Thursday, May 31, 2012

बड़े संघर्ष कि आवश्यकता

बड़े संघर्ष कि आवश्यकता

                                व्यस्तताओं के इस युग में हम ह्रदय के उस भाग तक ही उतर पाते हैं जो हिस्सा उथला होता  है.अपनी समस्याओं के समाधान वहां से खोजते हैं जिससे समाधान भी उथला ही होता है और असरकारी और लम्बी अवधि तक समस्याओं से निजात नहीं दिला पाता है.हम अपने साथी मानवों का मनोविज्ञान उसकी हमसे अपेक्षा और उसके दुःख-दर्द भी इन्ही उथले ह्रदय से समझते हैं और न्यायसंगत ढंग से अन्य से व्यवहार करने में असमर्थ होते हैं.हम समय निकालें तसल्ली रखें और फिर गंभीरता से अपनी या अन्य कि अपेक्षा और अपने दायित्वों पर विचार ह्रदय  के गहरे में उतर करें ,सागर सद्रश्य ह्रदय भी गहरा होता है और जिस तरह सागर कि तली में मोतियों के भंडार मिलते हैं उसी तरह ह्रदय के गहरे भाग में मानवता के बेशकीमती मोती मिलते हैं .जिनको व्यवहार में सजाने पर हमारा व्यवहार /आचरण   दर्शनीय और अनुकरणीय बन जाता है.हमें सब समस्याएँ अपनी सी लगती है और जब हम इन्हें अपना मान समाधान तलाशतें  हैं तो वह कल्याणकारी होता है.व्यस्तता के इस युग में भी दुनिया के शोरशराबे से दूर ह्रदय के अन्दर जा मंथन चलाने से प्राप्त अमृत जब हम और दूसरे उपयोग करेंगे तो चहुँ- ओर वातावरण कल्याणकारी ही बनेगा.
                             मैंने रसोई में कभी काम नहीं किया था ,मेरी पदस्थापना के स्थान पर जब मेरी पत्नी घर या मायके जातीं तब देखे आधार पर में खुद रसोई तैयार करने कि कोशिश करता चाय या खिचड़ी जो भी बनती वह बेस्वाद होती किसी को बताये वगैर खुद किसी तरह खा पेट भर लेता,पत्नी जब लौटतीं तो बतातीं कि बर्तन इस तरह जला दिए गएँ हैं कि साफ़ करने में दिनों लगेंगे.उन्होंने तब बताया कि बर्नर पर तेज आंच में पकाने से बर्तन तो जलता ही है और स्वाद भी अच्छा नहीं बनता पौष्टिकता भी कम मिलती है.तब मुझे समझ आया उतावली चीजों को बिगाडती  है.बर्नर पर कम और ज्यादा आंच के सेटिंग होती है अनुभव से आता है कि कब कम और ज्यादा इसे रखा जाना चाहिए 
                                  अनुभव का एक महत्त्व होता है , किशोरवय बच्चे और नवयुवा हर पीढ़ी में यह समझते आयें हैं कि बड़े तो पुराने ज़माने कि बताते हैं उनकी सलाह अनदेखी कर स्वछंदता से आधुनिकता के तर्क कर आचरण कर मनमानी करते हैं और अवसादों में बाद में ज़िदगी बसर करने विवश होते हैं पुराने   अंधविश्वास कुछ कुप्रथाएं और लोक व्यवहार अनुचित थे और आधुनिक दौर के कुछ साधन और तरीके अनुकरणीय हैं .अपने पूर्वाग्रह त्याग दोनों काल कि बुरी चीजें (पुरानी कुप्रथाएं ,अंधविश्वास और लोक व्यवहार और नई अति स्वछंदता ) अलग कर पुरानी अच्छाईयां  और आज कि उन्नत विज्ञानं सोच साधनों से अपना व्यक्तित्व और आचरण अलंकृत कर एक सर्वकालिक खुशहाल समाज के सपने को साकार कर आगामी संततियों को भव्य विरासत देनी चाहिए.
                              पिछले लेख में संघर्ष को वर्जनीय बताया था उससे उलट   आज मैं एक बड़े संघर्ष की आवश्यकता बताने जा रहा हूँ .जो संघर्ष वर्जित बताया गया था वह परस्पर दो व्यक्ति,दो समूह,दो पक्ष और व्यवस्था के खिलाफ जनता का था .जिस संघर्ष को मैं औचित्यपूर्ण मानता हूँ वह मानव ह्रदय के अन्दर ऐसा संघर्ष है जो मानव के निजी गुणों एवं अवगुण ( यदि कोई हों तो) के बीच होना चाहिए. ऐसे में गुणों से संघर्ष में कुछ अवगुण मिटते हैं तो मानव व्यवहार गुण प्रधानता से  होगा जिससे समाज में वातावरण सुधारने में सरलता होगी .चूँकि ऐसा संघर्ष प्रत्येक मानव ह्रदय में चलाने की आवश्यकता है अतः यह एक सबसे बड़ा संघर्ष होगा. हमारा समाज देवों का नहीं है ,अतः मनुष्य का आदर्शतम होना भी उनके समतुल्य तो नहीं बना पायेगा पर आदर्श के तरफ बढ़ते मनुष्य समाज का अंतर जानवरों के समाज से तो बढेगा . और मनुष्य व्यवहार में जो कभी कभी जानवरीयत  दिखती है वह ख़त्म होगी .
                              मैंने रसोई में बर्नर की आंच कब कम और कब अधिक होनी चाहिए इसको समझने की आवश्यकता पर बल इस कारण दिया है , क्योंकि  मनुष्य ह्रदय में भी मानसिक उर्जा एक तरह की ऊष्मा पैदा करती है यह ऊष्मा  जब ज्यादा तेज सेट होती है तो व्यवहार में   उग्रता ,क्रोध और अभिमान  दर्शित होती है और हमारा खुद का ह्रदय ही सबसे पहले झुलसता है यह अन्य के सम्मान और हितों को भी  झुलसाती है .यदि मानसिक उर्जा पर मनुष्य का उचित नियंत्रण होता है तो मद्धम -मद्धम ऊष्मा से हमारा ज्ञान परिपक्व होता है .और जब हम परिपक्वता से व्यवहार करते हैं तो सभी दिशा में सुगंध, शीतलता और प्रसन्नता की बयार फैलाते हैं . सब मानव ऐसा कर रहें हों तो सोचिये सामाजिक वातावरण कैसा बनेगा.
                             हम परलोक सुधारने की दिशा में जागरूक हैं लेकिन इस लोक में जिसमे हमें 80-100 वर्ष जीना है और हमारी सन्ततियां हजारों वर्ष आती जाएँगी तो इसे भी हमें क्यों नहीं सुधारना चाहिए .इस प्रयास में संचित होते हमारे पुण्य कर्म हमारा परलोक भी तो सुधारेंगे ही.
                              इस तरह हमारा लोक परलोक दोनों सुधरे यही है परम हार्दिक भावना


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