Friday, July 12, 2019

अपने क्यों होते हैं पराये

अपने क्यों होते हैं पराये
---------------------------

`दुनिया पराई होती ही है, ऐसे में अपने भी क्यों हो जाते हैं पराये?  आइये आज हम इस व्यापक घटना के कारणों को समझने की कोशिश करें। (आलेख में कुछ विज्ञान की टर्मिनोलॉजी का प्रयोग समझने के लिए आसान होगा है, अतएव आगे कुछ ऐसे शब्द आपको पढ़ने मिलेंगे।)

वास्तव में मानव मन में अन्य बातों के साथ में, एक बड़े हिस्से में भावनाओं का स्थान होता। और भावना का एक गुण उसमें ज्वलनशीलता का होना होता है।  मन के सामान्य तापमान में हमारे मन में भीतर विराजित भावना तब ज्वाला पकड़ लेती है जब हमारे आसपास किसी की ऐसी ही भावना से उसकी स्पर्धा होने लगती है। 8 अरब मानव सँख्या के इस विश्व में एक आध सैकड़ा हमारे अपने और कुछ सैकड़ा हमारे परिचित होते हैं। शेष हमारे लिए अजनबी से या पहले ही पराये से होते हैं। यहाँ वर्णित ये कुछ सैकड़ा/हजार मानवों का संपर्क हमारे जीवन में ज्यादातर वर्षों बना रहता है। इसलिए जो पहले ही पराये होते हैं उनके कम (या बिलकुल ही नहीं) संपर्क होने से हमारी और उनकी भावनाओं में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होने पाती है इसलिए वे हमारे मन के भीतर ज्वाला भड़काने में कम ही कारण बनते हैं। जबकि सबसे ज्यादा संबंध हमारा अपने रिश्तेदारों से और उससे कुछ कम हमारा पड़ोसी,सहकर्मी और अन्य परिचितों से रहता है। जिनके संपर्क में हम प्रायः रहते हैं उनमें कई कारणों से यथा - रूपवान, धनवान, बुध्दिमान, ख्यातिवान या उनका अनुकरण / प्रशंसागान आदि करने वालों के आधार पर हम स्वयं को उनसे हीन पाते हैं। ठीक उसी समय हमसे ऐसे श्रेष्ठ हमारे अपने/मित्र/परिचित हमें अपनी सफलता के बखान शाब्दिक रूप से या अपने हावभाव और आडंबर से हमारे समक्ष प्रदर्शित करने की भावना रखते हैं। यही वह समय होता है जब इस प्रतिस्पर्धा की हमारी और उनकी भावना में घर्षण (friction) उत्पन्न होता है और हमारे मन में ज्वाला धधकने लगती है। इसे ईर्ष्या अग्नि भी कहते हैं तथा इससे उत्पन्न तापमान हमें उनसे दूर छिटकाता है, जिनकी और हमारी भावनाओं के मध्य घर्षण हुआ होता है। यही छिटकाव ही 'हमारे जो अपने होते हैं उन्हें पराया बना देते हैं'। 

उपरोक्त विवेचना से हम कह सकते हैं कि हमने "अपने क्यों होते हैं पराये ?" इसका कारण तकरीबन वैज्ञानिक विधि से खोज लिया है। जब हमने किसी समस्या के कारणों को जान लिया है तो यह भी उचित होता है कि उसके समाधान का निर्णय भी हम करें। अतः थोड़े और शब्दों के जरिये यह लेखक इस हेतु आगे लिखता है कि -
'अपने न हो जायें पराये' इस हेतु हमें अपने मानसिक तापमान को सामान्य से कम रखना होता है ताकि भावनाओं में घर्षण और उसमें ज्वलनशीलता के विध्यमान गुण के कारण से चिंगारियाँ न उत्पन्न हों। मानसिक इस तापमान को सामान्य से कम रखने के लिए हमें अपने मन में विराजित "स्व-विवेक" को हर समय जागृत रखना होता है। हमारा विवेक ही हमें अपने पक्ष के साथ साथ अन्य के पक्ष का भी दर्शन कराता है। अन्य पक्ष के दर्शन से हमारा मन शाँत अर्थात ठंडा रहता है जिससे भावनाओं के घर्षण में अग्नि का स्तर हानिकारक स्तर तक नहीं पहुँचता है और 'हमारे अपने आजीवन हमारे अपने होते हैं'। 

इससे आपसी सहयोगी भावनायें पनपती हैं जो हमारी संयुक्त क्षमतायें तथा योग्यतायें, ज्यादा विकसित करने में सहायक होती हैं। इसे अन्य शब्दों में ऐसा लिख सकते हैं कि - दुनिया में इस तरह जब हमारे अपने ज्यादा रहते हैं तब हम किसी भी समस्या के प्रति उनकी बैकिंग होने से आश्वस्त रहते हुए अपने कर्म और व्यवहार रखते हैं। ये परिस्थितियाँ हमें तनाव रहित एवं चिंता रहित रखने में मददगार रहती हैं जो हमारी कार्यक्षमता में वृद्धि लाती है और हम संयुक्त रूप से सभी अपने ज्यादा सफल एवं ज्यादा आनंदमय जीवन और साथ का लाभ उठाकर अपने समय पर अंततः इस दुनिया से विदा लेते हैं। 

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 

13-07-2019

No comments:

Post a Comment