कदाचित! मै भी पुरुषोत्तम हूँ ....
अंजान नं. से कॉल आ रहे थे, ट्रू कॉलर में भी नाम नहीं बताया था। वह इन्हें अनदेखा करता रहा था। मगर जब पिछले चार घंटे में पाँचवी बार घंटी आई तो यह सोचते हुए कि कोई आपात स्थिति तो नहीं उसने स्वाइप कर कॉल रिसीव किया था -
दूसरी ओर से : (एक ग्रामीण युवती का स्वर सुनाई पड़ता है) परसोत्तम कहाँ है, उससे बात कराओ!
वह : यह पुरुषोत्तम का नं. नहीं है, आप सही नं. देख के लगाओ! (कहते हुए कॉल काटता है)
यह गलत कॉल परसोत्तम के लिए था, वह निश्चित ही उस युवती का परसोत्तम नहीं था। किंतु इस कॉल से उसका चिंतन ट्रिगर होता है। "कदाचित! पुरुषोत्तम तो वह है"।
फिर, उसका अपने आप से पुरुषोत्तम के मानकों पर परखने की प्रक्रिया यूँ आरंभ होती है।
( मानकों के तरफ के परीक्षण के प्रश्न, उसे 'मानक' रूप में एवं उसके उत्तर 'मैं', में वर्णित हैं)
मानक : क्या पुरुषोचित कर्तव्य बोध है, तुममें?
मैं : हाँ, मैं परिवार,समाज, देश और मानवता के प्रति अपने कर्तव्य बोध रखता हूँ।
मानक : पुरुष में न्याय प्रियता होती है, है तुममें?
मैं : हाँ, अपनी तर्क क्षमता में मै, सर्व पक्ष परख, न्याय से पेश आता हूँ।
मानक : तुममें, पुरुषोचित साहस है, नारी रक्षक हो खड़े होने का?
मैं : जी हाँ, मैं नारी दुर्दशा के प्रति संवेदनशील हूँ, मै उसे देखने की समाज दृष्टि लाने की, चेतना के लिए प्रयासरत रहता हूँ।
मानक : कहीं, तुम ईमानदारी पर, अपनी स्वार्थ लोलुपता तो हावी नहीं होने देते?
मैं : जी नहीं, मैं धन अर्जन में नैतिकता का विचार सदा रखता हूँ।
मानक : जीवन में पुरुषार्थ की प्रेरणा क्या तुम ग्रहण करते हो, औरों को भी क्या इस हेतु प्रेरित करते हो?
मैं : जी, पुरुषार्थरत रहने को मैं, जीवन सार्थकता जानता हूँ, अतः इससे स्वयं प्रेरित रहता हूँ , और अन्य को भी प्रेरित करने के उपाय करता हूँ।
"पुरुषोत्तम" होने के लिए इतने परीक्षण एवं उनकी पुष्टि होना उसे संतुष्ट करते हैं।
वह 'मानदंड' पर, और परखे जाने को, आवश्यक नहीं मानता, तब लिखना आरंभ करता है -
"कदाचित! मै भी पुरुषोत्तम हूँ .... "
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
26.11.2019
26.11.2019
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