#मेरा_बेलाग_खुलासा
आज समझ नहीं आता स्वयं पर हँसू या रो लूँ, मैं. ठंड के मौसम होते,रचना रसोई में जो बनातीं उस सब और 1 चटाई लेकर मैं सपरिवार ऊपर छत पर आ जाता. छोटे, भोले से अपने बच्चों को इसे पिकनिक पर आना बताता. अपने मूर्खता भरे इस काम को अच्छा ठहराने के लिए मैं रचना को यह कहता कि बच्चों के सामने लेविशली खर्च करने से वे घर परिवार के प्रति कम जिम्मेदार बनेंगे. मुझे रचना यह भान नहीं होने देतीं कि मेरी इस प्रकार की दलीलों से वे सहमत हैं भी या नहीं?
खैर जीवन तो चाहे जैसा बिताया जाए, कहलाता जीवन ही है. समय बीता और एक प्रश्न मेरे सामने खड़ा कर गया कि क्या मैं पापा और पति होने कि पात्रता रखता भी था या नहीं? मुझे लगता है बिना पात्रता के मैंने बहुत सी भूमिकायें निभाई हैं. और इस प्रकार आधे-अधूरे से अपने कंधों पर जिम्मेदारी लेकर परिवार और समाज के प्रति एक मानवीय अपेक्षा से न्याय कर सकने में मैं विफल रहा हूँ. सीख यह जो मुझे देर में मिली कि -
"गर जिम्मेदार नहीं, ना बनता मैं पापा
बच्चों का क्या दोष जो गोद मेरे आये थे"
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन22-01-2019
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