Wednesday, May 23, 2012

संघर्ष वर्जित

संघर्ष वर्जित

                                                       मनुष्य अपनी बुरी भावना एवं  बदनीयत के  वशीभूत कभी इतना दुष्ट हो जाता है कि दूसरे की जान लेने और उसे शारीरिक आघात  पंहुचा देने को उतारू होता है ,इज्जत और मर्यादा (नारी की) तार-तार करने में भी कोई शर्म अनुभव नहीं होती है  .ऐसे दुष्ट मनुष्य को इस नीयत से सामने पा विवशता में किसी को क्या करना चाहिए इसकी  कोई कारगर सलाह नहीं हो सकती ,प्रभावित जन के साथ क्या परिस्थिति है ,उसकी समझ उस समय कैसे काम कर रही है और उसके पास क्या शक्ति और साधन हैं उस अनुसार दुष्ट से बचाव में हर संभव उपाय करने ही चाहिए ,यहाँ संघर्ष तो बाध्यता है ऐसे संघर्ष न किये जाएँ ये स्वयं पर अन्याय ही होगा.मनुष्य मनुष्यवत ही व्यवहार करे सामाजिक वातावरण ऐसा होना चाहिए. इस हेतु उपरोक्त या ऐसी ही कुछ अपवाद-स्वरुप परिस्थिति को छोंड़े (जहाँ संघर्ष ही विकल्प होता है) , तो अन्य किसी भी समय संघर्ष के स्थान पर परिस्थिति को बौध्दिक चातुर्य से निपटाना बेहतर विकल्प होता है.
इस  हेतु हमें संघर्ष के विज्ञानं को समझना होगा एक छोटे द्रष्टान्त से तर्क वितर्क करें...
                                                  " राह चलते मुझसे गलती हुयी मेरा वाहन एक अन्य से जा टकराया उसको चोट एवं उसके वाहन को कुछ क्षति हुयी,इससे उग्र हो उसने मेरी कालर पकड़ी मेरी जूते और घूसों से पिटाई कर  डाली  ,अपराध बोध से मैंने वह अपमान सहन कर लिया उसने क्षति पूर्ती की राशि मुझसे रखवा ली तब उसने अपनी राह पकड़ी ,और व्यथित सा मैं रवाना हुआ."
                                                    दो  के बीच संघर्षपूर्ण स्थिति बनी वाहन-दुर्घटना में दोनों पीड़ित पक्ष थे उसे चोट और वाहन क्षति से और मुझे उसकी उग्रता से. इससे लाभ ये हुआ की मै सड़क पर ज्यादा सतर्क हो गया लेकिन इसका अप्रत्यक्ष नुकसान ये था  कि उसकी उग्रता एवं मेरे अपमान से आगे आने वाले ऐसे सारे अवसरों पर जब हम आमने सामने हो सकते थे उसमे हम कभी मित्रता अनुभव न कर सकेंगे और हो सकता है किसी परिस्थिति में आपसी सहयोग आवश्यक हुआ तो सहयोग शंकित रहेगा यानि  की एक स्थायी बैर का खतरा हो गया . उग्रता के कारण  उसके आक्रमण से मेरी  मानसिक ऊर्जा अपने बचाव मै लग गयी .घटना तो घटित हो चुकी  थी चोट की वेदना और वाहन क्षति तो हो गयी थी बल बौध्दिक लगाया होता ( मानसिक उर्जा का इस्तेमाल उग्रता के स्थान पर ) तो परिद्रश्य कुछ इस प्रकार  भिन्न हो सकता था .
                                                     उसके मनोभाव नियंत्रित रहते ,गलती का अहसास मुझे होता ,मैं उसे और उसके वाहन को खड़ा करने मै मदद करता ,चोट पर संवेदना दर्शाता उपचार हेतु अस्पताल ले जाता ,वाहन repair करवाता ,हार्दिक क्षमा याचना करता ,संघर्ष से बचाव में खर्च मेरी मानसिक ऊर्जा का इस तरह उपयोग से वातावरण सहयोग का बनता भविष्य में उसके साथ होने पर हम मित्रता अनुभव करते और जब भी आवश्यकता होता  हम आपसी सहयोग से मुश्किलें आसान करते  .
