Friday, November 22, 2019

कि मैं मनुष्य बनने में असफल रहा हूँ

कि मैं मनुष्य बनने में असफल रहा हूँ ...

आरोपित सिर्फ अन्य को किया जाना सर्वथा अनुचित है. अगर मैं ईमानदार होता हूँ तो आरोप स्वयं पर भी रखता हूँ, कि मैंने इस समाज, इस देश के प्रति, क्या अपने कर्तव्य निभाये हैं? और मेरे आचरण एवं कर्म क्या एक महान देश की अपेक्षा की पूर्ति कर सकें हैं? 

देश और समाज बनाने के आदर्श को जीते हुए हमारे लोगों ने प्राण तक तजे हैं, देश ऐसे जज्बों से बनता है।
हमने उघाड़ उघाड़ अपने दर्द देखें हैं, दूसरों में खामियाँ देखीं हैं और फिर अपने गलत किये को भी सही ठहराया है।

स्वयं पर समालोचक दृष्टि रख मुझे स्वयं अपनी बुराई/कमियाँ और खूबी/अच्छाइयाँ परखनी होंगीं। फिर तराजू के दो पलड़ों में एक पर बुराई/कमियाँ और दूजे पर खूबी/अच्छाइयाँ रख उनकी तौल करनी होगी। फिर मैं क्या हूँ, उसे कहने से पहले मुझे, ऊपर काँटे को निहारना होगा कि वह किस तरफ जा रहा है। काँटा यदि खूबी/अच्छाइयाँ की तरफ जाता है तो यह कहने का मौका औरों को देना होगा और अगर यह बुराई/कमियाँ की तरफ जाता है तो ईमानदारी से मुझे स्वयं कहना होगा कि मैं मनुष्य बनने में असफल रहा हूँ ... 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
23.11.2019

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