Tuesday, January 22, 2019

#मेरा_बेलाग_खुलासा

#मेरा_बेलाग_खुलासा

मैं बेवक़ूफ़ हूँ ज़िंदगी का क्रिकेट ,बिना विकेट कवर कर खेल रहा था. आशय यह कि बहुत सी बातों के बीच संतुलन बनाये हुए जीवन जीना होता है.जिसमें मैं विफल रहा हूँ.  मैंने इंजीनियरिंग की, आजीविका हेतु जनसेवा का विकल्प चुना. मैं 1 योग्य युवक माना गया. अवस्था जनित कुछ अनुभूतियाँ खुद में थीं. प्यार की कोपलें हृदय में तो पहले ही फूट चुकीं थीं, लेकिन इंजीनियरिंग कोर्स के दबाव में वे जीवन उमंगे दबी हुईं थीं. यथासमय  मेरा विवाह हुआ मैं भाग्यशाली इस तरह रहा कि विकल्प में उपलब्ध एक श्रेष्ठ लड़की का चयन कर लेने की बुध्दि मिली थी, साथ ही उस और से भी सहमति हुई थी. यहाँ तक तो सब ठीक था लेकिन विभागीय कार्य संस्कृति बहुत अच्छी नहीं थी. अगर आप शुध्द कर्तव्य निर्वहन में विश्वास रखते हैं तो आप पर कार्य के मानसिक दबाव इतने अधिक बनाये जाते हैं कि आप शाम को घर वापिस होने पर भी, तनाव मुक्त नहीं हो पाते हैं. आजीविका बनी रहे इस हेतु विभागीय कार्यों में इस कदर लिप्त हुआ कि परिवार माँ-पापा,  पत्नी , बच्चों और सभी के मनोविज्ञान तथा अपेक्षाओं पर विचार करने की फुरसत नहीं निकाली, साफ़ था कि जीवन असंतुलित तरह से चल रहा था. कुछ कर्तव्य अति सक्रियता से निभा रहा था किंतु पारिवारिक / सामाजिक दायित्व निर्वहन में सरासर विफल/निष्क्रिय सा रहा था. बाहरी वातावरण बहुत स्वस्थ तरह का नहीं लगा तो बेटियों को कोचिंग/ट्यूशन के लिए नहीं भेज हम दोनों ही गाइड किया करते थे. पत्नी को बच्चों के मनोविज्ञान का भलि-भाँति ज्ञान था वह तो अपनी भूमिका से पूरा न्याय करती लेकिन गणित और विज्ञान मिडिल तथा बाद की क्लासेज के लिए मेरे विषय हो गए. पहली पँक्ति में लिखा बेकवूफ होने की पुष्टि यहाँ करता हूँ कि तनावग्रसित दिमाग में यह समझने की योग्यता नहीं थी कि बच्चे की समझ और मेरे जैसे युवक की समझ में अंतर होता है, मैं समय अल्पता में इतना व्यग्र रहता कि यह समझने की चूक करता कि बच्चे (विशेषकर बड़ी बेटी) सरल सी चीज समझ क्यों नहीं रहे हैं. जबकि वह चीज मेरे जितनी सरल उनके लिए उस समय हो नहीं सकती थी. चिल्लाचौंट  इतना मचाता कि मेरे सामने बेटी डरी सहमी रहती थी.
खैर साहब एक बात अच्छी थी जिस तरह सूर्य की प्रखरता से किसी पौधे को झुलसने से बचाने के लिए कोई सरित प्रवाह उसे सिंचित रखता है उसी तरह मेरी प्रचंडता से बचाव हेतु बच्चों की 1 कुशल गृहिणी, सुगढ़ माँ (#माँ_महान) परिवार में मौजूद थी. साथ ही बच्चों को सदाशयता को प्रेरित करने के लिए और उनका उत्साह बढ़ाने के लिए दादा/दादी का मार्गदर्शन भी उपलब्ध था.  जिसने बच्चे रुपी नन्हें पौधों को मेरी उग्रता के ताप से झुलसने से बचाये रखा.
इस बीच मेरी बेवकूफियों में कुछ कमी आई मैंने यह रियलाइज किया कि तनाव ग्रसित दिमाग की अपेक्षा प्रसन्न चित्त दिमाग ज्यादा एफ्फिसिएंट परिणाम देते हैं. बच्चों के बड़े होते होते मैं उनसे मित्रवत हो गया. इस का सुखद परिणाम हमारे परिवार को मिला, जो बेटी स्कूल में अच्छा परफॉर्म नहीं कर सकी थी, उसने पोस्ट ग्रेजुएशन में स्वर्ण पदक प्राप्त किया.जाहिर है मैं मूर्ख था उनके बचपन में उन्हें वह शैक्षणिक उपलब्धियों को अर्जित करते देखना चाहता था , जिसे अर्जित करने में अपने लड़कपन में मैं स्वयं नाकामयाब रहा था.
बाद में स्व अनुभव से प्रेरित मैंने अपने विभागीय व्यवहार में भी अपने मातहत के साथ परिवर्तन ला लिया कि
"एक तनाव ग्रसित दिमाग की अपेक्षा प्रसन्न चित्त दिमाग ज्यादा एफ्फिसिएंट परिणाम  देता है"
देखना यह है जीवन में और तरह की मूर्खताओं का क्रम कब तक चलता है. अभी तो ऐसा प्रतीत होता है मूर्खताओं का आठ आजीवन रहने वाला है.

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
23-01-2019

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