पितृत्व-मातृत्व कैसे अनुभव में अत है...
बचपन से अपने घर में स्थानीय किस्म के फल जैसे आम ,अमरुद ,सीताफल और अन्य
मौसमी फल टोकनियों से लाये जाते थे .तबसे ही में उन टोकनियों पर सबसे अच्छा
दिखने वाला फल पाने सबसे पहले लपकता था.मेरी यह आदत बन गयी थी.यह आदत उस
दिन टूटी जब मुझे पिता बने कुछ साल हुए थे.एक दिन ऐसी ही फल की टोकनी के
तरफ मेरे हाथ के साथ ,मेरी तरह ही बढ़ता मेरी बेटी का नन्हा हाथ मैंने
देखा.यह देख मेरा हाथ थम गया था.मेरी बेटी अच्छा सा फल ले अत्यंत प्रसन्न
थी.उसकी नन्ही सी यह ख़ुशी
देखने पर मेरी आदत हमेशा को हवन हो गयी .उस दिन आत्मिक
रूप से मेरे बच्चों के प्रति कर्त्तव्य का अहसास हुआ कि बच्चों की ख़ुशी
और उनकी जरुरत पूर्ति पिताओं का दायित्व है वे हमारे आश्रित ही पलते हैं.उस
दिन में यह सोच पाया कि मेरी माँ और पिता जब सामान घर लाते तो पहले खाना या
चुनना उन्होंने क्यों नहीं किया और क्यों ये मौका हम बच्चों को मिलता रहा
था.
पौराणिक कथाओं से आज तक पिता-माता के दुलार-त्याग की गाथाओं के उदाहरण और
दौर आज तक होते आ रहे हैं.मैंने बचपन से लेकर उस दिन तक ऐसी कई गाथाएँ पढ़ी
थीं.बेटी के जन्म पर भी कुछ पितृत्व बोध हुआ होगा लेकिन गंभीरता से पितृत्व
उस दिन वास्तविकता में समझ सका था. माता-पिता सिर्फ यही करते हैं ऐसा नहीं
ये तो मात्र बात रखने के लिए एक द्रष्टान्त है इस प्रकार के अनेक त्याग और
स्नेह और हितैषी होने के भाव ताजीवन मिलते हैं.मेरे पिता ने सिर्फ ऐसा
किया ये भी सत्य नहीं ,सभी के माता पिता ऐसे ही और इस से बढे त्याग भी करते
मिलेंगे.पढने से कुछ अनुभव होता है, लेकिन वास्तविक अनुभूति व्यस्तताओं की
आधुनिक शैली में कभी ही हो पाती है. आज के मशीनी तरह के मानव जीवन में
पिता और बच्चे कर्म एवं कर्त्तव्य भी ज्यादा भावुक,सोचे बिना करते हैं. मैं 33-34 वर्ष की उम्र में पितृत्व क्या होता समझ सका .यदि पहले
बचपन में अपनी कुशाग्रता से इसे समझ पाता तो शायद और अच्छा मानव बनता.
माता तो पिता से भी महान होती है .कथाओं में उनकी प्रशंसा के लिए शब्द कम
पड़ते देखे और सुने जाते हैं.लेकिन मातृत्व की इस तरह की यथार्थ अनुभूति
कोई नारी ही उचित रूप से वर्णन कर सकती है.अगर मैं यह प्रयास करू तो वह
सुना और देखा के आधार पर ही हो सकता है.
