क्यों है कन्या पक्ष हीन हैसियत में ?
उम्र होने और धनार्जन की समर्थता आ जाने पर मेरे विवाह की चर्चा आरम्भ हुई
थी.कुछ कन्या पक्ष से और उन्ही में से एक के प्रति हमारे पक्ष से रूचि
दर्शायी गयी .कन्या अपने माँ-पिता सहित भाई -बहनों में बहुत चहेती और लाडली थी .मुझे अपने मन में उसके प्रति सबसे ज्यादा आकर्षण अनुभव हुआ. घर में मेरी पसंद को सबने सहमत किया कन्या की माँ-पिता की भी इक्छा हुई और हम दोनों के परिवार ने सामाजिक रीत से अपनी मनोकामना अनुसार सहमत हो हमारा विवाह
संपन्न करा दिया.परिणीता बन ये मेरे से और हमारे परिवार से आ जुडी.विवाह के पूर्व हमारी कल्पनाओं अनुसार बाद के समय में हम एक-दूसरे की
शारीरिक ,मानसिक और अन्य सभी आवश्यकताओं को समझते उन्हें पूरे करने के यत्न
करते अपने परिवार की नैय्या साथ-साथ खेते अपने जीवनपथ पर अग्रसर हो चले
थे.बच्चे जब जन्मे तो एक अतिरिक्त बंधन उनके माध्यम से निर्मित हुआ जो हम दोनों को और मजबूत जोड़ में बांधता रहा .
मैं सोचता हूँ हम
दोनों के विवाह के पूर्व दोनों ही परिवार में पुरुष और नारी दोनों थे.दोनों
ही परिवार की अगली पीढ़ी के लिए कुछ बेटे और बेटियां नवयुगुलों में जन्म
लेते रहे.दोनों ही परिवार पूर्व में कभी कन्या पक्ष और कभी लड़के पक्ष हो कई
विवाह अवसरों में किसी किसी के सम्मुख आते रहे थे और आगे भी आते रहेंगे.ऐसे में मै अचंभित रहा कि हमारे समाज में विवाह के अवसर पर एवं विवाहोपरांत कन्या पक्ष का दर्जा लड़के पक्ष कि तुलना में क्यों हीन माना जाता है.हमारे उदहारण से ही समझे तो यदि मेरे पत्नी के मायके में यह जरुरत थी कि
उनकी बेटी विवाह योग्य हुयी है तो उसका विवाह किया जाना चाहिए.उसी समय मेरी
और मेरे परिवार कि भी यह आवश्यकता थी कि एक सुयोग्य बहु घर आ हमारे घर की
जिम्मेदारियों का प्रशिक्षण लेते हुए उचित समय में स्वयं जिम्मेदारी निभाने
लगे.मैं अपने परिवार से दूर रहने कहीं किसी अन्य परिवार में नहीं जा रहा था .लेकिन बड़े लाड -दुलार से पली और बड़ी हुयी अपनी बेटी को मेरे श्वसुर-सास
ने हजारों वर्ष से चल रही परंपरा अधीन दिल पर पत्थर रख रोते ह्रदय और
अश्रुपूर्ण नेत्रों से एक अजनबी परिवेश में भेजा. जबकि उनके मन में समस्त
आशंकाएं रहीं होंगी कि उनकी इस लाडली को अपेक्षित अपनत्व और यथोचित सम्मान
हमारे घर मिलेगा भी या नहीं .यह अपेक्षा कितनी बाद में पूरी हुई यह विषय
नहीं है.
उल्लेख इस बात का किया जाना है समस्त
आशंकाएं रहीं तब भी बेहद विशाल ह्रदय रख अपनी दुलारी बेटी को उन्होंने
अपने से दूर कर लिया था ,त्याग उनका महान था हमारे परिवार को पली बड़ी
पूर्ण युवती प्राप्त हुई थी ,उन्होंने कन्यादान किया था हमें दान हासिल था
.दान देने वाला बड़ा और ग्रहण करने वाला छोटा होता है .फिर इस विवाह में
हमारा ससुराल पक्ष हमसे हीन कैसे होता था ,यह रीत मुझे अजीब लगती है क्या
आपको लगती है ? या आपका परम्परावादी मन भले ही परम्परा स्थापित सिध्दातों
से विपरीत भी होने पर उसे बदलने का साहस नहीं करने कि सलाह देता है.
अगर ऐसा नहीं है और हमें लगता है कन्या पक्ष को भी समान समतल पर लाकर आगे के
लोक-व्यवहार होने चाहिए. तो कौन इसकी शुरुआत करेगा.कोई मानव दूसरे गृह से
आकर तो हमारी इस त्रुटिपूर्ण रीत को सुधारने में रूचि नहीं दिखायेगा .तो पहल किसने करनी होगी ,मुझे या मैं दूसरे का मुंह तकूँ, मेरी दूसरे से
अपेक्षा उचित नहीं होगी .मुझे ही यह पवित्र शुरुआत करने का साहस प्रदर्शित
करना होगा .हम सभी कभी बेटी पक्ष और कभी बेटा पक्ष होते हैं हम सभी का एक जैसा दायित्व इस सोच को बदल कर उचित व्यवहार करने का बनता है.अब क्या इस को बदलने का कोई मुहूर्त हमें निकालना होगा और उस तक इंतज़ार
करना चाहिए ? नहीं. आज से इसे आरम्भ कर देना चाहिए क्योंकि पवित्र उदेश्यों
से किये जाने वाले कर्म का कोई मुहूर्त नहीं होता.इसे जिस घड़ी सोचे तब ही
शुरू किया जाना मानवता के लिए कल्याणकारी होता है.
