Sunday, December 29, 2019

प्रतीक्षायें ....

प्रतीक्षायें  ....

मुझे, मेरी चेतना का आभास जब होना प्रारंभ हुआ, मुझे, सर्वप्रथम गोदी में लेकर दुलारने वाले कुछ चेहरे अनुभव हुए थे। कुछ ज्यादा समझ आने पर जिन्हें, मैंने माँ-पिता दादा-दादी या चाचा, बुआ इत्यादि ( और भी हमारे बड़े) रूप में जाना था।
आरंभ में मुझे बस खाने-पीने को मिलने की प्रतीक्षा होती थी। फिर मेरे साथ कुछ गतिविधियाँ मुझे कष्टकारक लगने लगीं थीं। जैसे मुझे नहलाया जाने पर पानी का ठंडा स्पर्श या आँखों में साबुन से जलन (ऐसे ही कुछ और चीजें) तब मुझे इसके जल्दी ही पूरा हो जाने की प्रतीक्षा होती थी।
फिर मुझे बाल-मंदिर/स्कूल जाना पड़ने लगा। वहाँ मुझे प्रतीक्षा छुट्टी होने की होती थी। छुट्टी मिलने के पश्चात खाना - पीना, खेलना-कूदना तथा अन्य मनोरंजन सुलभ होते थे। अतः छुट्टी की प्रतीक्षा तभी नहीं, चाहे वह वक़्त स्कूल/कॉलेज में पढ़ने का या फिर सर्विस करने का रहा हो, मुझे पूरे जीवन रही थी।
स्कूल/कॉलेज जाना लाचारीवश जब आदत में शामिल हुए, तब प्रतीक्षा शनिवार की शाम आने की रहने लगी थी। जिसके बाद का दिन मुझे तुलनात्मक रूप से, अपनी मनमर्जी की ज्यादा आजादी वाला प्रतीत होता था।
इस बीच ऊधम-मस्ती में मेरे हाथ-पाँव भी टूटते रहे या अन्य चोटें लगती रहीं थीं। तब प्रतीक्षा प्लास्टर/पट्टी के निकाले जाने वाले दिन की होती थी। जिनसे शारीरिक टूट-फूट के दर्द से छुटकारा मिल जाता था।
स्कूल-कॉलेज में ही मानसिक यातनाओं का एक समय बार बार आता था। जी हाँ, आप सही समझ रहे हैं - ये परीक्षाओं का वक़्त होता था। तब इनकी समाप्ति की प्रतीक्षा होती थी। इनकी समाप्ति से ही एक और बात की प्रतीक्षा हो जाया करती थी कि परिणाम आयें और ऐसे आयें ताकि घर में किसी को रोष न हो जाये।
स्कूल/कॉलेज में प्रतीक्षा के ऐसे सिलसिले चलते चलते जीवन में कुछ और बातों की प्रतीक्षा रहने लगीं थीं। यथा बड़े-भाई बहनों के विवाह आदि, कुछ त्यौहार, उत्सव ऋतुओं के आने की तथा ऐसी घड़ियों के आने की, जिसमें प्रिय लगते कोई कोई लोगों के दर्शन मिला करते थे।
क्रिकेट/टेनिस मैच के होने से लेकर अखबार या किसी पत्रिका के नए अंक आने जैसी और कुछ बाते भी मेरी प्रतीक्षाओं में समाविष्ट रहतीं थीं।
स्कूल की अंतिम परीक्षा जिसके परिणाम से कॉलेज तय होना था और कॉलेज की अंतिम परीक्षा जिसके परिणाम से अच्छी नौकरी तय होना था के परिणामों की भी बड़ी प्रतीक्षा मुझे रही थी।
ऐसी सभी प्रतीक्षा का अंत कभी मनोनुकूल भी होता था कभी प्रतीक्षा अधूरी भी छूटतीं और उसका समय निकल जाता था।
