तीन तलाक एक साथ - कुप्रथा
अपनी सुरक्षा के नाम पर मर्द से नीची हैसियत में साथ को मंजूर कर लेने वाली ख्वातीनों ने ज़िंदगी को एक अभिशाप की तरह , "तीन तलाक एक साथ" कुप्रथा झेली है। इंसान के अनुभवों के साथ चलन , प्रथा , नियम , कानून या संविधान में संशोधन के नियम हैं। ख्वातीनों ने इससे जब अपने सम्मान को ठेस तथा ज़िंदगी बसर करने में लाचारी अनुभव की तो , वे पुरुष के विरुध्द अपने हक़ों के लिए लड़ने के लिए मजबूर हुईं हैं। आज "तीन तलाक एक साथ" ही नहीं और भी कुछ बीमार चलन जो जिंदगी को जिंदगी नहीं बचने देकर एक नारी जीवन को अभिशाप की तरह कर देते हैं के विरुध्द भुक्तभोगी महिलाओं ने साहस जुटा कर न्यायालयों में प्रकरण लाये हैं , उन्हें मानसिक रूप से सहयोग अन्य नारी एवं खुले ख्यालों वाले पुरुषों का भी मिला है। न्यायालय के फैसले नारी पक्ष में मिले हैं। सरकार भी संविधान में बदलाव ला देना चाहती है। जो बदलाव प्रस्तावित हैं , अनेकों को पर्याप्त या कमियों वाले लग रहे हैं। लेकिन कोई भी कानून हरेक की जैसी अपेक्षा है वैसी ही पूर्ति करने वाला नहीं हो सकता क्यूँकि सभी के कम ज्यादा जुदा जुदा विचार और अपेक्षायें हैं। इसलिए जिस भी स्वरूप में कानून आने वाला है , उसे मंजूर किया जाना चाहिए। यह नारी को पहले से कुछ ज्यादा हक़ देने वाला तो होगा ही। साथ ही यह आशा रखनी चाहिए कि इसमें जो कमियाँ आगामी समय में अनुभव की जायेंगी उन में संशोधन होते रहेंगे।
सदियों से पुरुष सत्ता से अपने हित साधने वाला पुरुष अपने अहं से समझौता कर पाने में धीरे धीरे सफल-सहज भी होता जाएगा और जल्द ही वह दिन भी आएगा जब नारी को संपूर्ण न्याय संगत आजादी मिलेंगी तथा वह इंसान की तरह समान ज़िंदगी के अवसर पाने में सफल होगी। मर्द - औरत में व्याप्त व्यर्थ अंतर से समाज में हो रहे टकराव की परिस्थितियाँ खत्म हो जायेंगी।
--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन 12-08-2018
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