Friday, November 15, 2019

आरुषि, मेरी बेटी है ...

आरुषि, मेरी बेटी है ...

भाई आशीष, बहन आरुषि, से  दस वर्ष बड़ा था। आरुषि ने बचपन से ही मम्मी (लता), पापा, आशीष और स्वयं के बीच अत्यंत अनुराग और परस्पर विशेष देखरेख का अत्यंत सुखद वातावरण देखा था। आशीष के विवाह के समय आरुषि 15 की वर्ष थी। आरुषि ने, अनुभा भाभी के आने के बाद कभी कभी लता और अनुभा में कटु वाद-विवाद होते देखे थे। ऐसे दृश्य घर में पहले कभी न होते थे। इन विवादों से लता-अनुभा में कई बार अनबोला हो जाता था। सदा प्रसन्नचित्त रहने वाले भैय्या के मुख पर ऐसे हर मौकों पर, आरुषि चिंता की लकीरें देखा करती थी। अनुभा, नारी विषयक पत्रिकायें पढ़ती थी। कभी कभी लगातार पढ़ाई से ऊब हो जाने पर, आरुषि भी इन पत्रिकाओं को पढ़ लिया करती थी। उनमें पढ़े गए लेख-कहानियों से जितनी समझ आरुषि को मिली थी, उसमें, मम्मी और भाभी के बीच के विवादों में उसे, मम्मी की खराबी ज्यादा दिखती थी। कभी आरुषि ने इस कारण भाभी के पक्ष में कुछ बोलना भी चाहा था तो मम्मी की तीखी दृष्टि उसे चुप रहने को बाध्य कर देती थी।
पापा इन झगड़ों के बीच में कभी न पड़ते थे। भैय्या भी धर्मसंकट में पड़ कर चुप ही रहते थे। दिन ऐसे ही बीतते जा रहे थे। इन्हीं सब के बीच अनुभा ने एक बेटी और एक बेटे को भी जन्मा था। घर में नए बच्चों सहित सभी सदस्यों में बेहद अपनापन होता था। परायापन बस अनुभा के प्रति ही मम्मी के बोलचाल एवं व्यवहार में देखने में आता था। 

आरुषि जब बीस वर्ष की हुई थी तब से भाभी, कभी कभी अपने मन की व्यथा उसे कह देती थी। मम्मी की ओर से अकारण भाभी को सताये जाने को लेकर आरुषि का मन सहानुभूति से भर जाता था। मम्मी के प्रधानता से हावी रहने के स्वभाव के कारण, कलह बढ़ने का खतरा भाँप, उनसे कोई भी कुछ कहने से बचता था। सासु माँ वाले अपने व्यवहार का प्रभाव बेटी के मन पर क्या पड़ता था लता, इससे अनभिज्ञ ही थी। 

ऐसे ही आरुषि की पढ़ाई पूर्ण हुई थी और उसे जॉब करते हुए जब 1 वर्ष भी हो गए, तब उसके विवाह की बातें होने लगीं थीं। उस समय आरुषि की कल्पना में, अपनी मम्मी का अनुभा के प्रति व्यवहार दृष्टिगोचर होता था। वह, अपनी सासु माँ द्वारा खुद से, ऐसे ही व्यवहार की कल्पना से विवाह के नाम से डर जाया करती थी। वह विवाह के लिए ना-नुकुर करती रही थी, मगर इसे, उसका सहज संकोच माना गया था। फिर अनचाहे ही उसका विवाह साहित्य से हुआ था। अपने परिवार में साहित्य एकलौती संतान थे। साहित्य के पापा का देहांत, आरुषि के ब्याह के तीन वर्ष पूर्व हो चुका था अतएव ससुराल में साहित्य और उसकी माँ नयना ही साथ रहती थीं।

