होश उड़ा दिए थे। 

कई घंटों बाद मुझे वापिस होश आया था। गोली के घाव से बहे खून ने, मुझे अत्यंत कमजोर किया था। मगर मुझे, पूरा माजरा ख्याल आ गया था। 

कमजोर हालत में मैंने, अपने से लिपटा एक कपड़ा अनुभव किया। वह शायद उस लड़की का हिजाब था। मैंने उसे, अपनी जख्मी भुजा पर, दूसरे हाथ के प्रयोग से जैसे-तैसे बांधा था ताकि खून बहना रुक सके। 

आश्चर्य जनक रूप से खतरे के इन पलों में भी मुझ पर भावुकता हावी हुई थी। मैं सोच रहा था कि अपने स्वार्थ में मैंने, उसे मर जाने दिया था। फिर भी, मर कर भी वह मेरे घाव से बहते खून को अपने वस्त्र से रोक रही थी। इस तरह सोचने से, मेरी आँखे नम हो गईं थी। 

फिर सिर झटक कर मैंने अपने भावुक हृदय पर काबू किया था। अपनी पूरी हिम्मत बटोर कर, मैं चलने लगा था। उजाला होने के पहले ही, वहाँ से अधिक से अधिक दूर निकल जाने में ही खैरियत समझते हुए, मैंने अपनी चाल तेज की थी।  

पतलून की जेब में हाथ डालने पर उसमें, मुझे चॉकलेट मिलीं। ताकत हासिल करने के लिए मैं, उन्हें खाने लगा था। 

मैंने मोबाइल में पहले गूगल मैप खोल कर, लोकेशन समझी थी। फिर उसमें से सिम निकाल कर तोड़ कर फेंक दी। आतंकी मुख्यालय से संपर्क न रखने के विचार से मैंने ऐसा किया था। 

यह अच्छी बात थी कि मेरे पास पावर बैंक पूरा चार्ज था। अब मैं, मोबाइल का प्रयोग जंगल में रास्ता ढूँढने के लिए रोशनी करने के लिए कर रहा था। उसकी रोशनी से कोई मुझे तलाश न कर ले इस हेतु मैं, उसे लगातार ऑन नहीं रख रहा था। मैं एक दिशा लेकर आगे बढ़ रहा था। 

मैं कमजोर लड़का था। यह बात लड़की के मेरी बाँहों में दम तोड़ देने से मुझे पता चली थी। मैं आतंक के काम से, अब छुटकारा चाहता था। 

रास्ते में मुझे एक सेब के बगीचे से लग कर बनाया गया एक अस्थाई आशियाना दिखा था। मैं उसमें भीतर घुसा था। इस समय वहाँ कोई नहीं था। 

वहाँ रखे एक संदूक में खोजने पर उसमें मुझे मेरे चाहे, मर्दाना कपड़े मिल गए थे। मैंने अपने कपड़े उतार कर, उन्हें पोटली की तरह बाँधा था। तब संदूक से निकले कपड़ों को अपने शरीर पर डाला था। ऐसा करते हुए मैं, अपनी आतंकवादी होने की पहचान छुपाना चाहता था। इन्हें पहन कर मैं वहाँ का साधारण निवासी दिखना चाहता था। 

अपनी पीठ पर टाँगे बेग में से, मैंने सारा गोला बारूद निकाल कर, अपने उतारे गए कपड़ों में बाँध दिया था। मैंने बैग में रखे, दोपहर में पैक कराये गये, खाने के पैकेट्स और एक चाकू को उसमें रहने दिया, साथ ही बाग से कुछ सेब तोड़कर रख लिए थे। 

चलते हुए तब तकरीबन 1 किमी आगे मैं, नदी किनारे पहुँचा था। 

कपड़े एवं गोला बारूद की पोटली के साथ एक बड़ा पत्थर रखते हुए उसे, मैंने नदी के बीच प्रवाह में फेंक दिया। 

फिर मैं, बहती नदी में, बहाव के विपरीत दिशा में उथली जल धारा में किनारे किनारे चलने लगा था। ऐसा मैंने सेना के प्रशिक्षित कुत्तों को झाँसा देने के लिए किया ताकि उनकी मदद से मुझे खोजे जाने पर, वे यहाँ आकर भ्रमित हो जायें।  

कुछ दूर ऐसा चल के अब मैं, खुद को सुरक्षा बलों की फायरिंग के साथ ही जल्दी खोज लिए जाने के खतरे से खुद को दूर अनुभव कर रहा था।  

नदी से निकलकर वापिस जंगल के रास्ते में आने पर मुझे रात के अंधेरे में जंगली  जानवरों की जब तब गूँज रहीं डरावनी आवाजें डरा रहीं थीं। मैं अल्लाह को याद कर रहा था। दुआ कर रहा था कि इस बार की मुसीबत से वह, मुझे निकाल दे। 

मैंने मोबाइल में समय देखा रात के दो बज रहे थे। इससे अंदाजा हुआ कि शायद मैं करीब पाँच घंटे बेहोश रहा था। चलते हुए मैं सोच रहा था कि आगे यदि कोई अन्य मुसीबत नहीं आती है तो सुबह होने के पूर्व मैं, यहाँ से 10 किमी दूर पहुँच सकता था। 

