Tuesday, July 16, 2019

दुराग्रह से दुष्प्रेरित

दुराग्रह से दुष्प्रेरित

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अपने संप्रदाय-/जाति-गत दुराग्रहों से दुष्प्रेरित  होकर लिखना/कहना हमें  कभी ऐसा लेखक/वक्ता नहीं बना सकता जो संप्रदाय/जाति/देश/समाज का भला कर सके या मानवता का प्रसार कर सके.
हाल ही में एक घटना हुई है जिसमें एक राजनीतिज्ञ जो जाति से ब्राह्मण संप्रदाय से हिंदू एवं वर्ण से उच्च माने जाते हैं, की बेटी ने घर से भाग कर कथित निम्न जाति/वर्ण के युवक से प्रेम विवाह कर लिया है। मीडिया/सोशल साइट्स पर इस घटना लेकर अपने अपने अनेक मत प्रकट किये जा रहे हैं। जहाँ तक मीडिया की बात है उसे सिर्फ अपनी टीआरपी से सरोकार होता है, देश या समाज हित क्या है जिसमें है उसके प्रति आजकल मीडिया के किसी प्रसारण में कोई गंभीरता दिखाई नहीं देती। इसलिए मीडिया को इस आलेख के दायरे से बाहर रखा जा रहा है। सोशल साइट्स जो जनसामान्य की अभिव्यक्ति का मंच है इस आलेख की विषयवस्तु है।
पिछले कुछ दिनों में जितना इस विषय पर फेसबुक में पढ़ने मिला है, उसमें मुख्य रूप से दुराग्रहों की प्रतीति ही दिखाई पड़ती है, कोई यहाँ जातिगत, कोई वर्णगत, कोई संप्रदायगत , कोई पुरुष प्रधानता से ग्रसित तो कोई राजनीतिगत दुराग्रहों से इस घटना की विवेचना और उस अनुसार अपना मत प्रकट कर रहा है। यहाँ आगे लिखने के पहले दुराग्रह क्या होते हैं समझना उचित होगा, लेखक की परिभाषा में-
" दुराग्रह सामान्यतः पूर्व की कोई ऐसी घटना से उत्पन्न हमारे मन के आग्रह होते हैं, जिसने हमारे हितों पर कुठाराघात किया होता है, जो बाद के हमारे हर कर्म/व्यवहार/अभिव्यक्ति एवं किसी  प्रतिक्रिया आदि पर हावी होते हैं।  किसी व्यक्ति या परिवार के प्रति हमारे आग्रह तो हमारे स्वयं के संबंधों के कारण होते हैं जबकि जातिगत,  वर्णगत,  संप्रदायगत या राजनीतिगत दुराग्रह हमारी पूर्व पीढ़ियों के साथ घटित कटु घटना के कारण होते हैं। "
हमारा व्यवहार आदर्श तो तब होता है जो हम पूर्वाग्रहों से मुक्त नज़रिये से करते हैं। और दुराग्रहों से मुक्त हमारे कर्म, आचरण या अभिव्यक्ति ही देश और समाज का भला कर सकते हैं। इसलिए हमारे दैनिक व्यवहार में आवश्यकता जातिगत,  वर्णगत,  संप्रदायगत या राजनीतिगत दुराग्रहों को भूलने की होती है। इन्हें याद करते हुए हमारे कार्य दुष्प्रेरित होकर (स्वयं हमारे सहित) सभी का अहित करते हैं।