आरुषि को साहित्य के रूप में न केवल एक बहुत नेक पति मिले थे वरन उसकी कल्पना से सर्वथा विपरीत नयना के रूप में माँ के ही समकक्ष लाड़-दुलार करने वाली सासु माँ भी मिली थीं। मोबाइल पर बातों में और मायके जाने पर घर में, सभी से आरुषि, इनकी अच्छाइयों का बखान करती तो सभी बहुत खुश होते थे। आरुषि विशेषकर लता से नयना के माँ रूप वाले स्नेह की चर्चा प्रमुखता से करती जिस पर लता गदगद होतीं। किंतु जिस आशय से आरुषि बताया करती थी उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती थी। मम्मी के भाभी के प्रति बर्ताव में कोई परिवर्तन नहीं होता था।
पलक झपकते तीन वर्ष बीते थे, जिसमें सब कुछ ठीक के बीच आरुषि के दो बार आरंभिक महीनों में ही गर्भपात हो जाना ही थोड़ी चिंता और परेशानी का विषय बना था। अब जाँच से आरुषि को, पुनः डेढ़ माह के गर्भ की पुष्टि हुई थी। डॉ. ने अगले दो महीने पूर्ण आराम तथा नियमित अंतराल में जाँच कराने को कहा था। उसे झटके से उठने बैठने, तेज चलने आदि की मनाही की गई थी।
--दृश्य 1 --
मायके में ज्ञात होने पर, बेटी के लिए समुचित व्यवस्थाओं की सुनिश्चितता की दृष्टि से लता बेटी के ससुराल आईं हैं। आरुषि अपने शयनकक्ष में बिस्तर पर सिरहाने के सहारे अधलेटी है। नयना एवं लता पास ही कुर्सियों पर बैठी हैं। उनमें वार्तालाप चल रहा है। तभी आरुषि की मुखाकृति देख नयना त्वरित रूप से उठती हैं, पलंग के समीप रखे कवर्ड पॉट को खोल कर आरुषि के मुख के निकट रखती हैं, आरुषि उसमें कै करती है, तब तक नयना उसके सिर और पीठ पर स्नेहिल हाथ फेरतीं हैं। उपरान्त, आवाज देतीं हैं -
नयना : सेविका, इधर आओ जरा!
सेविका : हाँ, मेडम जी (कहते हुए बाहर से कक्ष में प्रवेश करती है) .
नयना : (पॉट कवर करते हुये उसे देतीं हैं) यह लो तुम और बेटी को वॉशरूम तक जाने में मदद करो.
आरुषि, नयना के सहारे से पलंग के पास खड़ी होती है फिर सेविका जिसके हाथ में पॉट है के साथ कक्ष में लगे हुए वॉशरूम में जाती है। इधर
लता :  (कृतज्ञ भाव सहित) समधन जी, आप तो किसी माँ से बढ़कर, बहू की देखरेख कर रहीं हैं।
नयना : जीजी, ( लता उनसे बड़ी हैं) मेरी कोई बेटी नहीं थी, आपने मुझे एक सँस्कारित, गुणवान बेटी दे दी है। सब की दृष्टि में आरुषि हमारी बहू है, मगर मेरा हृदय जानता है, 'आरुषि, मेरी बेटी है'
लता सुन कर प्रसन्न दिखाई देतीं हैं। कुछ कहना चाहती हैं, तभी वॉशरूम से हाथ-मुहँ धो कर आरुषि वापिस आती दिखाई देती है। नयना आगे बढ़ कर उसे सहारा देते हुए वापिस बेड पर व्यवस्थित लेटने में सहायता करतीं हैं।
फिर और भी बातें उनमें होती है, जी शाँत हो जाने से अब आरुषि भी उसमें भाग लेती है।
--दृश्य 2 --
कल सुबह लता को वापिस जाना है। अभी रात के 10 बजे हैं। साहित्य एवं आरुषि अपने शयनकक्ष में जा चुके हैं। सेविका भी लगे हुए, सर्वेंट क्वार्टर में जा चुकी है। नयना के शयनकक्ष में, नयना और लता बेड पर ही बैठ बातें कर रहीं हैं।