प्रतीक्षाओं के इस जीवन क्रम में अवसर ऐसे भी आये थे, जब हमने, नहीं चाहे, अपनों के साथ गँवाये थे। तब हमारे अन्य परिजनों ने समझाया था।इसे जीवन क्षणभंगुरता का कटु यथार्थ का होना निरूपित किया था।
जीवन का यह स्वरूप भी अप्रिय चीज नहीं था। मेरी इसके प्रति ललक टूटने पर पुनः फिर से बन जाने से यह बात अनेक बार प्रमाणित हुई थी।
मेरे जीवन में एक बार मनोहारी मुकाम, प्यार के मौसम का भी आया था। मेरा अच्छी योग्यता अर्जित करने के पीछे छिपा, एक विचार तब यथार्थ हुआ था।
मेरे मन में आयु अनुरूप मधुर भावनाओं के कमल खिले थे। कोई अनजान प्रेयसी मिले, मुझे प्रतीक्षा रहने लगी थी। मेरे जीवन में यथा समय उस मनोवाँछित प्रेयसी का तब आगमन हुआ था। जागी आँखों का देखा सुखद सपना मेरे जीवन में तब साकार हुआ था।
अब प्रतीक्षा अनोखे रूप में सामने आयी थी। जब प्रेयसी का सानिध्य होता तब प्रतीक्षा समय आने का नहीं, यह समय बीत न जाए इसकी होती थी। लेकिन समय का भरोसा करना ठीक नहीं होता, समय ने, यथा अनुसार मुझे यह सिखा दिया था। मधुर लगता समय भी निश्चित ही अतीत होता था।
प्रतीक्षा फिर हुई थी कि प्रेयसी, जीवन संगिनी बने।
यहाँ समय का आभार करूँगा, जिसने तब धोखा नहीं किया था। यहाँ भाग्य का आभार भी करूँगा कि मिली, मेरी प्रेयसी और जो मेरी जीवन संगिनी भी हुईं, वह इतनी अधिक पात्र थीं कि मुझे, "स्वयं" उनके लिए उचित पात्र होने का संदेह बना रहा था।
विवाह हुआ, तब हम दोनों की आयु ऐसी थी जिसमें जोश, उमंग, सकारात्मकता अपने चरम पर थी। तब हमें समय और दुनिया यूँ लगे थे  कि जैसे हमारी ही मुट्ठी में है। समय का इससे बड़ा सुखद भ्रम और कोई नहीं था। इसके बाद, समय ने जीवन को ऐसी चकरघिन्नी बनाया कि 30 वर्ष कैसे बीते पता नहीं चला था।
कुछ नितांत व्यक्तिगत अनुभूतियाँ रहतीं और कुछ स्वार्थ पूर्ति की प्रतीक्षा अर्धचेतन में बनतीं जिनमें कुछ पूरी, कुछ अधूरी होती थीं। प्रत्यक्ष में मैं कई जिम्मेदारी और मजबूरियों को निभाते चलता गया था।
परिवार में तब प्रतीक्षा अनुसार बच्चे जन्मे थे, प्रतीक्षा अनुसार उनके स्कूल, कॉलेज, सर्विस और उनके विवाह हुए थे, इसलिए समय के कई बार निर्मित मेरे भ्रमों/प्रतीति पर भी मैंने धोखे की शिकायत की कोई एफआईआर दर्ज नहीं की।
मैंने तय किया था मगर, जब भगवान से साक्षात्कार करूँगा, इस बात पर अवश्य उनसे अपना विरोध रखूँगा कि अगर अपने परिजन/मित्र जब हमें आप प्रदान करते हो, तो उन्हें हमसे छीन क्यों लेते हो?
दादी-दादा, पिता-माँ, चाचा-चाची, श्वसुर पापा, सासु-माँ बुआ-फूफा और परिजन, गुरु, मित्र और हितैषी आदि मेरे अपने, बारी बारी छिन जाने से बार बार, निर्मित कटु मानसिक स्थिति को लेकर जीवन के ऐसे स्वरूप का विरोध-विचार मन में उत्पन्न होते आया था।
