Sunday, April 18, 2021

शिखा ..

 

शिखा ..

(तृतीय भाग)

हाउस हेल्प ने शिखा को पहचान ली जाने की दृष्टि से देखा था। उसने, पीछे पलट कर मुझे भी भेद पूर्ण दृष्टि से देखा था। फिर चली गई थी। 

मेड के देखे जाने से मुझे, फिक्र स्वयं को लेकर नहीं थी। मैं तो पुरुष हूँ। मुझे परवाह शिखा की थी कि वह सोसाइटी की बकवाद की लक्ष्य ना बन जाए। हमारा समाज स्त्री को लेकर संवेदनहीन है। शिखा है तो 50 वर्षीया प्रौढ़ महिला लेकिन अपने रस लेने के लिए समाज, उसे भी लक्ष्य बना ही लेगा। मैं इस हो रहे घटना क्रम में कुछ कर नहीं सकता था। 

फिर मुझे ध्यान आया कि शिखा, आज मेरे बुलाने पर आई है। सुध बुध में लौट मैंने, हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए कहा - आइए शिखा जी, स्वागत है आपका। 

शिखा ने ‘जी’ शब्द पर गौर किया था। मेरी अधीनस्थ कर्मी उसे, मुझ से अपने लिए ऐसा आदर अप्रत्याशित था। 

इससे “कुछ कुछ” शिखा को समझ आया था। मगर अनभिज्ञ बनते हुए उसने कहा - सर, मैं आपकी कृतज्ञ हूँ। आपने मुझ पर अनुग्रह किया है। मेरा ट्रांसफर भी किया एवं मेरे विरुद्ध कार्यवाही नहीं की है। 

मैंने कहा - चलो अब भूल भी जाओ इसे। अच्छा हुआ कि आपने अनुशासन की अवहेलना की थी अन्यथा मुझे, आप का बनाया भोजन कहाँ खाने मिलता। 

उत्तर में उसने हँस बस दिया था। वह रसोई की तरफ बढ़ी थी। पीछे मैंने, जाली वाला दरवाजा बंद किया और उसके पीछे हो लिया था। 

मैंने कहा शिखा जी - आप कोई कुक नहीं कि आकर सीधे रसोई में काम करने लगें। आप मेरी आमंत्रित अतिथि हैं। पहले मैं, आपके लिए कॉफी बनाता हूँ। हम, साथ कॉफी पीते हुए गपशप करते हैं। उसके बाद आप भोजन तैयार करना, तब मैं आप की सहायता करूंगा। 

शिखा ने उत्तर में कहा - सर, हम साथ खाना खाते हुए गपशप कर लेंगे। अलग से इस हेतु बैठेंगे तो समय अधिक लगेगा। मेरे पतिदेव जो 8 दिनों से दौरे पर गए हैं वे, चार बजे लौट आने वाले हैं। मुझे उनके इतने दिन बाद लौटने पर संध्या के लिए कुछ विशेष बनाना होगा। अतः मैं घर जल्दी लौटना चाहूंगी। 

इस पर, मेरी अंदरूनी प्रतिक्रिया स्वयं मेरे लिए अपरिचित थी। मुझे, हम दोनों के बीच, शिखा के पति नाम के प्राणी की चर्चा, ‘दाल भात में मूसलचंद’ जैसी लगी थी। 

मैंने स्वयं अपने को समझाया कि ‘यार तू दादा बन चुका बूढ़ा आदमी’ यूँ नवयुवा जैसा नहीं चिढ़। शिखा को तुझसे और तुझे शिखा से प्यार हुआ भी है तो उसे दोनों की प्रौढ़ उम्र के प्रेम जैसा निभा। शिखा के पति नाम से चिढ़ने वाला तू, तेरे तीन बच्चे की माँ, तेरी भी एक पत्नी है, तू यह क्यों भूलता है? 

इस बीच शिखा भोजन बनाने की सामग्री एवं बर्तन देखने लगी थी। मेरी चुप्पी अनुभव कर उसने, बिना मुझे देखे पूछा - क्या सोचने लगे, सर?