नारी, समाज में कई चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों से जूझती है बहुत कि चर्चा
अभी संभव नहीं है.पर विवाह आयोजनों से ही जुडी वधु पक्ष कि दयनीय स्थिति जो
दहेज़ की है के उल्लेख वगैर लेख /आव्हान अधूरा रह जायेगा . वर पक्ष वधु पक्ष से उनकी प्रिय बेटी तो हथियाता ही है पर इस दुःख से विकल
वधु पक्ष पर कई प्रकरणों में एक और ज़ुल्म करता है .अपने बेटे की गृहस्थी
बसाने के तर्क पर एक लम्बी सी फेहरिस्त वधु पक्ष के सामने रख लिस्ट में
उल्लेखित जेवरात ,गाड़ी ,सामान और नगद की मांग करता है .पीछे कारण शर्म
त्याग कर यह बताया जाता है की लड़के को योग्य बनाने के लिए उसकी पढाई पर
उन्हें बहुत व्यय कर देना पड़ा है.हम यहाँ अपने स्वयं से पूछे कि क्या हमने अपना बेटा कन्या वालों कि ख़ुशी के
लिए पढाया और योग्य किया होता है या इस बात में हमारी अपनी ख़ुशी और
महत्वाकांक्षा विद्यमान होती है? हमारी मानवीयता तब और सो जाती है जब हम कन्या पक्ष कि हैसियत से बढ़कर दहेज़
के लिए दबाव बनाते हैं. हम सामाजिक न्याय कि सीमाओं के अतिक्रमण कर बेशरमी
प्रदर्शित करते हैं.हमारी दूरदर्शिता को भी मोतियाबिंद लग जाता है जब हम ये भी देख नहीं पाते
कि जब हम कन्या पक्ष हुए हैं या आगे भी होंगे तो हमारी लाचारी का (बेटी के
विवाह संपन्न करने का) अन्यायपूर्ण शोषण लड़का पक्ष पहले कर चुका है आगे
फिर कर सकता है. हम वैसे तो भुला दी जाने लायक ख़राब छोटी सी बात स्मरण में रखे रहते हैं
लेकिन हैरत होती है इतनी बड़ी बात के लिए हमारी अल्प स्मरण -शक्ति देख कर .
हम मानव नहीं राक्षस बन जाते हैं जब अपनी भोग-विलास लिप्सा और भौतिक
महत्वाकांक्षाओं के वशीभूत जब कई तरह शपथ (सात फेरों के दौरान) उठाकर और
वधु पक्ष को बरगला कर (हम विवाह पूर्व यह उनसे कहते हैं कि बहु नहीं बेटी
तुल्य मानेगे आपकी बेटी को) उनसे कन्यादान करवा कर प्राप्त की गयी उनकी
प्राणप्रिया बेटी का अपनी दहेज़ लोलुपता में वध कर देतें हैं या उसे
आत्म-हत्या कर लेने को विवश कर देते हैं .वहां हम अपने घर में कई और वह
अबला अकेली होती है ऐसी वीरता क्या मानव करता है या दानव? हम जीवन के बहुतेरे स्वप्न लिए अपनी ही आश्रित एक कमज़ोर नारी का इस तरह अमूल्य मानव जीवन का असमय खात्मा कर देते हैं.
राक्षसी इस प्रवत्ति को बनाने वाली हमारी धन/सुविधा लोलुपता पर अपना मानसिक
नियंत्रण क्यों नहीं स्थापित करते ?क्यों हम सरासर धोखेवाज़ बनते हैं
धोखेवाजी से क्या बहुत हमें हासिल हो जाने वाला होता है क्या वह एक मानव के
जीवन से बढ़कर होता है ?
धोखेवाज़ मानव ही मानव समाज की शांति और खुशहाली का हनन करता है . हमें अपनी संतति को बेहतर सामाजिक वातावरण के लिए राक्षसी ऐसी हमारी प्रवृतियों पर काबू कर खुद परिवर्तन कर अन्य के समक्ष प्रेरणा स्त्रोत बन प्रस्तुत होना होगा.
धोखेवाज़ मानव ही मानव समाज की शांति और खुशहाली का हनन करता है . हमें अपनी संतति को बेहतर सामाजिक वातावरण के लिए राक्षसी ऐसी हमारी प्रवृतियों पर काबू कर खुद परिवर्तन कर अन्य के समक्ष प्रेरणा स्त्रोत बन प्रस्तुत होना होगा.
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