Monday, December 21, 2015

जीवनचक्र और आधुनिकता

जीवनचक्र और आधुनिकता
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भारतीय परिवेश में आज , एक दंपति के जब बच्चे होते हैं , वे तीस के आसपास होते हैं। उनकी 45-50 की आयु तक ,बच्चे लगभग सारी तरह से उन पर निर्भर होते हैं। साफ है , लाड़-दुलार , मार्गदर्शन और भोजन वस्त्र की व्यवस्था , धन और सामर्थ्य से माँ-पापा करते ही हैं। दो और बात होती हैं  , जो दया-त्याग कहलातीहैं ,भी बच्चे के लालन-पालन में आवश्यक होती हैं । हममें यथोचित दया-त्याग होने पर , अपने निर्भर बच्चे को हम ज्यादा पीटते नहीं हैं। यह दया-त्याग भी एक इन्वेस्टमेंट होता है।  पचपन-साठ के होते होते ये बच्चे , तीस  के हो जाते हैं। और तबके आश्रयदाता पापा-माँ , अब धीरे धीरे बच्चे के आश्रित होते जाते हैं। अब समय पलटा होता है , अब दया की जरूरत इन माँ-पापा को होती है। अगर लालन-पालन के समय दया और त्याग हमने लगाया होता है , तो प्रतिफल में ये एक संस्कार बनते हैं , जिसके होने पर बड़े हुए बच्चे अपने वृध्द पेरेंट्स की देखरेख अपनी व्यस्तता में भी दया और त्याग से करते हैं।
लेखक एक कथन और करना चाहता है कि लाड़-दुलार का अतिरेक भी दयाहीनता की श्रेणी में आ जाता है , जब बच्चे इसमें बिगड़ कर उस समर्थता के लिए तैयार नहीं हो पाते , जिससे वे अपने वृध्द माँ-पापा की जिम्मेदारी सरलता से वहन कर सकें। 
--राजेश जैन
22-12-2015
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