शिखा को देखकर मुझे अच्छा लगा कि वह मुझे नहीं देख रही थी। वर्ना मेरे मन के चोर को मेरे मुख के भाव से भांप जाती। मैंने कहा - शिखा आप संकोच में रह गईं। मुझे यह पहले बता देतीं तो आज आपको, मैं यूँ कष्ट नहीं देता। 

शिखा ने कहा - कोई नहीं सर, मुझे अपने लिए भी भोजन बनाना तो था ही। साथ आपके लिए भी बन जाए तो मेरे लिए आनंद अनुभूति ही है। आपके दिए सहारे से आपकी ऋणी मैं, थोड़ा तो ऋण उतारूं, आपका।  

मैं, अब शिखा के प्रेमी से, वापस जिम्मेदार प्रौढ़ व्यक्ति बन गया था। मैंने उसके कृतज्ञ भाव की किसी नीच व्यक्ति की तरह कीमत वसूलने की कोशिश नहीं की। कोई अन्य शायद इतनी बात पर उसे बाँहों में ले लेता, चाहे इससे शिखा का उस पर किया विश्वास उठ जाता। 

मुझमें विवेक बोध था। अपने अधिकार के प्रयोग से एक सामान्य विभागीय प्रक्रिया के माध्यम से मैंने, शिखा को अपना कुछ नहीं दिया है, यह समझता था। वह मेरी ऋणी होना अनुभव करे, मैं ऐसी कोई बात नहीं देख रहा था। सब सोचते हुए मैंने कहा - यदि आपको परेशानी ना लगे तो मैं, खाना बनाने में आपकी हेल्प करूं। इसके लिए मुझे, यहीं आपके साथ रहना होगा। 

शिखा ने कहा - 

सर मुझे, आपसे कोई खतरा नहीं है। मैंने पिछली बार ही यह अनुभव कर लिया था जब आपने, घर में अकेले होने पर, मुझे घर में घुसने नहीं दिया था। फिर मेरे घर में आ जाने पर बाहरी दरवाजा, खुला रखा था। मेरे रहते तक किचन में नहीं आए थे। आपके इस मर्यादित व्यवहार ने ही मेरे मन में आपके लिए श्रद्धा एवं प्यार पैदा कर दिया था। अगले दिन इसे, मैंने ऑफिस में कह कर बता भी दिया था। मैं जानती हूँ कि आप मेरी इस श्रद्धा एवं प्रेम को, अपनी और मेरी गरिमा का ध्यान रख निभाएंगे। 

स्पष्ट है शिखा ने मेरे और अपने बीच मर्यादा की लक्ष्मण रेखा खींची हुई थी। अगर मैं, टुच्चई से इसे पार करने का, अनाधिकृत प्रयास करता तो, शिखा का मेरे प्रति प्रेम भस्म हो जाता। 

अब मुझे यह भी स्मरण आया कि उस दिन राशि आई थी। राशि ने मेरे पिता होने के मान को बनाए रखते हुए, शिखा को देख कर भी मुझ पर संदेह करने वाली कोई बात नहीं कही/पूछी थी। राशि से, किसी अपने का आदर कैसे रखा जाना चाहिए यह अनुकरणीय बात सीख कर, मुझे, शिखा की गरिमा एवं मान बनाए रखना था। 

शिखा ने भोजन तैयार करना आरंभ कर दिया था। मेरे पर दृष्टि डालते हुए मुझे चुप देखकर कहा - सर, आप बीच बीच में कहीं खो जाते हैं, क्या?

मैंने बात बनाते हुए कहा - आप सिर्फ भोजन ही अच्छा नहीं बनाती अपितु इतना अच्छा अच्छा बोलती भी हैं कि मुझे, आपके हर शब्द की प्रशंसा करने का मन होता है। मैं कहता नहीं हूँ, मन ही मन प्रशंसा करने लगता हूँ अतः कभी चुप हो जाता हूँ। 

शिखा हँसी थी। फिर कहा - आप एक फाइबर चेयर लेकर यहीं बैठ जाएं। मुझे अपने परिवार के बारे में बताएं। काम करते हुए मैं अभी सब सुनना चाहती हूँ। 

मैंने कहा - हाँ यह ठीक रहेगा। 

फिर मैं एक चेयर लाकर बैठ गया था। शिखा ने अब पूछा - सर, पिछली बार मैं जब जा रही थी तो एक लड़की आई थी वह आपकी बेटी है क्या, उसकी शक्ल आपसे मिलती है। 

मैंने कहा - हाँ, शिखा जी, वह मेरी छोटी बेटी राशि है। 

शिखा ने पूछा - पिछली बार, मुझे घर से निकलते देख कर राशि ने, हम पर कोई संदेह तो नहीं किया। 