मैं एहसान फरामोश नहीं जो ऐसे हर मौके पर, वक़्त की इनायत का शुक्रगुजार भी रहा था, जो बीतते बीतते हमें वह क्षमता दे जाता था, जिसमें मैं अपनों के विछोह के बावजूद भी जी पाता था। भगवान को धन्यवाद भी लिखूँगा कि वह मुझे विवेक देता था, जिसके कारण मैं इन खो गये सब अपनों को, अपने ही अस्तित्व में सम्मिलित पा लेता था, और फिर फिर आगे कि जीवन यात्रा पर जग के प्रति और अधिक जिम्मेदार होते हुए, निकल पड़ता था।
जिनका वियोग हुआ वे सारे मेरे, अपने अस्तित्व के समाप्ति के बाद मुझमें समा कर मेरी प्रेरणा बनते जाते थे। मेरे मिले इस जीवन को सार्थक करने में मेरे मनोबल होते जाते थे।
ऐसे निभाते मैं बहुत चल गया था। अतः समय मेरी परीक्षा और ना लो यह अनुनय करता था। तुम्हारे कदम मिलाते हुए अब मेरे अपनों के और विछोह के का सामर्थ्य नहीं रह गया था।
नई नई होती प्रतीक्षायें फिर उनके पूरे हो जाने के सिलसिले में कड़ीकड़ी, जुड़-जुड़ मेरी जीवन यात्रा अब अभूतपूर्व मंजिल पर पहुँच गई थी। यात्रा अब प्रतीक्षातुर से प्रतीक्षांत में परिणीत हुई थी।
पीछे जिन राहों पर चलकर यहाँ मैं पहुँचा हूँ, वे जीवन मार्ग सब ध्वस्त होकर, ऐसी गहरी घाटियों में परिवर्तित/निर्मित हुए हैं, जिनमें गिर जाऊँ तब भी अतीत का फिर मिलना संभव नहीं है। अब पीछे के सारा जीवन क्रम मेरा मेरे मानस पटल से विस्मृत भी हो गया है।
आगे के दृश्य में -
"एक बहुत विस्तारित स्वर्णिम पर्वत श्रृखंला है, जिस का ओर छोर नहीं है और जिसकी ऊँचाई आसमान चीर देने वाली प्रतीत हो रही है।  पर्वत के मध्य से स्वच्छ जल एक प्रवाह रूप में धरा पर गिरता हुआ एक दूर तक जाने वाली लंबी सरिता का रूप धारण कर ले रहा है। स्वर्णिम पर्वत पर जहाँ तहाँ गुलाबी आभा लिए दरकीं हुईं झिर हैं ,जिसमें से गिर रहा नीर इस सरिता में मिलता जाता है। 

सरित-नीर अपने रंग में पर्वत की स्वर्णिम आभा, गगन की नीली आभा और गुलाबी झिर के समिश्रण से किसी स्वर्ण हार सदृश्य दिखाई पड़ रहा है ,जिसमें नीलम और गुलाबी नगीने जड़े हुए हैं। ऐसे मनोरम दृश्य के बीच एक छोटे समतल पर मैं एकला खड़ा हूँ। मुझमें किसी बात की प्रतीक्षा अब नहीं बची है। इस मनोरम प्रदेश से एकमात्र मार्ग पर्वत पार करने का है। जिसे कोई 'जीवन' पार करने की कोशिश करे तो सदियों में संभव नहीं है। मगर 'मौत 'ने एक क्षण से भी छोटे समय में मुझे, वह अनंत ऊँचाई वाला लगता पर्वत पार करा दिया है।"

अब पर्वत के उस पार सामने है एक अनुपम दृश्य ...     

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
29.12.2019


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