Friday, April 16, 2021

 

शिखा ..

(द्वितीय भाग)

राशि ने, शिखा को जाते हुए तो देखा मगर उस पर विशेष ध्यान नहीं दिया था। वह सदा की भाँति मुस्कुराते हुए मेरे पास आई थी। मेरे कंधे पर सिर रख कर मुझसे मिली और पूछा - मेरे पापा, कैसे हो?

मैं राशि द्वारा, शिखा के देखे जाने की चिंता से स्वयं को अब तक उबार नहीं सका था। राशि के सहज व्यवहार ने, मुझे इसमें सहायता की थी। राशि का सिर चूँकि मेरे कंधे पर था। अतः वह मेरे मुख के असमंजस वाले भाव देख नहीं पाई थी। राशि की पीठ स्नेह से थपथपाते हुए मैंने उत्तर में प्रश्न किया - राशि, बिना बताए अचानक कैसे आई हो, सब ठीक तो है ना? 

राशि अब मेरे से अलग हुई थी। हँसते हुए बोली थी - पापा, आपको सरप्राइज देने के विचार से, मैंने अपने आने के बारे में बताया नहीं। 

फिर चुप होकर राशि मेरे मुख को निहारने लगी। मेरी स्थिति बड़ी ही विषम हो रही थी। मुझे सरप्राइज देने की कोशिश में, शिखा को मेरे साथ अकेले में देखना, स्वयं राशि के लिए सरप्राइज हो गया है। मुझे यह विचार परेशान कर रहा था। निश्चित ही मैं, परेशानी के ये भाव राशि से छुपा नहीं पाया था। 

मेरी बेटी ने शायद अपने पापा की विषम स्थिति के प्रति संवेदना अनुभव की थी। राशि ने जैसे मेरी मदद की हो उसने, मुझसे दृष्टि हटाते हुए, मेरे कुछ कहने की प्रतीक्षा नहीं की और कहा - 

पापा, मेरी एक फ्रेंड है उसे हुए डेंगू के खतरनाक हो जाने से, 3 दिन से यहां हॉस्पिटल में भर्ती है। मैं, उससे ही मिलने, उसे देखने आई हूँ। मेरे पास घर की अतिरिक्त चाबी है। अतः मैंने, आप घर पर होंगे या नहीं इसकी चिंता नहीं की। 

अब तक मैं अपनी मनः स्थिति ठीक कर सका था। मैंने उसका ट्रॉली बेग लिया और बेडरूम की तरफ बढ़ते हुए पूछा - अभी स्नान करोगी या भोजन करना पसंद करोगी। 

राशि ने कहा - हल्का शॉवर ले लेती हूँ। माँ यहाँ नहीं है पता होने से मैं, टिफिन घर से चलते हुए साथ लाई हूँ। वॉशरूम से आकर खा लेती हूँ। (फिर पूछा) आपने भोजन किया या नहीं?

राशि के प्रश्न सहज थे। चोर मेरे मन में था। मैं उसके सहज प्रश्नों से परेशान हो रहा था। दुविधा में यह नहीं बता पाया कि मैंने, शिखा के साथ भोजन कर लिया है। कुछ पल के विलंब से मैंने कहा - राशि, मैंने अभी ही भोजन किया है। 

तब राशि वॉशरूम में चली गई थी। मैं सोफे पर आकर ढ़ह गया था। सोच रहा था कि मैंने कुछ किया ही नहीं है। शिखा मेरे बुलाने पर तो आई नहीं थी। शिखा ने, भोजन भी अपनी इच्छा से बनाया और खिलाया-खाया था। इसमें कौन सी बुरी बात मैंने की थी कि मुझ पर, अपराध बोध यूँ हावी हो रहा था। मैंने धिक्कार ज्ञापित किया व्यर्थ की समाज मर्यादाओं  पर, जो पुरुष-स्त्री के सहज मिलने पर भी प्रश्न खड़ा करती हैं। राशि के वॉशरूम से आने के पहले मैंने तय कर लिया कि उसके द्वारा कुछ पूछते ही मैं, शिखा को लेकर सब सच कह दूँगा। 

राशि आई तो बेग से निकाला गया टिफ़िन उसके हाथ में था। मैंने कहा - राशि यह तुम अभी फ्रिज में रख दो। डिनर में इसे हम साथ खा लेंगे। अभी फ्रिज में रखा भोजन ले लो, तुम्हें खाना अच्छा लगेगा। 

राशि ने कहा - ठीक है पापा। 

फिर वह रसोई में गई थी। उसके, पीछे पीछे मैं भी था। राशि क्रॉकरी लेने-रखने, यूटिलिटी में गई थी। वहाँ सिंक में प्लेट्स आदि इतनी थीं जिनसे साफ था और इस बात की चुगली हो रही थी कि अभी ही, दो लोगों ने साथ भोजन किया है। फ्रिज में रखा भोजन भी, किसी कुक के हाथ का नहीं अपितु किसी गृहिणी के हाथ का बना लग रहा था। 