मैंने कहा - शिखा जी, उसने जन्म से अब तक मुझे एक जिम्मेदार पापा देखा है। वह मुझ पर अविश्वास नहीं करती है। उस दिन अगर उसे संदेह भी हुआ होगा तो वह अपने पापा का मान रखना जानती है। बिना ठोस आधार के वह कोई हल्की बात नहीं कर सकती। उसने उस दिन मुझसे कुछ नहीं पूछा था। मैंने ही अपनी ओर से सब बताया था। उसके मन में तब आपको लेकर संवेदना थी। 

शिखा सुनकर प्रसन्न दिखी - उसने कहा, आपके संस्कार ग्रहण किए हैं आपके बच्चों ने, सर। आप मुझे सब के बारे में बताइए।        

तब मैंने अपने पूरे परिवार के बारे में शिखा को बताया था। शिखा मनोयोग से, भोजन भी बना रही थी एवं साथ साथ सुनती भी जा रही थी। अंत में मैंने बताया था - मेरी पत्नी, पिछले दस दिनों से अपने पोते पोती को लाड़ दुलार देने गई हुईं हैं। 

इस बीच जो भोजन तैयार होता जा रहा था। मैं, उसे टेबल पर लगाने का कार्य करते जा रहा था। सलाद भी मैंने ही तैयार की थी। अंत में हम दोनों साथ भोजन करने लगे थे। तब मैंने कहा - आप अपने बारे में भी बताइये, शिखा जी। 

शिखा ने मुँह में लिया कौर चबा चुकने के बाद कहा - सर, मेरी भी राशि से कुछ छोटी इकलौती एक बेटी है। इस समय वह अपनी मास्टर डिग्री के लिए यहां से साठ किमी दूर, कॉलेज छात्रावास में रहते हुए अध्ययनरत है। 

बीच बीच में खाने पर ध्यान देते हुए शिखा चुप होती, फिर बताते जाती थी। उसने बताया था - मेरे पति रसिक स्वभाव के अति कामुक व्यक्ति हैं। वे आप जैसे नहीं कि घर में जैसी अकेली मैं, आप के साथ हूँ वैसे किसी महिला या लड़की के साथ का अवसर मिलने पर वे, आप जैसी शालीनता से पेश आएं। किसी सुंदर युवती के आसपास होने पर मेरे पति, उस पर डोरे डालने लगते हैं। 

उनकी दिलफेंक तबीयत के कारण ही अपने रूप लावण्य को बनाए रखने के लिए, मुझे लाचारी में अतिरिक्त विचार रखना होता है। ताकि वे मुझमें ही बँधे रहे। अब मेरी यौन सुख की पहले जैसी इच्छा नहीं होती है। थके होने पर भी, ना चाहने पर भी नित मुझे उनका साथ देना होता है। सोचती हूँ कि ऐसा ना करूं तो वे अधूरी रही यौन इच्छा के कारण, अन्य स्त्रियों एवं परिवार पर खतरा बन जाएंगे। पहले मुझे पतिदेव के इस स्वभाव से विरोध एवं चिढ़ होती थी। मैं, इन बातों पर उनसे उलझ भी जाया करती थी। फिर अपनी बेटी के भविष्य की खातिर मैंने समझौता कर लिया, सहन करना सीख लिया। मैंने उस दिन आपका आचरण, अपने पति से बिल्कुल ही विपरीत देखा था। जिससे मुझे आप पर श्रद्धा एवं प्यार आ गया। 

वाकई अगर मैं फिर युवा होती और मुझे, अपने लिए वर चुनने का विकल्प दिया जाता तो मैं, आप जैसा व्यक्ति पसंद करती। मुझे आप जैसा गंभीर एवं नारी गरिमा के मान की चिंता रखने वाला पुरुष पसंद है। खैर जाने दीजिए। जीवन संध्या के तरफ बढ़ते हुए, अब क्या - कोई शिकायत और कोई चाहत। अब तो यही सोचती हूँ कि अलग अलग मनुष्य, भिन्न भिन्न उनके स्वभाव और शौक हैं।

अब तक शिखा को जैसा मैं समझ पाया था उससे मुझे लगा कि निश्चित ही शिखा अपनी व्यक्तिगत ये बातें किसी से नहीं कहती होगी। मुझ से शिखा ने यह सब बताया है तो यह उसका मुझ पर अति विश्वास ही है। शायद मुझ से बाँट कर अपने हृदय पर के बोझ को कम करना चाहती थी। अब मैं सोच रहा था कि शिखा ने मुझ से, प्यार होने के मुझमें, कारण एवं गुण बताए थे। वे वास्तव में मुझ में थे तो, मगर जिन्हें शिखा के लिए उत्पन्न प्यार में शायद मैं भुला देता। मुझे याद आया कि कभी मेरे मन में एक कसक रह गई थी कि मैं, मुझे प्यार करने वाली लड़की से शादी करता। 

