क्या हमारे दायित्व और कर्म होने चाहिए
जीवन में हमारे लक्ष्य बेहद सावधानी से तय किये जाने चाहिए जो हमारा तो
चाहा लाभ सुनिश्चित करे ही और मानवता का भी भला करे या कम से कम कोई नुक्सान
तो ना ही करे. कोई लक्ष्य हम निर्धारित करते हैं उस हेतु कुछ महीनों
/वर्षों लगातार उस दिशा में कार्य और प्रयास करते रहना होता है .लक्ष्य की
सफलता का कोई आकार या आकृति हमारे जेहन में हो सकती है. इस दिशा में हम
सक्रिय रहते है तब किसी दिन हमें अपनी सफलता पर शक होता है .हमें हताशा सी
लगती है जितनी जल्दी हो सके हमें इस से उबरना चाहिए .अगर उसी दिन संभव न हो
सके तो आशा की नई किरण लेकर आई अगली सुबह नए उत्साह से पुनः लक्ष्य
की दिशा में हमारे कर्म बढ़ाने में जुट जाना चाहिए. हमारी निरंतरता और
कर्मठता हमें हमारा लक्ष्य अवश्य दिलाती है .यद्यपि सफलता की आकृति/आकार हमारे अनुमान से कुछ अलग हो सकता है .
एक बैंक कर्मी रोज़ अपने हाथों /नज़र के सामने ग्राहकों से लेन देन तथा
खजाने में रखने निकालने के बीच करोड़ों रूपये देखता है .महीने भर में ऐसे
रूपये की मात्रा अरबों में हो जाती है.लेकिन उसे महीने के अंत में वेतन 1
लाख का मिलता है.क्या इस कर्मी को हताश होना चाहिए ,अरबों रूपये के लिए
उसके कर्म और समय देने के प्रतिफल में सिर्फ 1 लाख की प्राप्ति ? कर्मी
निराश नहीं होता पुनः अगले महीने और अपने retirement तक सिलसिला जारी रखता
है.
हमारे जीवन में ऐसे ही दुनिया में हम बहुत जलवे देखते हैं .हमें लगता है हम
बहुत थोडा ही इनमे से हासिल कर पा रहे हैं या दूसरे की तुलना में हमें
थोडा ही मिलता है.दुनिया के जलवे अरबों की भांति वे रूपये हैं जो बैंक
कर्मी को दैनिक कार्य के दौरान द्रष्टव्य होते हैं. हमें हमारे हिस्से में
आये जलवों से उसी तरह संतोष दिखाना है जिस तरह बैंक कर्मी अपने वेतन से
पाता है. यदि बैंक कर्मी कर्तव्यच्युत हो कोई हेरफेर करे तो उसे मानसिक
तनाव और भय होगा.यह हेरफेर अन्य की जानकारी में आ जाये तो उपहास या अपमान
उसे झेलना पड़ सकता है .यदि हेरफेर ज्यादा मात्रा में किया गया हो तो दंड
भुगतना पड़ सकता है और हिस्से में जो मासिक 1 लाख आते थे उससे भी हाथ धोना
पड़ सकता है.उसी प्रकार हमें जीवन में अपने हिस्से के जलवों से संतोष रखना होगा अन्यथा
हमारी भयग्रस्त /तनावपूर्ण मानसिक दशा हो सकती है .हमारी अनुचित कोशिश
हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा को नुकसानदायी हो सकते हैं,और जो आज हमारे सहज
जलवे है वे भी हाथ से निकल सकते हैं.
हमारे बड़े लक्ष्य जिसके लिए वर्षों हमें पुरुषार्थ करना होता है के दौरान
कई मौकों पर अपनी सफलता में संदेह होने से हमें हताशा हो सकती है .हताशा की
स्तिथि में अपना वह लक्ष्य छोड़ कोई अन्य लक्ष्य बना लें तो पिछले लक्ष्य
के पिछले प्रयास बिना प्रतिफल के व्यर्थ हो सकतें हैं. हमारा ऐसा स्वभाव
हमारी जबतब की हताशा में हमें नए लक्ष्य को मोड़ सकता है . ऐसी भूलभुलैय्या
में भटक समय गुजार देने पर एक ही बिंदु के आसपास रह जाने से हमारी कुल
उपलब्धि यही होगी की जिंदगी व्यतीत हो गई.
ज़िन्दगी की इन हताशाओं /निराशा में कमज़ोर ना पड़ उनसे ज़ल्द उबरते हुए अपने
लक्ष्य की दिशा में निरंतर दृढ कदम बढ़ाते जाना होता है.लक्ष्य की तरफ
संकल्पित प्रयास ज़िन्दगी व्यतीत करने के साथ हमारी सफलता को मूर्त रूप
प्रदान करती है.
बच्चे छोटे होते हैं अपने आसपास और घर में दूसरों को कुछ करते/बोलते देखते हैं.स्वमेव वैसा ही करने का प्रयास करते हैं और कुछ थोड़े और कुछ ज्यादा प्रयासों से सीखते जाते हैं. जैसे साईकिल चलाते अन्य को देख वह साईकिल की मांग करता है आने पर खुद के प्रयासों और हमारे सहयोग से चलाने में प्रवीणता प्राप्त कर लेता है.अभिप्राय यह है की बच्चे जो होता हुआ देखते हैं उसका अनुकरण करते हैं.ऐसे में हम परोपकार ,भलाई और अपने सद्कर्मों की मिसाल उनके समक्ष ना रखेंगे तो कैसे वे सीखेंगे . समाज के वर्तमान से परोपकार ,भलाई और सद्कर्मों की मिसाल विलुप्त होंगी तो क्या ये सिर्फ इतिहास की वस्तुएं ना रह जाएँगी . फिर समाज की सुरिक्षित ,शांति और खुशहाली की हमारी अपेक्षा के बदले क्या हमें और हमारी संतति को मिलेगा हम स्वयं सोच सकते हैं.
हम पुनः विचार करें की क्या हमारे दायित्व और कर्म होने चाहिए ..
बच्चे छोटे होते हैं अपने आसपास और घर में दूसरों को कुछ करते/बोलते देखते हैं.स्वमेव वैसा ही करने का प्रयास करते हैं और कुछ थोड़े और कुछ ज्यादा प्रयासों से सीखते जाते हैं. जैसे साईकिल चलाते अन्य को देख वह साईकिल की मांग करता है आने पर खुद के प्रयासों और हमारे सहयोग से चलाने में प्रवीणता प्राप्त कर लेता है.अभिप्राय यह है की बच्चे जो होता हुआ देखते हैं उसका अनुकरण करते हैं.ऐसे में हम परोपकार ,भलाई और अपने सद्कर्मों की मिसाल उनके समक्ष ना रखेंगे तो कैसे वे सीखेंगे . समाज के वर्तमान से परोपकार ,भलाई और सद्कर्मों की मिसाल विलुप्त होंगी तो क्या ये सिर्फ इतिहास की वस्तुएं ना रह जाएँगी . फिर समाज की सुरिक्षित ,शांति और खुशहाली की हमारी अपेक्षा के बदले क्या हमें और हमारी संतति को मिलेगा हम स्वयं सोच सकते हैं.
हम पुनः विचार करें की क्या हमारे दायित्व और कर्म होने चाहिए ..
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