इतना इशारा ही किसी समझदार के लिए काफी है। जिनकी बेटी घर से भाग कर शादी करती है ऐसे किसी माँ-बाप के मनःस्थिति को ना समझने की भूल हम कतई न करें । (नोट- बेटा नहीं लिखा क्योंकि किसी की बेटी को ले भागना हमारे समाज में उसे बदनाम नहीं करता अपितु कई जगह गैर संप्रदाय की लड़की को भगाने की मर्दानगी पर उसे ईनाम तक दिया जाता है). अतः इस आलेख के माध्यम से लेखक का आग्रह है कि हर कोई (ऐसी घटना का अपने परिवार में हो जाने की कल्पना करते हुए) अति आक्रामक प्रतिक्रिया या अभिव्यक्ति से बचे, क्योंकि दूसरों के बारे में मुहँ चलाना आसान होता है, और अपने बारी कहना तो क्या ऐसी स्थिति में हम किसी से नज़र तक मिलाने से बचते हैं . साथ ही ऐसी जातिगत,  वर्णगत,  संप्रदायगत या राजनीतिगत दुराग्रहों के नज़रिये से देखकर भी इस घटना पर अपना मत नहीं दें। पहले ही हमारे मन में बैर विष बहुत भरा पड़ा है। दुराग्रह दुष्प्रेरित हर शब्द इसे और बढ़ाने का कार्य करेंगे।
फेसबुक पर लेखक ने अपनी मित्र (एक समाजसेवी मोहतरमा) की ऐसी काव्य रचना भी पढ़ी, जिसका आरंभ इन पँक्तियों से होता है - 
"बहुत अच्छी लगती है
ये भागी हुई लड़कियाँ
उम्मीद की लौ होती है
ये भागी हुई लड़कियाँ"
लगता है उन्होंने इसे भावना अतिरेक में लिख दिया है। उन्होंने शायद भागी हुई लड़कियों का हश्र को अनदेखा किया है, जिसमें भगाने वाले उन्हें किसी को बेच देते हैं, या अपनी हवस मिटा उन्हें छोड़ देते हैं. ऐसी लड़कियाँ जिस्म व्यापार, बार में डांस और कुछ बीमारियों से ग्रसित हो फुटपाथ पर भीख तक माँगने को मजबूर होते देखी जाती हैं। 
अगर इससे बेहतर भी उनके कुछ होता है जैसे कि भगाने वाले उनसे शादी कर लेते हैं, तब भी ऐसी लड़कियों का प्यार का ताप (बुखार), मिले भिन्न परिवेश एवं  वक़्त के साथ ठंडा हो जाता है. तब उनका, अपने प्रेमी पति का साथ और ज़िंदगी की विपरीतताओं को निभाना कष्टदायी हो जाता है। अगर विवाह विच्छेद में भी हल ढूँढा जाता है तब भी पछ्तावों के अतिरिक्त उनके कुछ हाथ कुछ नहीं आता है। अतः अगर कोई लड़की 'प्यार के ताप' वशीभूत भी हो जाए तब भी बेहतर विकल्प तो यही है कि शादी के लिए वह अपने पेरेंट्स को सहमत करे। उन्हें ऐसा संबंध नापसंद भी अगर होता है तो कम से कम वे यह पुष्टि तो करते ही हैं कि जिन सुविधाओं, प्यार और आदर की उनकी बेटी को अब तक आदत है वह गैर-संप्रदाय या गैर-जाति में उसे मिलेगा भी या नहीं।
यह भी तथ्य है कि भागने वाली लड़की प्रायः कम उम्र की होती है, उसकी नज़र पर चढ़ा प्यार का चश्मा और उसका अल्प अनुभवी होने से उसे जीवन के कटु यथार्थ की कल्पना भी नहीं होती है। ऐसे में परिवार को राजी कर लेने पर हुए विवाह में कम से कम यह सुनिश्चित तो होता है कि आगे जीवन में उसे मायके का सहयोग और मानसिक संबल मिलता रहे। 
अतः अंत में यही लिखना उचित है कि किसी बेटी के घर से भागने को प्रेरित करते हुए ऐसी रचना हम कतई न करें। यह हमारी लेखनी के साथ ही साहित्य का भी सरासर अपमान ही है जो समाज हितकारी कदापि नहीं है। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 
17-07-2019






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