कर्तव्यपालन
--------------
माता-पिता वृध्द हों. गंभीर स्थिति में उपचार के लिये अस्पताल में रहना हो और करने वाले पुत्र/पुत्री का परिवार छोटा हो. तब परिवार को एक साथ कई परेशानियों से दो चार होना पड़ता है.
1. अपने माता-पिता को गंभीर कष्टों में से जूझते /सहन करते देखना असहनीय होता है।
2. बहु-बेटे / (या पुत्री-दामाद- आजकल के परिवार में संतान सिर्फ पुत्री भी होती है) दोनों को अस्पताल और घर की व्यवस्था देखनी होती है। अगर ये भी प्रौढ़ावस्था में हों तो एक दूसरे पर आये भार का संतुलन इस तरह से बनाना होता है ताकि दोनों स्वस्थ बनें रहे। अन्यथा अनफिट हो जाने पर माता-पिता की सेवा कठिन बेहद हो जाती है।
3. पहले से इन स्थितियों को भाँप कर बचत कर रखी हो तो ठीक है , अन्यथा अत्यंत महँगे हो गये अस्पताल शुल्क / दवाओं पैथोलॉजी के खर्चे उठाना मुश्किल होता है। बचत भी एकाएक बढ़ जाती महंगाई में अपर्याप्त हो जाती है। इष्ट-मित्रो के सामने हाथ पसारने की स्थिति बनती है। कई मानसिक द्वंदों को झेलना कठिन चुनौती होती है। इन सब से करने वाले की सेवायें और स्वयं के स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित होता है।
4. परिवार का व्यवसाय / कार्यालीन सेवायें चौपट होती है। व्यय तो अतिरिक्त होते है। चलती आ रही आय का ठिकाना नहीं रह जाता है।
4. पहले रही पारिवारिक प्रसन्नता का बसेरा अचानक उठ जाता है। परिवार सिर्फ दुःख - चिताओं का समय देख रहा होता है
अब तक परिवार का जीवन मधुर, सरल/सुहावन और अनुकूलता में चलता रहा होता है। वे दृश्य ओझल होते हैं।अब हर कुछ जो हो रहा होता है ,एक से बढ़कर एक विपत्ति लाता है। अर्थात आशा कम , निराशा अधिक लाता है।
ये जीवन की वे चुनौतियाँ होती है , जब बीत रही होती हैं तो कोई पार ही नहीं लगता। लेकिन जीवन यथार्थ यह है सुख और दुःख दोनों के दिन स्थायी नहीं होते इसलिये इस विषमतम समय का भी पार आता है। जो कर्तव्य पालन करने का गहन आत्मिक सुख प्रदान करता है। जीवन में सुख और दुःख दोनों का महत्त्व होता है। इनसे समता भाव से जूझ लेना अच्छा जीवन सबक होता है। जो मानव में सज्जनता लाता है .कर्तव्यपालन की हिम्मत देता है। मानवता इस तरह पुष्ट होती है। ऐसे सज्जन लोगों से देश और समाज स्वस्थ रहता है।
--राजेश जैन
07-08-2014
--------------
माता-पिता वृध्द हों. गंभीर स्थिति में उपचार के लिये अस्पताल में रहना हो और करने वाले पुत्र/पुत्री का परिवार छोटा हो. तब परिवार को एक साथ कई परेशानियों से दो चार होना पड़ता है.
1. अपने माता-पिता को गंभीर कष्टों में से जूझते /सहन करते देखना असहनीय होता है।
2. बहु-बेटे / (या पुत्री-दामाद- आजकल के परिवार में संतान सिर्फ पुत्री भी होती है) दोनों को अस्पताल और घर की व्यवस्था देखनी होती है। अगर ये भी प्रौढ़ावस्था में हों तो एक दूसरे पर आये भार का संतुलन इस तरह से बनाना होता है ताकि दोनों स्वस्थ बनें रहे। अन्यथा अनफिट हो जाने पर माता-पिता की सेवा कठिन बेहद हो जाती है।
3. पहले से इन स्थितियों को भाँप कर बचत कर रखी हो तो ठीक है , अन्यथा अत्यंत महँगे हो गये अस्पताल शुल्क / दवाओं पैथोलॉजी के खर्चे उठाना मुश्किल होता है। बचत भी एकाएक बढ़ जाती महंगाई में अपर्याप्त हो जाती है। इष्ट-मित्रो के सामने हाथ पसारने की स्थिति बनती है। कई मानसिक द्वंदों को झेलना कठिन चुनौती होती है। इन सब से करने वाले की सेवायें और स्वयं के स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित होता है।
4. परिवार का व्यवसाय / कार्यालीन सेवायें चौपट होती है। व्यय तो अतिरिक्त होते है। चलती आ रही आय का ठिकाना नहीं रह जाता है।
4. पहले रही पारिवारिक प्रसन्नता का बसेरा अचानक उठ जाता है। परिवार सिर्फ दुःख - चिताओं का समय देख रहा होता है
अब तक परिवार का जीवन मधुर, सरल/सुहावन और अनुकूलता में चलता रहा होता है। वे दृश्य ओझल होते हैं।अब हर कुछ जो हो रहा होता है ,एक से बढ़कर एक विपत्ति लाता है। अर्थात आशा कम , निराशा अधिक लाता है।
ये जीवन की वे चुनौतियाँ होती है , जब बीत रही होती हैं तो कोई पार ही नहीं लगता। लेकिन जीवन यथार्थ यह है सुख और दुःख दोनों के दिन स्थायी नहीं होते इसलिये इस विषमतम समय का भी पार आता है। जो कर्तव्य पालन करने का गहन आत्मिक सुख प्रदान करता है। जीवन में सुख और दुःख दोनों का महत्त्व होता है। इनसे समता भाव से जूझ लेना अच्छा जीवन सबक होता है। जो मानव में सज्जनता लाता है .कर्तव्यपालन की हिम्मत देता है। मानवता इस तरह पुष्ट होती है। ऐसे सज्जन लोगों से देश और समाज स्वस्थ रहता है।
--राजेश जैन
07-08-2014
No comments:
Post a Comment