Sunday, October 5, 2014

फ़िल्मी लोगों का संस्कृति द्रोह


फ़िल्मी लोगों का संस्कृति द्रोह
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पिछले 10 दिनों में 2 नई फ़िल्में देखीं। देखकर लेखक के  नये लेख में फिल्मों और फ़िल्मी लोगों की बुराई पर पुनः प्रहार के कारण मिलें। लेख आज उन पर.

दोनों फिल्मों में थीम समान ही थी।  बेटी के लिए योग्य युवक की खोज कर परम्परागत ढंग से विवाह तय किया जाता है।  घटिया से किसी कारण को लेकर बेटी शहर आती है। रूप पर रीझे एक युवक की घटिया हरकतों से बेटी को प्रभावित होते दिखाया जाता है। अंततः युवक के कुछ डायलॉग से प्रभावित दिखा और बेटी के प्रेम दबाव में आकर पिता , कमतर योग्य इस लड़के से बेटी के विवाह को स्वीकृति देता है। फिल्म में तो सरलता से दिखा दिया जाता है कि अपेक्षाकृत धनी परिवार की बेटी , निर्धन या मध्यमवर्गी युवक के साथ विवाह कर लेती है या खुश दिखती है , जबकि यथार्थ जीवन इस सरलता से किसी ऐसी बेटी का इससे विपरीत होता है।  प्रश्न कई (पहले भी उठे हैं ) पुनः अपने लेखन और दृष्टिकोण से चिंतन हेतु उल्लेखित हैं।

प्रश्न 1.  युवक और उस बेटी का सेक्स फिल्म में दिखाया गया है।  विवाह पूर्व इस सेक्स को बाद में दोनों द्वारा इतना सहज लिया दिखाया गया है जैसे दो लोगों ने किसी हॉटेल में साथ भोजन किया हो।  इस सम्बन्ध के बाद भी बेटी पिता दबाव में तय किये अन्य युवक से विवाह को राजी है , अगर प्रेमी ज्यादा पीछा नहीं करता है तो।

क्या  पुरुष और नारी अपने स्पाउस (जीवनसाथी)  के विवाह पूर्व सम्बन्ध के जानकार होने पर इतने सहज रह सकते हैं? या इसे हम एक षणयंत्र कहें जो फिल्मों के माध्यम से किया जा रहा है। कम उम्र के हमारे बच्चे भी इन फिल्मों को देख रहे हैं , क्या उन्हें मानसिक तौर पर इन सम्बन्धों को इतना सहज लेने के लिए तैयार नहीं किया जा रहा है ?

लेखक मत 1.  - यह तो परिवार इकाई को अस्थिर करता है क्योंकि सेक्स इतना सहज लिया जाने लगेगा तो विवाह-बंधन की मजबूती वह नहीं रह जायेगी जो अभी तक रही है।परिवार में बच्चे किन संबंधों से जन्मे हैं शंका रहेगी। परिवार बिखरे तो समाज ऐसा नहीं रह सकेगा।

प्रश्न 2. - युवक को अनेकों बार स्मोकिंग करते दिखाया गया है , जबकि प्रमाणित है , यह हेल्थ पर अत्यंत बुरा प्रभाव डालती है।  क्या हीरो द्वारा किये जा रहे इस कृत्य से हम अपने बच्चों में प्राणलेवा आदत की दुष्प्रेरणा नहीं देखते हैं।  जबकि हीरो द्वारा ऐसा करवाने के उद्देश्य सिगरेट का विज्ञापन और उससे इनके निर्माताओं की आय बढ़ाने का छिपा एजेंडा है।

लेखक मत 2. - मनोरंजन के नाम पर पीढ़ियों का समय बर्बाद करने के साथ फ़िल्में समाज में बुरी लतें भी फैलाती आई हैं।  जो देश के नागरिक को रोग ग्रसित कर उनके जीवन और क्षमताओं से समाज और राष्ट्रहित में उनके अधिकतम योगदान की संभावना समाप्त करती है।  भला तन और मन से रोगी व्यक्ति से हम efficient  कार्यकुशलता की (परिवारहित समाजहित या राष्ट्रहित ) अपेक्षा कर सकते हैं।

आगे प्रश्न फिल्म से नहीं एक फ़िल्मी प्रचारित महान से है।  जो आज कुशल अभिनेता से महान लीडर (नेता) बनने का प्रयास कर रहा है।  देश और समाज में समस्याओं और बुराइयों को दिखला कर सिस्टम पर दबाव और युवाओं में प्रेरणा का संचार देने का दिखावा कर रहा है।

उससे प्रश्न  - क्या फिल्मों ने एवं फ़िल्मी लोगों की बुराइयों ने देश ,समाज और संस्कृति का जो बुरा हश्र कर दिया है , जिससे समाज और देश बुराइयों और समस्याओं से जूझने को बाध्य है , वे उसे नहीं दिखती हैं ? क्या फिल्मों और फ़िल्मी लोगों की इन संस्कृति  (समाज) द्रोह के करतूतों पर वह एक एपिसोड पेश कर सकता है ?

लेखक मत - यदि ऐसा नहीं है , तो उसे अभिनेता और "धन वैभव बटोरने की मशीन" ही बने रहना चाहिए , वह इस पीढ़ी का महान नेता कभी नहीं कहला सकेगा।  भोगी और ऐय्याश कभी इतिहास पृष्ठ पर महान नहीं दिखाये गये हैं , क्योंकि वे जीवन अपने लिए जीते हैं।  इतिहास पृष्ठ पर महान वे दिखते हैं जो व्यकिगत भलाई से ऊपर उठ मानवता विकास (और संचार) के लिए बलिदानी होते हैं।

--राजेश जैन
06-10-2014

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