मानसिक कुण्ठायें
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ग्लैमर पसंद इस युग में सिध्दांत , नैतिकता और न्यायप्रियता ताक पर रख छोड़ी गईं हैं. योग्यता से अधिक अति महवकांक्षाओं के शिकार हो सभी अधिक से अधिक ऐशो-आराम के सामान जुटाने के चक्कर में अति व्यस्त हो गए हैं। वासनापूर्ती की प्रधानता वैचारिकता पर हावी है। सभी प्रयास (भ्रष्ट और अनैतिक भी ) के बाद भी अर्जित धन ,ऐशो-आराम और वासनापूर्ती की अतृप्त पिपासा को मिटा नहीं पाता है। परिणामस्वरूप मानसिक कुण्ठाओं का बसेरा मनो मस्तिष्क में होता है।नारी को गरिमा प्रदान नहीं की जाती है। उसको फुसलाया जाता है। फिर नारी शोषण के नित नए किस्से देश को देकर इस पीढ़ी के लिखे जाने इतिहास को कलंकिंत कर रहे हैं। नारी को एक लज्जाजनक जीवन जीने की विषम परिस्थिति में ला छोड़ रहे हैं। तब भली बातें और अच्छे विचार के प्रति भी प्रतिक्रियायें गन्दी होती हैं। कुंठित मन अच्छे सन्देश ग्रहण नहीं कर पाता है।
कभी अनुकूलताओं का वह दौर भी लगातार चलता है। जिसमें अच्छी बातों को भी ध्यान में नहीं लाया जाता है। दोनों तरह के ( अति आशा और निराशा वादी ) भली बातें और अच्छे विचार के हास्य -उपहास में टालते हैं। ऐसा समझाने वाला या लिखने/कहने वाला के प्रति कोई आदर ना दिखाते हुए उस स्वस्थ -परोपकारी मना व्यक्ति की हँसी उड़ाई जाती है। हमारी संस्कृति की परम्पराओं से विपरीत अपसंस्कृति के प्रभाव में एक बेहद निकृष्ट सा जीवन जीकर उसमे अच्छाई और महानता दिखाना आज आम बात है।
फिर भी इस समाज और देश में ऐसे भले- परोपकारी ऑनेस्ट व्यक्तिओं की आवश्यकता रहेगी। जो ऐसा कर रहे हैं वास्तविक नायक वे ही हैं। उन्हें चुनौतियों/अनादर से घबराना नहीं चाहिये। ऐसे सभी महामनाओं को लेखक का नमन है।
--राजेश जैन
09-08-2014
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ग्लैमर पसंद इस युग में सिध्दांत , नैतिकता और न्यायप्रियता ताक पर रख छोड़ी गईं हैं. योग्यता से अधिक अति महवकांक्षाओं के शिकार हो सभी अधिक से अधिक ऐशो-आराम के सामान जुटाने के चक्कर में अति व्यस्त हो गए हैं। वासनापूर्ती की प्रधानता वैचारिकता पर हावी है। सभी प्रयास (भ्रष्ट और अनैतिक भी ) के बाद भी अर्जित धन ,ऐशो-आराम और वासनापूर्ती की अतृप्त पिपासा को मिटा नहीं पाता है। परिणामस्वरूप मानसिक कुण्ठाओं का बसेरा मनो मस्तिष्क में होता है।नारी को गरिमा प्रदान नहीं की जाती है। उसको फुसलाया जाता है। फिर नारी शोषण के नित नए किस्से देश को देकर इस पीढ़ी के लिखे जाने इतिहास को कलंकिंत कर रहे हैं। नारी को एक लज्जाजनक जीवन जीने की विषम परिस्थिति में ला छोड़ रहे हैं। तब भली बातें और अच्छे विचार के प्रति भी प्रतिक्रियायें गन्दी होती हैं। कुंठित मन अच्छे सन्देश ग्रहण नहीं कर पाता है।
कभी अनुकूलताओं का वह दौर भी लगातार चलता है। जिसमें अच्छी बातों को भी ध्यान में नहीं लाया जाता है। दोनों तरह के ( अति आशा और निराशा वादी ) भली बातें और अच्छे विचार के हास्य -उपहास में टालते हैं। ऐसा समझाने वाला या लिखने/कहने वाला के प्रति कोई आदर ना दिखाते हुए उस स्वस्थ -परोपकारी मना व्यक्ति की हँसी उड़ाई जाती है। हमारी संस्कृति की परम्पराओं से विपरीत अपसंस्कृति के प्रभाव में एक बेहद निकृष्ट सा जीवन जीकर उसमे अच्छाई और महानता दिखाना आज आम बात है।
फिर भी इस समाज और देश में ऐसे भले- परोपकारी ऑनेस्ट व्यक्तिओं की आवश्यकता रहेगी। जो ऐसा कर रहे हैं वास्तविक नायक वे ही हैं। उन्हें चुनौतियों/अनादर से घबराना नहीं चाहिये। ऐसे सभी महामनाओं को लेखक का नमन है।
--राजेश जैन
09-08-2014
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