Saturday, October 12, 2019

आत्महत्या (भाग -3) ..

आत्महत्या (भाग -3) ..

शैलेष, उस रात नींद लगने के पहले बिस्तर पर लेटे हुआ पिछले 15 दिनों के घटनाक्रम पर सिलसिले से सोचता रहा। उसने समझ लिया कि दुनिया में शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो आत्महत्या करने को उत्सुक किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने में मदद देगा।

उसकी कुशाग्र बुद्धि ने उसे स्पष्ट कर दिया कि प्रदीपजी ने पहली भेंट में क्यों ये आदेश दिए हैं, जिनके अंतर्गत उसे प्रतिदिन ई-रिक्शा लेना होता है। फिर उन लोगों की पहचान करना होता है, जो पैदल चलने में रोगवश, ज्यादा सामान के होने से या ज्यादा दूरी चलने में कष्ट में हैं। और जो ऑटो का खर्च उठाने में असमर्थ हैं. जिन्हें उनके मार्ग में सिटी बस भी नहीं मिल रही है. शैलेष को उनसे बिना शुल्क या टोकन राशि 10-20 रु. लेकर अस्पतालों के सामने से या अन्य जगह सड़कों से उनके गंतव्य तक पहुँचाने का कार्य करना है।

वह अब समझ सका कि निश्चित ही इसके पीछे उनका इरादा मुझे व्यस्त रख कर जो असफलता के ख्याल मुझे दुःख दे रहे हैं उनसे दूर रखने का होगा। उसे यह भी अनुमान हो गया कि उनका उद्देश्य- 

"अपनी उपलब्धियों पर ही नहीं, ख़ुशी किसी जरूरत मंद व्यक्ति की सहायता करने के परोपकार में भी मिलती है" 

का अहसास मुझे कराने का रहा होगा।
शैलेष को ख्याल आ गया उस दिन मैं मरना चाहता था, तब प्रदीप जी ने कहा था कि आप अपने को मरा हुआ मान लो। मर जाने के बाद किसी को हासिल कुछ नहीं और खोना भी कुछ नहीं होता है । मैं मरा नहीं था मगर मुझे स्वयं को मरा होने का स्मरण रखना था। इस स्थिति में मुझे अपने लिए कुछ न लेना था (मरे को क्या मिलना है). चूँकि वास्तव में मरा नहीं था इसलिए करने का सामर्थ्य मुझमें बरकरार था जिससे मुझे औरों की सहायता करते जाना था।
कहते हैं सद्कार्यों के लक्ष्य हों तो ईश्वर भी सहायक होता है। शायद इसी ईश्वरीय संयोग में पिछले दिन, शुक्रिया सड़क पर ओढ़ने बिछाने के कपड़ों की गठरी और एक थैले में टिफिन आदि का भार उठाये सड़क पर बेचैन सी चलती मिली थी. उसने शुक्रिया के सामने अपना ई-रिक्शा खड़ा कर, कहाँ जाना है? पूछा था। शुक्रिया पैसे बचाना चाहती थी इसलिए उसने उदासीनता दिखाते हुए चलना जारी रखा था। तब शैलेष ने कहा था जहाँ भी जाना चाहती हो, बहन सिर्फ 10/ में पहुँचा दूँगा। इस पर शुक्रिया अस्पताल का पता बता कर सवार हुई थी। अस्पताल पहुँच कर 10/ देने के साथ शुक्रिया कहते हुए उतर गई थी। आज फिर संयोग हुआ था. आज वह अस्पताल से निकल रही थी, तब उसने शैलेष को देखा था। आज बिन हिचक घर का पता बता कर उसके साथ आ बैठी थी। पिछले दिन के एहसान से उसने खुद होकर ही शैलेष से इतनी सब बातें की थीं। ( भाग-2 में उल्लेखित). जिसने शैलेष के ज्ञान चक्षु खोल दिए तथा प्रदीप जी के दायित्व को आसान कर दिया।
सारी कवायद ने शैलेष को रियलाइज करा दिया कि परोपकार करना आसान तब हो जाता जब व्यक्ति खुद के लिए मर कर औरों के लिए जीता है। अब शैलेष यह सोच रहा था कि इतना गहन रहस्य प्रदीप जी के समक्ष खुला कैसे होगा? कदाचित ऐसा तो नहीं मेरे जैसे अवसाद में कभी उन्हें खुद आत्महत्या का ख्याल आया होगा। जिससे उबरने के लिए उन्होंने "परोपकार के मार्ग को अपनाया और इसमें निहित अद्-भुत सुख को स्वयं अनुभूत" किया होगा।
सब सोचते हुए शैलेष को समझ में आ गया प्रदीप जी जो चाहते थे, उन्होंने वह मंतव्य प्राप्त कर लिया है। इसी कारण कल उन्होंने रोज जैसे काम के समय पर नहीं अपितु अन्य समय बुलाया है। प्रदीप जी कल जो कहने वाले होंगे उसके पूर्व ही उसके ह्रदय में एक संकल्प उभर आया वह एम्स में प्रवेश की फिर कोशिश करेगा और सफल होकर डॉक्टर बनेगा। 

"वह देश/समाज को सप्ताह में छह दिन खुद के लिए मर कर सेवा देगा। एक दिन अपने लिए जीकर परोपकार के आनंद को अनुभव किया करेगा। "
यह संकल्प आया शैलेष के मन में तब ही उसे निद्रा ने अपने आगोश में ले लिया ...

.... आगे जारी
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
12-10-2019

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