उक्त लेख का प्रयोजन कतई मेरे बच्चों को हमारे त्याग और दुलार के गुणगान
करने का नहीं है.पर प्रबुध्द मानवों एवं कल के लिए प्रबुध्दता प्राप्त करते आज
के बच्चों को इसके माध्यम से यह रेखांकित करना जरुर चाहता हूँ कि कैसे आपके
माता-पिता आपको बड़ा और योग्य बनाने में स्नेह,हितैषी और त्याग भावना वगैर
कहे चुपचाप जेहन में रखते हैं.अगर इसे थोड़ी भावुकता से हम समझ सकें तो
निश्चित ही हमारी मेहनत कर्म और आचरण ज्यादा जिम्मेदारी पूर्ण होंगे.हम
ज्यादा अच्छा प्रदर्शन अपने क्षेत्र में कर पाएंगे और हमारी उपलब्धियां भी
ज्यादा हो जायेंगी. आज के सामाजिक वातावरण में चहुँ ओर भौतिकता का बोलबाला दिखाई दे रहा है.हर
कोई ज्यादा दौलत बनाने या इस हेतु योग्य होने को प्रयत्नशील है.इसलिए
स्वार्थ प्रवत्ति दिनोंदिन बढती जा रही है . जो अप्रत्यक्ष रूप से खुशहाल
रहे समाज को क्षति पहुंचती है.
यदि हम पिता-माता के प्रति ज्यादा जिम्मेदारी अनुभव कर सके तो यह भी समझ
संकेंगे की क्या वे अपने बच्चों में देखना चाहते हैं.कोई भी माता-पिता जहाँ
बच्चों को दूसरों से पिछड़ता नहीं देखना चाहता वहीँ वह यह भी चाहते हैं की
उनका लाडला नशे से दूर रहे,खराब कर्म ना करे ,किसी विवाद या संघर्ष का
हिस्सा न बने और सबसे अधिक चरित्र अपना उच्च रखे.
माता पिता के अरमानों का लिहाज करता बच्चा जब स्कूल /कॉलेज या अपने कार्य
क्षेत्र में होता है तो इसका ख्याल कर व्यवहार और मेहनत कर ज्यादा नेक
मानव बन अपने माता-पिता से शाबाशी हासिल करता है.इस तरह यदि ज्यादा बच्चे
अच्छे मानव बनने की दिशा में बढ़ेंगे तो क्यों कर हमारा आगामी समाज अशांत और
असुरक्षित होगा.विज्ञानं द्वारा आविष्कृत नए नए साधनों और आत्मिक रूप से
ज्यादा अच्छे मनुष्य हो हम खुशहाली से पूर्ण समाज में खुशहाल जीवन व्यतीत
कर रहे होंगे. हमें क्यों यह गम तब रहेगा की बीता समय जैसी सज्जनता
,दयालुता त्याग भावना और उच्च चरित्र अब नहीं दिखता. अगर ये सब अच्छा हमें
लगता है तो हम इसे साकार कर दिखाएँ .
बहुत सी अच्छी बातें धर्मग्रंथों ,उच्च साहित्य में लिखी मिलतीं हैं आपको
जानकार हैरानी होगी कि जितनी लिखी जा सकी उससे कई गुनी अलिखित मनुष्य ह्रदय
में उनके अवसान के साथ चिता में समाती रहीं हैं.हर मनुष्य में अच्छाइयों
का भंडार होता है .अच्छाई वह सोचता है दैनिक जीवन में अन्य चुनौतियों से जूझता
उन्हें भूलता जाता है,नया उच्च विचार फिर उत्पन्न होता है कुछ दिनों में
उसे भी भूलता है.हम कोशिश करें कुछ वक़्त निकालें स्वयं लिखने का प्रयास
करें ,लिखते वक़्त आत्ममंथन होता है वैचारिकता उच्चतम शिखर पर होती है
मंथन से अमृत और विष प्रथक होते हैं.प्राप्त अमृत का हम स्वयं, औरों को भी
सेवन कराएँ .असर कुछ अरसे में परिलक्षित होगा हमारी संततियों के लिए
सामाजिक वातावरण खुशहाली का निर्मित होगा.
यही आज के प्रबुध्दजनों का सामाजिक दायित्व है जिसे हमें न्याय देना है.
No comments:
Post a Comment