                                               समाज में जहाँ तहां दो लोगों में ,दो समूहों में ,दो पक्षों में छोटे तथा मध्यम और व्यवस्था   के खिलाफ जनता के विशाल  संघर्ष आम हो चले हैं. वैचारिक भिन्नता ,निहित स्वार्थ और अभिमान इसमें प्रमुखता से जिम्मेदार लगता है.इन संघर्षों में बाहुबल के प्रयोग  से एक दूसरे को दबाया जाता है.भ्रम से कोई विजेता माना  जाता है   ,विजेता दर्प में आता है जबकि हारा अपमान की ज्वाला में जलता है ,दोनों में वैमनष्यता स्थायी हो जाती है ,हारा छुप कर अथवा अपनी शक्ति बड़ाकर  प्रत्यक्ष/ अप्रत्यक्ष आघात भविष्य में पूर्व विजेता को देने का प्रयास कर कभी बाजी पलटने में सफल होता है अब विजेता और पराजित बदल जाता है और यह सिलसिला चल निकलता है दोनों पक्ष अन्दर से भयग्रस्त /असुरक्षित अनुभव करते हैं ,संघर्ष का ऐसा अस्तित्व समाज में होगा तो कैसे हम खुशहाली सुनिश्चित कर संकेंगे.वास्तव में जब हम बाहुबल का प्रयोग करते हैं तब हम बौध्दिक/मानसिक सामर्थ्य  को भूलते हैं मानसिक उर्जा का लापरवाह प्रयोग से गंवाते हैं.नकारात्मक  प्रयोग कर अपने को सकारात्मक सोच का धनी सिध्द करते में लगे होते हैं भ्रम रखते हैं खुशफहमी पाले होते हैं स्वयं और ओरों को सिर्फ हानि पहुंचा रहे होतें हैं .
                                              संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होने पर हम अधीर ना हों मानसिक सामर्थ्य का भली-भांति प्रयोग कर प्रारम्भिक लाभ का मोह छोड़ें शुरुआत में कुछ त्याग करें तो दीर्घकालिक लाभ में हो सकतें हैं शुरूआती हार कालांतर में जीत सिध्द हो सकती है .साथ के मानवों से समानता की मानसिकता रखें तो बौध्दिक चरमता सुनिश्चित होती है मनुष्य कम बलशाली होते हुए भी बलशाली और हिंसक जानवरों से अपना बचाव और समय समय पर उन्हें पराजित सिर्फ अपने मानसिक चातुर्य से कर पाया .जानवर वहीँ रह गए मनुष्य विकास के इस शिखर पर पंहुचने में सफल हो सका.
                                               इतना सब मानव ज्ञान,मानसिक सम्रध्दी और वैचारिकता से पा सके हैं .इतना बड़ा उदहारण समक्ष है पर हम ही अपना बौध्दिक बल की शक्ति भुला चूक करते हैं और विवेक की जगह कई बार शारीरिक शौर्य से अपने ही मानव भाई को जीतने और उन्हें चुनौती दे संघर्ष पैदा कर अशांति बढ़ाते हैं .फिर दरवाजे मजबूत, चारदीवारियां ऊँची करते हैं, कुत्ते पालते हैं और चौकीदार बैठा कर भी असुरक्षा बोध पाले रहते हैं. बाहर गया परिजन जब तक घर वापस न आ जाये उसका भयमिश्रित इंतजार करते नैन दरवाजे पर रखते हैं.
                                          क्या ऐसा नहीं लगता कि सामाजिक परिद्रश्य बदला जाना चाहिए ? थोडा ह्रदय बड़ा करें ,थोडा त्याग करें दूसरों को सम्मान दें .धैर्य रख वैचारिकता से समस्या का हल निकालें और सद्कर्मों के उदहारण समाज के सम्मुख स्वयं रखें,सच्चे नायक के तरह समाज के सम्मुख रहें . अच्छे और सच्चे का अनुकरण कर धीरे धीरे परिवर्तन आएंगे. रोग दीर्घकाल से रहा हो तो उपचार ज्यादा समय ले सकता है .उतावली नहीं करनी होगी. पूर्वज फलदार वृक्ष इस भावना से लगाते आये हैं की फल उनकी आगे की पीढ़ी को मिलेंगे . इस परिपाटी पर चल समाज में अच्छे फल आगामी संतति को मिलें इस हेतु अपना कुछ त्याग कर इसके बीज आज बोने चाहिए.

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