जीवन विचित्रता
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मनुष्य (अन्य प्राणी भी) , जन्म के बाद किसी का पाल्य होता है।फिर बड़ा होता है , अपनी संतति के जन्म में निमित्त बनता है। उसके पूर्व तक अपने बेटे -बेटी के बिना भी जीवन जी रहा होता है। तब बिना उनके भी सहज जी रहा होता था। लेकिन उनके जन्मने के बाद विशेषतः मनुष्य ( माँ-पिता) के प्राण बेटे -बेटी में बसने लगते हैं। जिनके बिना जीवन सहज चला करता था। अब उनके विछोह की कल्पना भी पीड़ा पहुँचाने लगती है।
चाहे /अनचाहे मनुष्य के जीवन में वह दिन भी आता है जब स्वयं संतान से या उसकी संतान उससे दूर जाती है। जीवन के आरंभिक पच्चीस -तीस वर्ष जिनका अस्तित्व ना होने से उस संतान के बिना सहज रहता था। जीवन में ही किसी समय से कुछ समय के साथ के उपरान्त बेटे -बेटी से विछोह असहनीय हो जाता है।
विचित्र है किन्तु जीवन चक्र होता ही ऐसा है इसलिये विचित्रता पर ध्यान नहीं जाता है। पहले भी अकेला था फिर अकेला हो जाता है। फिर रोना किस बात का होना चाहिए ?
संयोगों से जो उसके परिवार में जन्मे , मनुष्य उनके संस्कारित लालन -पालन करे. जिस से वे मानवता के रक्षक बन सकें। जो देश -दुनिया और समाज में दया -त्याग और सर्वसुख के लिए समर्पित भावना से स्वयं जीवन यापन कर अन्य को ऐसी सद्प्रेरणा दे सकें।
यह मानवीय दायित्व यदि हम निभा सकें तो अकेले होने की यथार्थ कटुता के बीच भी हम अपने जीवन में मधुरता की अनुभूति कर सकते हैं। इसे ही हम जीवन सार्थक करना भी कह सकते हैं।
राजेश जैन
27-08-2014
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मनुष्य (अन्य प्राणी भी) , जन्म के बाद किसी का पाल्य होता है।फिर बड़ा होता है , अपनी संतति के जन्म में निमित्त बनता है। उसके पूर्व तक अपने बेटे -बेटी के बिना भी जीवन जी रहा होता है। तब बिना उनके भी सहज जी रहा होता था। लेकिन उनके जन्मने के बाद विशेषतः मनुष्य ( माँ-पिता) के प्राण बेटे -बेटी में बसने लगते हैं। जिनके बिना जीवन सहज चला करता था। अब उनके विछोह की कल्पना भी पीड़ा पहुँचाने लगती है।
चाहे /अनचाहे मनुष्य के जीवन में वह दिन भी आता है जब स्वयं संतान से या उसकी संतान उससे दूर जाती है। जीवन के आरंभिक पच्चीस -तीस वर्ष जिनका अस्तित्व ना होने से उस संतान के बिना सहज रहता था। जीवन में ही किसी समय से कुछ समय के साथ के उपरान्त बेटे -बेटी से विछोह असहनीय हो जाता है।
विचित्र है किन्तु जीवन चक्र होता ही ऐसा है इसलिये विचित्रता पर ध्यान नहीं जाता है। पहले भी अकेला था फिर अकेला हो जाता है। फिर रोना किस बात का होना चाहिए ?
संयोगों से जो उसके परिवार में जन्मे , मनुष्य उनके संस्कारित लालन -पालन करे. जिस से वे मानवता के रक्षक बन सकें। जो देश -दुनिया और समाज में दया -त्याग और सर्वसुख के लिए समर्पित भावना से स्वयं जीवन यापन कर अन्य को ऐसी सद्प्रेरणा दे सकें।
यह मानवीय दायित्व यदि हम निभा सकें तो अकेले होने की यथार्थ कटुता के बीच भी हम अपने जीवन में मधुरता की अनुभूति कर सकते हैं। इसे ही हम जीवन सार्थक करना भी कह सकते हैं।
राजेश जैन
27-08-2014
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