Wednesday, December 11, 2019

मैं ... (कहानी)

मैं ... (कहानी)

मैं कम अक्ल था शायद! मुझे सूझता नहीं था किस बात को कैसे लिया जाना चाहिए? मुझे लगता है मैं भीड़ से ज्यादा प्रभावित होता था। जैसे और लोग करते दिखाई देते थे मैं वैसा करना सुविधा जनक मान लेता था।
मैंने आरंभ में समाज में शाकाहारियों की अधिकता देखी थी तब शाकाहारी था। फिर औरों को माँसाहार भक्षण करते देख, मैंने उससे परहेज खत्म कर दिया था।
लोग रात्रि पार्टियों में शराब पीकर गुलछर्रे उड़ाते देखे थे। मैंने भी ऐसा करना आरंभ कर दिया था। इससे बढ़े खर्च की पूर्ति के लिए मैं उनके देखा देखी रिश्वत लेने लगा था।
जैसा और करते मैंने भी अपनी सरकारी नौकरी के अतिरिक्त निजी व्यवसाय आरंभ कर दिया था। मेरे आउट्लेट पर दिन भर चाय/कॉफी एवं शाम से बंद होते तक वेस्टर्न स्नैक्स विक्रय किये जाते थे। जिन्हें निर्मित करने के लिए मैं जानते समझते हुए मिलावटी और कृत्रिम रसायनों से बनी सामग्री उपयोग करता था। ताकि अपना ज्यादा लाभ सुनिश्चित कर सकूँ। ज़ाहिर था, जल्द पैसे वाला बनने की लगी दौड़ में, मैं भी शामिल हो गया था। इस होड़ में मुझे दिखाई नहीं दे रहा था कि अपने उत्पाद से किस तरह के रोग - स्वादिष्ट भोज्य के भीतर औरों को असाध्य रोग परोस रहा था।
दरअसल मैं आजीवन कन्फ्यूज्ड रहा था। मुझे समझ नहीं आता था कि किस चीज को, किस परिप्रेक्ष्य में ग्रहण किया जाना चाहिए। मैं टिकट पर व्यय करते हुए घंटों ऐसे सिनेमा देखता जिसमें - हिलती डुलती कार में शारीरिक संबंध का होना इंगित किया जाना और ऐसे ही कितने अश्लील दृश्य होते। लेकिन किसी लेखक का, यूँ लिख देने में -
"मेरे वस्त्रों के भीतर मेरे अंदरूनी अंगों तक पहुँचते उनके हाथों का स्पर्श यूँ चुभता और जलाता हुआ अनुभव हो रहा था जैसे कि मुझ पर एसिड सा कोई पदार्थ उड़ेला जा रहा हो।" और "अर्धचेतन होने के पूर्व तो शायद सभी 10 बार मुझ पर से चढ़े उतरे थे"
 मुझे पॉर्न का शाब्दिक चित्रण दिखाई दे रहा था।
मैं, सिनेमा के वीभत्स डायलॉग जैसे
"Hum tum mein itne ched karenge, ki confuse ho jaoge ke saans kahan se le aur paade kahan se."
पर तो हँस हँस लोटपोट होता था। लेकिन कोई लेखक अपराध की गहनता दर्शाने यह लिखता क़ि -
"इन सबमें मुझे लग रहा था, मेरा मुखड़ा, रुलाई आँखों से निकलते अश्रु, नाक से निकल आई गंदगी, मुहँ से निकलती लार आदि से भयानक हो गया होगा। साथ ही भय से पेशाब और शायद मल भी मेरे वस्त्रों में निकल आये थे। इतनी सब गंदगी में अगर कोई और होते तो उनके वासना का खुमार उतर जाता। "
तो मुझे इस वीभत्स वर्णन से वितृष्णा होती।
साफ था कि चल गए नाम के मुहँ से जो निकला मुझे आदर्श लगता था।और साधारण किसी व्यक्ति का ऐसा ही वर्णित, मुझे साहित्य हत्या का प्रयास लगता था।
मैं अपने गर्भस्थ कन्या शिशु की तो हत्या कर देता। मगर औरों की लाड़ दुलार और अरमानों से बड़ी की गई बेटी से अपनी हवस मिटाने की हिकमत करता। और मेरी विचित्रता यह कि, ऐसी युवतियों को  हीन दृष्टि से देखता जो पुरुषों के छलावों की शिकार हुईं हैं। मगर जब लेखक, एक बेटी की मनः स्थिति में, जो दुराचार सहने के बाद उत्पन्न नैराश्य में यह कामना करती है, दिखलाता है कि
"सारी रात मेरा शरीर और मेरी रूह इनके कृत्यों से जिस प्रकार जलाई गई है। उसने मुझे यूँ जलाये जाने पर होने वाली वेदना को सहन करने की ताकत दे दी है। इन्होंने रात भर जो किया वह जरूर जघन्य अपराध था। लेकिन अब ये जो करने वाले हैं मुझ पर एहसान है। भला कौन! भारतीय नारी होगी जो इस घिनौनी हरकत को झेल जीना चाहेगी?"
इसकी प्रतिक्रिया में मेरा तर्क यह होता था-

"स्त्री के साथ रेप या कुछ घटे तो इसका मतलब यह नहीं कि वह समाज में रह ना सके".
मेरे पास पूरे जीवन सुविधा जनक तर्क थे, जिनसे मैं अपने बुरे और समाज अहितकारी कामों को भी उचित ठहरा देता था। मुझे यह स्पष्ट ही नहीं था कि मानवता , समाज हित और अपने परिवार की नारी सम्मान और सुरक्षा के परिप्रेक्ष्य में किस बात का मुझे बहिष्कार करना चाहिए, किसे ग्राह्य करना चाहिए।
मैं उसे हतोत्साहित करते रहा था। जो अपराध का करुण पक्ष दिखला कर, किसी अपराध उत्सुक व्यक्ति को अपराध के तरफ प्रवृत्त होते, रोक देना चाहता था। मैं भीड़ के साथ था। मैं समाज निर्माण को इक्छुक दिखने के लिए भीड़ के साथ नारेबाजी कर लेना बस, अपना दायित्व पूरा कर देना मानता था।
यह करने के बाद मैं शनिवार इतवार रात्रि का इंतजार, व्यग्रता से करता जब टीवी पर "रियलिटी शो" का मसालेदार प्रसारण होने वाला होता। ऐसा करके मैं, आधुनिक, पाश्चात्य और प्रगतिशीलता का खुले विचार वाला होने की आत्म-मुग्धता में रहता था।
सारी ज़िंदगी मैंने उन लोगों को प्रोमोट किया था, जिन्होंने अपनी प्रस्तुतियों से समाज में, नारी के सम्मान हनन, उन पर शोषण के कृत्यों के नए नए तरीके परोसे थे। मैंने प्रत्यक्ष में, स्वयं को महान समाज निर्माता दिखाने का अभिनय सफलता से कर लिया था।
आज मैं मर गया हूँ। मेरा मानवीय दायित्व विहीन जीवन इतिहास हो गया है। मैंने अपनी आगामी पीढ़ियों के लिए वह परंपरा और वह परिवेश छोड़ा है, जिसमें वे देश और समाज का अपमान अनुभव करेंगे। जिसमें पूरा जीवन वो अपने आदर और सुरक्षा पर खतरे के अंदेशे में रहेंगे।
मगर मुझे इससे क्या! मैंने तो अपनी ज़िंदगी का पूरा लुफ्त उठा लिया था ....


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
12.12.2019

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