मैं चाहता था कि आगे दो दिन मैं जंगलों में ही छुप कर रहूँ। तब तक मेरे जख्म कुछ भर जायें साथ ही मुठभेड़ का ज्यादा समय बीत जाने से मामला कुछ ठंडा पड़ जाये। 

तब समय बीतने के साथ ही मैं, घटना की जगह से अधिक दूर भी हो जाऊँगा। 

उस समय मेरा लोगों के बीच आकर, बस या अन्य साधन से अपने गाँव पहुँचना ज्यादा सुरक्षित हो जाएगा। 

इस तरह आगामी दिनों के लिए मेरी योजना तय कर लिए जाने के बाद, मुझे थोड़ी राहत अनुभव हुई। अब मुझे उस लड़की से संक्षिप्त रह गया, अपना साथ याद आ रहा था। मैं सोचने लगा उसकी छोटी सी उम्र, उसके मन में रहे अनेक सवाल और ऐसे में उसकी, बिना कोई भूल या अपराध के, उस मासूम की ज़िंदगी खत्म हो गई थी। 

यह सोचते हुए मुझे अपने भीतर अत्यंत ग्लानि अनुभव हो रही थी। हम अगर सुरक्षा बलों से बचते हुए उसके घर में जबरन दाखिल न हुए होते तो वह बेचारी यूँ नहीं मारी जाती। मैं सोचने लगा, नहीं, हमारा यह जूनून ठीक नहीं है। 

मैंने स्वयं अपने से प्रश्न किये कि - हम किसके लिए अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं? जिनके लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। उनके ही बेमौत मारे जाने का कारण हो रहे हैं। इस लड़ाई में हमारे निर्दोष एवं मासूम लोग ही नहीं बल्कि मेरे जैसे युवा भी, आतंकवादी बन कर असमय मारे जा रहे हैं। 

स्टेटिस्टिक्स बताती थी कि आतंकवादी होकर, औसत रूप से दो वर्षों के भीतर ही लगभग सभी जिहादी लड़ाके, जिंदगी गँवा रहे हैं। इस जिहाद से, किसे और क्या हासिल हो रहा है?

तब मैंने देखा कि मेरे भीतर से ही मेरे सामने, एक साये ने उस लड़की की आकृति ली थी। वह मुझे, मेरे सवाल के जबाब देते हुए बता रही थी कि  - तुम्हें उकसा कर पड़ोसी देश, भारत में आतंक फ़ैलाने की कोशिश करता है। वहाँ के राजनीतिज्ञ, इस तरह वहाँ राज करते हैं। अपनी पहचान आतंकवादी की बनाकर, दुनिया की नज़र से छुपे बैठे लोग, वहाँ वीआईपी का दर्जा हासिल करते हैं। 

खुद अपनी पूरी ज़िंदगी मुकम्मल करते हैं। जबकि जिन्हें जिहादी बना, घाटी में भेजते हैं वे, असमय युवावय में ही मारे जाते हैं। ऐसी ही राजनीति यहाँ घाटी में कुछ लोग करते हैं। खुद रुतबेदार जिंदगी जीते हुए ऐशो-आराम में रहते हैं। अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए, विदेश में रखते हैं एवं तुम्हारे जैसे परिवार के युवाओं को ख़ूनख़राबे की फ़िज़ा बनाकर, ज़ाहिल ही रह जाने को मजबूर करते हैं। 

तुम्हारा ब्रेन वॉश करके, तुम्हारे  ज़ेहन में मजहब के नाम पर विद्रोही विचार डालते हैं। जिससे उपजी हिंसा में तुम और मेरी तरह के मासूम अकाल मारे जाते हैं। भारत इस सब को नियंत्रित करने में अरबों-खरबों रुपया लगाता है। 

अगर यूँ भटकाये गए लोग, इस तथाकथित आज़ादी के लिए ना लड़ें तो कश्मीर में अमन के हालात हो सकते हैं। तब भारत का यही बजट, कश्मीर की उन्नति में लगाया जा सकता है। जिससे किये जा सकने वाले विकास से, हम घाटी के लड़के-लड़कियाँ, पर्याप्त रूप से शिक्षित हो कर, अच्छे रोज़गार का मौका हासिल कर सकते हैं।  

साथ ही धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले हमारे कश्मीर में, दुनिया के पर्यटक को पुनः आकर्षित कर सकते हैं। ऐसा होने पर हम सबका जीवन स्तर ऊँचा उठ सकता है।

इतना कह कर लड़की का साया ओझल हो गया। मेरे व्यथित मन में तब लड़की को लेकर काव्यरूप, एक हृदय अभिव्यक्ति यूँ आई थी -   


एक खूबसूरत ज़िंदगी की मौत देखी थी 

बाँहों में बड़े करीब से एक मौत देखी थी 

ज़िंदगी के लिए ख्याल बदल दिए जिसने 

मेरी बदकिस्मती मैंने वह मौत देखी थी 


मरना मुझे चाहिए था कि दोषी मैं था

मैं कायर मैंने मासूम की मौत देखी थी

जीवन की ललक आँखों में थी उसकी 

जी न सकी मैंने उसकी मौत देखी थी


हो जाए यदि मेरा सपना पूरा तो क्या

हो जाए कश्मीर अब आज़ाद भी तो क्या

झूल मेरी बाँहो में उसने ली अंतिम श्वाँस

न बचा जीवन उसका मिला कुछ तो क्या

(क्रमशः)

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

25-08-2020


No comments:

Post a Comment