लता : समधन जी, आप बहुत भली स्त्री हैं। आरुषि को बहुत स्नेह दुलार से रखतीं हैं। आरुषि के लिए, आपको और साहित्य को पाकर हमें लगता है हम अत्यंत सौभाग्यशाली हैं।
नयना : (मुस्कुराते हुए) जीजी, हम माँ'यें ही जानती हैं कि अपनी अनुकूलताओं से अधिक बच्चों की ख़ुशी में हमें हार्दिक सुख मिलता है।
लता : (हाँ मिलाते हुए) , जी वो तो है।
नयना : आरुषि और साहित्य को आप देखिये, उन्हें अपने जॉब में और घर के बाहर रहते हुए, उनकी मानसिक सुख-शाँति को कितनी चुनौतियों होतीं हैं।
लता : सही है, आपकी भलमनसाहत की तारीफ़ है, आप आरुषि का नाम ले रही हैं, साहित्य के पहले!
नयना : (अनसुना सा करते हुए, अपनी बात जारी रखती हैं) ऐसे में "हम माँ का कर्तव्य होता है कि उनकी मानसिक सुख-शाँति के लिए हम अपने किसी व्यवहार से चुनौती न बनें। हमारी पसंद-नापसंद उन पर लादने से उनकी कठिनाई ही बढ़ती हैं।" साहित्य के पापा से हमारा साथ भूतकाल हुआ है। हम भी अभी हैं कल नहीं होंगे। जबकि "आरुषि और साहित्य दोनों में साथ आज वर्तमान और कल भविष्य भी है। दोनों बच्चे एक दूसरे पर जान छिड़कते हैं, अत्यंत प्यार से रहते हैं। ऐसे में, मैं बहुत सतर्क रहती हूँ कि मुझे लेकर या मेरी किसी बात, व्यवहार को लेकर उनमें कोई मतभेद या धर्मसंकट की स्थिति निर्मित न हो।"
लता : (विचार करते हुए) जी!
नयना : (बाहर से उदासीन दिख रही हैं एवं स्वयं में तन्मय, तल्लीन हैं, मुहँ से अनायास ऐसे स्वर प्रस्फुटित हैं) अनंत (साहित्य के पापा) के जाने के बाद, अनुभव हुआ है कि "पति-पत्नी का साथ कितना महत्व रखता है। मेरे लिए आरुषि,साहित्य तो बच्चे हैं मगर वे आपस में पति-पत्नी हैं। मेरे शेष जीवन का सुख इन्हीं दोनों की ख़ुशी में है।" दुनिया वाले आरुषि को मेरी बहू कहें मगर मेरा हृदय उसे बेटी कहता है। "हम पर दायित्व होता है भली परंपरा देने का। एक पली बड़ी किसी और परिवार से हमारे घर आई, एक बेटी को हम अपने बेटे से कम प्यार नहीं दें तो कल वे भी अपनी संतान को ऐसा ही सिखाने को प्रेरित होंगे। और यही समाज में नारी दशा को सुधारने में सहायक भी होगा।"
यह सुन कर लता विचार को बाध्य होतीं हैं. फिर नयना-लता एक दूसरे से शुभ रात्रि कहतीं हैं। लता अतिथि कक्ष में जाती हैं। लता, सोने की चेष्टा करतीं हैं। 

अगली सुबह वापसी को रवाना हो जाती हैं।

--दृश्य 3 --
कुछ दिनों बाद आरुषि को अनुभा भाभी का वीडियो कॉल आता है, ज्यादा खुश दिखती हैं, भाभी कह रहीं हैं, 'आरुषि, मम्मी जी जब से तुम्हारे यहाँ से वापिस लौटीं हैं, बहुत बदली बदली अनुभव हो रहीं हैं'  ....    


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
15.11.2019






   



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