शिखा ने यह सब कह कर मेरे व्यवहार तथा अपने प्रति मेरे प्रेम को, एक सीमा में बांध देना सुनिश्चित कर दिया था। अगर मैं उसके हृदय में, अपने प्रेमी रूप वाली छवि बनाए रखने को लालायित था तो मुझे अपने में वे कारण बनाए रखने थे। मेरा बूढ़ा मन, युवा तरह के व्यवहार करते हुए, इसे अप्रिय सा मान रहा था। मगर मैं यह भी समझ रहा था कि अप्रिय, वह होता जब हमारे बीच के प्यार में मैं, मर्यादा की सीमा लांघ जाता। मैं अपने भरे पूरे परिवार में, पूजनीय स्थान रखता था। वरिष्ठ अधिकारी होने से अपने विभाग में मेरे दायित्व के साथ ही मुझसे गरिमामय आचरण भी अपेक्षित था।     

अब मैंने शिखा के अपने पति को लेकर कहे गए वाक्य पर चिंतन किया। वैसे तो मैं, उस प्रकार का पुरुष नहीं था मगर मुझे अब अपने पुरुष को इस तरह से नियंत्रित करना था कि मैं अन्य स्त्री और उनके परिवार पर खतरा उत्पन्न करने वाला आचरण नहीं करूं। अंत में शिखा विदा ले रही थी। वह और मैं जानते थे कि हमारी, ऐसी आत्मीय भेंट होना बार बार संभव नहीं हो सकेगा। शिखा ने तब मेरे लिए चिंता बढ़ाने वाली बात कही थी उसने कहा कि - सर, आपकी ही हाउस हेल्प, मेरे टॉवर में मेरी परिचिता श्रीमती आचार्या के यहाँ काम करती है। 

यह बताते हुए भी वह निश्चिन्त थी। मैं चिंतित हुआ था। अंत में शिखा ने कहा - सर, आज हमने अपने विचार शेयर किए हैं। एक सुखद साथ का आनंद उठाया है। अपने निश्चल प्यार को मैंने कहकर एवं आपने अनकहे व्यक्त किया है। हमने कुछ गलत नहीं किया है। पता नहीं, फिर भी हम डरते क्यों हैं कि हमें साथ कोई देख ना ले। 

मैंने कहा - शिखा जी, डरने वाली बात समाज दृष्टि के कारण है। अपने पति से अधिक, आप उनके प्रति निष्ठा रखती हैं। हम दोनों अपनी अवस्था के अनुरूप आचरण करते हैं और हम से समाज अपेक्षा को जानते हैं। इससे चिंता करने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए किंतु समाज जो स्वयं करता है वही, जब कोई दूसरा करता है तो उसमें निंदा एवं आपत्ति देखता है। 

शिखा ने कहा - हाँ यह तो है, सर! इसमें, मैं यह भी जोड़ूँगी कि यह समाज दृष्टि किसी नारी को लेकर अधिक क्रूर है। 

फिर शिखा हाथ जोड़ मुस्कुराते हुए जाने लगी थी। मेरा मन युवा प्रेमी जैसा आकुलित था मगर ऊपर से, मैं भी मुस्कुरा रहा था। मैंने भी हाथ जोड़कर उसे विदा किया था। 

लिफ्ट मेरे दरवाजे के सामने ही थी। शिखा ने लिफ्ट की बटन प्रेस की थी। मैं दरवाजे पर ही खड़ा था। लिफ्ट आई, उस का डोर खुला था। शिखा उसमें जाते हुए चौंक गई थी। उसके कदम ठिठके थे। मुझे लगा, जैसे लिफ्ट से कोई बाहर आ रहा है मगर लिफ्ट में से बाहर कोई नहीं आया था। मैं देख नहीं पाया था कि लिफ्ट में कौन है। 

लिफ्ट में प्रविष्ट होते हुए मुझे शिखा का स्वर सुनाई दिया था - अरे, तुम? यहाँ कैसे? फिर वह अंदर चली गई थी। उसके पीछे, लिफ्ट डोर बंद हुआ था। मैं विस्मय की स्थिति में जड़वत खड़ा रह गया था ..          

(क्रमशः)

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

18-04-2021   

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