राशि ने अपने लिए उसमें से भोजन लिया और डाइनिंग टेबल पर आकर खाना शुरू किया था। मैं भी उसके सामने बैठ गया था। भोजन करते हुए राशि ने कहा - भोजन बहुत स्वादिष्ट है। 

तब मैंने फ्रिज से निकाल कर और कुछ सामग्री माइक्रोवेव में गर्म की थी। फिर राशि के लिए ले आया था। मैंने, राशि को स्नेह और आग्रह से ज्यादा खिला दिया था। 

इस सबके बीच मेरी बेटी ने, मेरा (अपने पापा का) मान एवं मुझ पर विश्वास बने रहने दिया था। राशि ने देखा तो बहुत कुछ था मगर प्रत्यक्ष में उस पर, कोई शंका या (गलत) प्रश्न नहीं किया था। यह मुझे पता नहीं कि उसके मन में क्या था। 

उसके भोजन कर लेने के बाद मैंने कॉफी बनाई थी। साथ कॉफी पीते हुए मैंने स्वतः ही शिखा को लेकर, हुआ सब सच बता दिया था। सुनकर सरलता से राशि ने इसे सच मान लिया और कहा - पापा, शिखा निश्चित ही अपने विरुद्ध कार्यवाही से डरी हुई है। आप कल उस पर से कार्यवाही की लटकाई तलवार हटा लेना। अनुशासन आवश्यक तो है मगर उसने जो किया है उतनी अनुशासनहीनता तो अब बहुत सामान्य बात हो गई है। 

मैंने सहमति में सर हिला दिया था। तब राशि अपनी फ्रेंड से मिलने गई थी एवं मिलकर वापस आई थी। उसकी फ्रेंड की हालत में अब काफी सुधार हो गया था। अगली सुबह राशि चली गई थी। उस दिन मैं, अपनी उत्सुकता सहित ऑफिस गया था कि अनुशासनात्मक कार्यवाही से बचने के लिए शिखा, मुझसे किन शब्दों में प्रार्थना करती है। हालांकि मैं, उस के द्वारा दिए किसी भी स्पष्टीकरण को अनदेखा कर, शिखा पर कोई कार्यवाही ना करने का मन बना चुका था। 

शिखा जब अगले तीन घंटे, स्वयं मेरे कक्ष में नहीं आई तो मैंने ही उसे बुलवाया था। वह कल वाली दयनीय स्थिति में नहीं लग रही थी। आज उसके मुख पर आत्मविश्वास झलक रहा था। मैंने, उसे बैठने कहा तो वह सामने बैठ गई थी। फिर मेरे पूछने के पहले ही बोलने लगी - 

सर, कल आपके घर आना मेरे लिए नए तरह का अनुभव रहा है। जिससे मैं सच कहूँ तो मुझे, आपसे प्यार हो गया है। कल मैं, अपने पर कार्यवाही नहीं करने की याचना लिए आप के घर आई थी। आज मुझे इसका विचार नहीं है। मैंने आपको अत्यंत जिम्मेदार तरह का व्यक्ति पाया है। आज मैंने अपना स्पष्टीकरण, गोपनीय लिफाफे में जमा कर दिया है। आप मुझ पर जो भी कार्यवाही करेंगे वह मुझे स्वीकार होगी। मैं आपके कर्तव्य निर्वहन में कोई अड़चन नहीं होना चाहती हूँ। यह, मैं, आपने बुलाया है तो ही कह रही हूँ। अन्यथा लिखित में दिए स्पष्टीकरण के अतिरिक्त मुझे अलिखित कुछ नहीं कहना था। 

मैंने ध्यान से उसके एक एक शब्द सुने फिर कहा - ठीक है मैं, आप का रिप्लाई देख लूंगा। आप अपनी सीट पर जाकर बेखटके अपने कार्य कीजिए। 

शिखा चली गई थी। मैं अपने काम में लग गया था। अपने काम के बीच में ही ईआरपी में मैंने, शिखा की सर्विस प्रोफाइल देखी थी। वह 28 वर्ष से विभागीय सेवा में थी। वह दिखने में जितनी दिखती थी उससे कहीं बड़ी, 50 वर्ष की उम्र की थी। यह मेरे अचरज का विषय था। 

शाम को मैंने डॉक् पैड में से उसका जमा किया गोपनीय लिफाफा खोल कर, उसकी रिप्लाई पढ़ी थी। शिखा ने अपनी गलती लिख कर स्वीकार की थी। लिखा था कि उसे, अगले दिन दौरे पर जाने वाले अपने पति की सेवा में लग जाना पड़ा था। इस कारण पिछले दिन उसे रुचिकर, एक वेब सीरीज के अंतिम चार मिनट का भाग देखना शेष रह गया था। क्या हुआ है अंत, इसकी उत्सुकता होने से उसने मोबाइल नेट पर उतना भाग, कार्यालय में देख लिया था। जिस सहकर्मी ने उसकी  शिकायत मुझ से की है शिखा ने, उसके, उसे लेकर ख़राब मंसूबे पूरे नहीं होने दिए थे। इस कारण वह शिखा से चिढ़ रखता है। फिर भी जो भी रहा हो, यह लिखकर शिखा ने, मेरे आदेश का उल्लंघन करने की अपनी गलती मानी थी। उसने लिखा कि इस कार्यालय में कार्य एवं अनुशासन मुझ पर जिम्मेदारी होती है। मैं जो उचित समझूँ, उसके विरुद्ध वह कार्यवाही करूं। इसी में आगे उसने निवेदन किया कि मैं उसे इस कार्यालय से ट्रांसफर करदूँ ताकि उसको, परेशान करने वाले सहकर्मी से पीछा छूट सके। वह दूर रहकर अपना विभागीय काम कर सके। 

