Saturday, October 4, 2014

आत्ममुग्धता

आत्ममुग्धता
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कोई किसी पर मुग्ध होता है तब उसमें अच्छाई ही देखता है , उसके गुण पर ही ध्यान जाता है। उसके साथ बीतते समय के साथ मुग्धता का प्रभाव जब कम होता है तब दृष्टि उसके दोष और बुराई पर भी जाती है।  तब अपने उस सम्मोहन पर उसे हँसी ही आती है कभी पछतावा भी हो सकता है।

आत्ममुग्धता एक सम्मोहन है , जिसका प्रभाव दूसरे द्वारा दूसरे पर नहीं होता है ,बल्कि स्वयं का स्वयं पर होता है।  इस तरह की मुग्धता में हमें अपनी अच्छाई ही अच्छाई दिखती है। हम अपने में सिर्फ और सिर्फ गुणों की खान देखते हैं।  अपने दोष और अपनी बुराई हमें अनुभव में नहीं आती है। आत्ममुग्धता हमें किसी द्वारा बताये अपने दोष को भी मानने नहीं देती , बल्कि उस व्यक्ति से हम बुरा ही मान बैठते हैं जो हमें इस तरह दर्पण दिखाता है। हमारी आत्ममुग्धता हमारा दर्प मिटने नहीं देती है।  हममें से बहुत, आत्ममुग्धता ग्रसित होते हैं। और इस स्थिति से स्वयं परिचित नहीं होते हैं।

आत्ममुग्धता का परिचय लेख में किसी और लक्ष्य से दिया गया है। अब उस पर लेख करता हूँ।

नारी पक्ष के प्रति नरमी
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लेखक के लेखों में नारी -पुरुष के परस्पर टकराव और विवाद के कारणों में अक्सर नारी पक्ष के प्रति नरमी और पुरुष पक्ष के प्रति आलोचक दृष्टिकोण झलकता है।  पुरुष मित्रों ने ऐसा अनुभव किया है।  लिखे जाते समय स्वयं लेखक को भी यह आभासित होता है। लेखों में क्यों ऐसा है इसका कारण स्पष्ट यहाँ एक दृश्य से किया जा रहा है।

एक पिता अपने बेटे की किसी गलती पर उसे पीट रहा है। बेटा मार की पीड़ा से रो रहा है।  आसपास के व्यक्ति पिता को ना मारने के लिए समझाने का प्रयास करते हैं। लेकिन पिता की उग्रता कम नहीं होती।  इस बीच बेटा कुछ अपशब्द पिता को कह देता है.  पिता का गुस्सा और बढ़ जाता है।  तब भी ज्यादा समझाने वाले पिता को ही समझाते हैं।  क्यों ?
इसी तरह
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प्राकृतिक रूप में ही पुरुष और नारी एक दूसरे के पूरक बनायें गए हैं।  दोनों का ही अपना अपना महत्त्व है ही।  लेकिन नारी की प्रकृति प्रदत्त शारीरिक शक्तिहीनता , संरचना और स्थिति पुरुष से कमजोर रही है। इसलिए आरम्भ से वह पुरुष आश्रय में सुख अनुभव करती रही है। सभ्य मनुष्य समाज में धैर्य और न्याय समर्थ से ही अपेक्षित होता है।   शक्तिहीन और विवश पर प्रहार को कभी वीरता नहीं कही जाती है।

आश्रित हमारा बेटा
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जिस प्रकार आश्रित हमारा बेटा अल्पवय में हमसे कमजोर होता है , इसलिए जब हम उस पर प्रहार करते हैं।  समझाने वाले जो गुस्से में नहीं होते हमें ऐसा नहीं करने को समझाते हैं।  वैसे ही नारी से पुरुष अपेक्षा में आई कोई कमी यदि उसे नाराज भी करती है। तो ज्यादा समर्थता के कारण पुरुष को ही समझाया जाना उचित होता है।
न्याय अपेक्षा
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नाराजी से उग्र हुए पुरुष पर विवश नारी कोई पुरुष अहं को ललकार बैठती है तो यह उसकी लाचार अवस्था की प्रतिक्रिया ही होती है। ऐसी स्थिति में भी धैर्य -न्याय की अपेक्षा बलवान पुरुष से ही होती है।  ज्ञान और न्याय , पुरुष से ही अपेक्षा करता है कि ऐसे कारण /स्थिति को दूर करे। जो नारी -पुरुष के ऐसे टकराव उत्पन्न करते हैं।

नारी संगठन
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बलवान पुरुष मानसिकता  आत्ममुग्धता की शिकार है जिससे वह अपने दोष और अन्याय को देख नहीं पाती।  नारी संगठन और उनकी आवाज ,वास्तव में विवश स्थिति जनित नारी प्रतिक्रिया है। बलवान पुरुष इससे और उग्र हो रहा है। 

संगठित हो संघर्ष का प्रयास कब किया जाता है?
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संगठित हो संघर्ष का प्रयास कब किया जाता है?  जब विरोधी ज्यादा ताकतवर है।  बहुत स्थितियों में पुरुष शोषण और अत्याचार से बचाव किसी एक नारी द्वारा संभव नहीं है।  इसलिए संगठित स्वर में उन्हें कहने की आवश्यकता आई है।  शायद ही कोई नारी मानती होगी की जीवन में उसे किसी पुरुष की आवश्यकता नहीं है ,क्योंकि पुरुष उसका पिता ,भाई और बेटा भी होता है अकेला प्रेमी या पति नहीं।

नारी , आज ज्यादा शिक्षित और समर्थ
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लेखक के लेख इसलिये पुरुष चिंतन और स्व-दोष मिटाने के आव्हान के हैं। पहले की तुलना में नारी भी आज ज्यादा शिक्षित और समर्थ है।  टकराव के जो कारण नारी व्यवहार के बदलने से नष्ट किये जा सकते हैं , उस बारे में परस्पर नारी चिंतन और प्रयासों से ही नारी द्वारा नारी को समझाया जाना उचित होता है।

मानव जीवन अत्यंत ही प्यारा
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आत्ममुग्धता की स्थिति से हम सब बाहर निकलें , गुण  अच्छाई तो हममें अनेकों हैं , जो थोड़े दोष हैं उन्हें दूर करें। तब  यह विश्व /देश , हमारा समाज और हमारा मानव जीवन अत्यंत ही प्यारा बन जाता है।

--राजेश जैन
05-10-2014

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