मैंने अगले दिन अपने अधीनस्थ एक मैदानी कार्यालय में, शिखा के स्थानांतरण का आदेश जारी कर दिया था। मैंने, शिखा पर अन्य कोई कार्यवाही नहीं की थी। फिर उसी शाम शिखा को अपने कार्यालय से कार्य मुक्त कर दिया था। मेरे मातहत ने इसे शिखा पर, उसकी अनुशासन भंग करने की कार्यवाही जैसा माना था। शिखा, पिछले दस वर्षों से इसी कार्यालय में कार्यरत थी। अतः उसके सहकर्मियों ने शाम के समय पार्टी करके उसे भावभीनी विदाई दी थी। 

उस शाम मैंने अपने कक्ष में शिखा से कहा था - शिखा, अगले अवकाश पर हो सके तो कष्ट करके आप, पुनः अपने हाथ का भोजन खिलवाइये तो मुझे प्रसन्नता होगी। 

शिखा ने अपने मुख पर कोई भाव नहीं आने दिए थे। सिर्फ कहा था - सर, आपको पता नहीं कि मेरा फ्लैट भी आपकी सोसाइटी में अन्य टॉवर में है। मुझे कोई कष्ट नहीं होगा। मैं रविवार 11 बजे आकर आपकी यह इच्छा पूरी कर दूंगी। यह करने में मुझे भी प्रसन्नता होगी। 

अब शिखा मेरे कार्यालय में नहीं थी। मुझे “कुछ कुछ” हुआ था। जिसके कारण अगले चार दिन में कोई विशेष काम नहीं होते हुए भी मैं, उस मैदानी कार्यालय में गया था जो मेरे कार्यालय से चार किमी दूर था। जिसमें अब शिखा कार्यरत हुई थी। अपनी सेवानिवृत्ति की उम्र में, मुझमें आ रहा यह परिवर्तन, समाज मर्यादा अनुरूप नहीं था। 

शनिवार रात मेरा ध्यान सिर्फ शिखा पर केंद्रित था। मुझे शिखा को लेकर जो “कुछ कुछ” हुआ था उसे “प्यार” निरूपित करना ही उचित शब्द था। ऐसा क्यों हुआ, इसका कारण मैंने अपने मन में टटोला था। मुझे कारण, दो मिले थे। एक उसका पाँच मिनट तक मेरे दरवाजे पर खड़े रहना। दूसरा, शिखा के द्वारा अपनी कही बात में, मुझसे प्यार होना कहा जाना।  

सच लिखूँ तो उस रात अगले तीन घंटे मुझे नींद नहीं आई थी। जीवन में पहली बार मुझे किसी लड़की से प्यार होने की (पत्नी से तो मेरी पत्नी रूप होने पर हुई थी) अनुभूति हुई थी। मैं शिखा को लेकर रोमांटिक ख्यालों में खो गया था। मुझे वह सच लगा जो कहा जाता है ‘प्यार दिन का चैन और रातों की नींद उड़ा देता है’। 

कुक को इस रविवार की छुट्टी देना मैंने, शनिवार को बता दिया था। अगली सुबह से ही मैं उस घड़ी का अधीर होकर प्रतीक्षा कर रहा था जब शिखा आए। 

मैं नहीं चाहता था, मगर ना जाने क्यों, हाउस हेल्प आज ज्यादा तल्लीनता से घर की सफाई कर रही थी। मैं उस दिन यह चाहता था कि वह जल्दी जाए ताकि जब शिखा आए तो हम दोनों के अतिरिक्त घर में कोई ना हो। 

इसे ही मर्फीज़ लॉ (Anything that can go wrong will go wrong)  कहा जाता है - अर्थात रोज जो होता है, हमारे चाहे जाने वाले दिन वैसा नहीं होता है। तब मुझे, प्रतीक्षा दो बातों की थी  कि कब मेड, काम करके जाए और उसके जाने के बाद कब शिखा आए।यह दोनों ही बातें एक साथ हुई थी। हाउस हेल्प, काम करके दरवाजे से निकल रही थी तभी शिखा दरवाजे पर आई थी। मेड ने मेरे ना चाहने पर, शिखा का मेरे घर आना देख लिया था।    

(क्रमशः)

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

16-04-2021


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