Wednesday, April 21, 2021

शिखा ..

शिखा ..

(पंचम, अंतिम भाग)

रिया के जाने के बाद मैंने स्वयं से प्रश्न किया कि मेरी पत्नी यदि किसी पुरुष (घर में अकेले) के साथ कुछ घंटे रही है, यह मेरी जानकारी में आए तो मेरी प्रतिक्रिया क्या शिखा के पति से भिन्न होगी?  

उत्तर संशयपूर्ण था - शायद हां और शायद नहीं भी! 

तब मैंने सोचा जब मैं, जिसने किसी स्त्री के साथ कभी कोई अवैध रिश्ता नहीं रखा है, उसका जवाब ही निश्चित ‘ना’ नहीं है तो शिखा का रसिक पति, कैसे शिखा का भरोसा कर सकता है। उसने और उसके साथ किसी/कुछ महिलाओं ने अकेले में साथ का कोई और इतिहास रचा होगा। अर्थात अकेलेपन में स्त्री-पुरुष के साथ का शिखा के पति ने शायद एक ही अर्थ जाना था। 

शिखा को घर बुलाते समय इस तथ्य पर नहीं सोच पाना, मेरी बड़ी चूक थी। मुझे बहुत दिनों तक इसका अपराध बोध रहा। मैंने, शिखा से मिलने की फिर कोई चेष्टा नहीं की। दो वर्षों में कुछ बार जब भी अपनी सोसाइटी या ऑफिस में, मैं और शिखा आमने सामने आए तब हम दोनों ने ही, सप्रयास अपनी आँखे मिलने से बचाई थीं। 

फिर मेरी सेवानिवृत्ति का दिन आया। मेरी विदाई पार्टी का आयोजन हुआ। मैंने अपने उद्बोधन में सभी बातें सामान्य विदा लेते व्यक्ति के तरह की ही कही थीं। साथ ही यह भी कह दिया कि मैं जीवन में शेष समय, ग्रामीण क्षेत्र के अपने जन्म स्थान में रहकर बिताऊँगा। 

मेरे भाषण में यह लाइन शिखा की सूचना के लिए थी। इन दो वर्षों में, शिखा से मेरा प्यार बना रहा था। यह शायद मेरी अंतिम श्वास तक भी बने रहने वाला था। 

4 दिन बाद शिखा, रिया को साथ लेकर हमारे घर आई थी। पिछले दिन ही मेरी सेवानिवृत्ति पर आए, मेरे बेटा/बहू, बेटियाँ/दामाद, पोता/पोती/नाती/नातिन सब वापस चले गए थे। मैं एवं पत्नी ही घर में थे। मैंने, पत्नी से दोनों का परिचय करवाया था। रिया, कोई कोई बात करती रही थी। इस दौरान शिखा सिर्फ रोती रही थी। जब मेरी पत्नी, चाय नाश्ते के लिए रसोई में गईं तब शिखा ने कहा - 

हम नहीं मिलते थे। मगर ‘आप यहां हैं’ यह होना, मुझे मानसिक संबल देता था। अब आप चले जाएंगे, मेरे शेष जीवन में सूनापन बढ़ जाएगा। 

रिया के सामने होते हुए भी, शिखा ने कहने में कोई संकोच नहीं किया था। मगर मैं संकोच में रहा था। मैं कुछ कह ना सका था। यही बस कहा - 

यह जीवन है, जैसा है उसे वैसा ही हमें निभाना है। आप खुश रहना मेरी आत्मा को, इसी से शांति मिलेगी। 

जाते हुए रिया ने कहा - आई लव यू, अंकल। मेरी शादी जब होगी आप जरूर आना। 

बेटी रिया, मम्मा शिखा पर ही गई थी। मैंने रिया के सिर पर हाथ रख आशीष दिया था। दोनों चली गई थीं। तब मेरी पत्नी ने पूछा - जी, इस शिखा को कोई कष्ट है, क्या? पूरे समय आँखों में आँसू लिए बैठी थी। 

मैंने कहा - शिखा, मूक प्रेम करती रही है, मुझसे। अब हमारा यहाँ से जाना, उसे वियोग लग रहा है इसलिए रो रही थी। बहुत भावुक है। 

पत्नी ने कहा - आप हो ही ऐसे कि सबको प्यार आए, आप पर। वह प्यार करती है आपको, आप यह जानते थे तो पहले क्यों नहीं बुलाया, कभी घर पर?

मैंने पूछा - मैं किसी और को भी प्यार करता हूँ, इसे सहन कर लेतीं तुम?

पत्नी ने कहा - मैं कृष्ण जी को और श्रीकृष्ण जी मुझे प्रेम करते हैं। इसमें आपको कोई आपत्ति होती है? वैसे ही मुझे भी नहीं हुई होती। मैं जानती हूँ पत्नी का अधिकार, ‘पति वाला प्रेम’, आप सिर्फ मुझे ही देते हैं। फिर आप से कोई या सब प्रेम करते रहते, आप किसी से प्रेम करते रहते, मुझे इससे गर्व ही होता। ऐसे ‘श्री कृष्ण जी’ तरह के आप, मेरे पति हैं। 

मैं चकित एवं निरुत्तर था। पत्नी की मुझमें इतनी अगाध श्रद्धा कि मेरी तुलना भगवान कृष्ण से कर दी। यह बहुत अच्छा हुआ कि मेरे कदम कभी बहके नहीं थे। फिर हम नोएडा से चले आए थे। 

दस वर्ष हुए एक दिन श्री कृष्ण जी की दीवानी मेरी पत्नी ‘मीरा’, अपने भगवान में समा गईं। मैं अकेला पड़ गया था। पत्नी का छोड़ जाना मेरे लिए बहुत बड़ी क्षति थी। मुझे उनका स्मरण सदा बना रहता था। मगर मैं विचित्र था। मैंने अपने अकेलेपन में एक कहानी लिखी, जिसकी नायिका मेरी पत्नी नहीं शिखा थी। कहानी ऐसी बनी थी -  

“एक तरह से सबसे पीछा छुड़ाते हुए मैं जब, अपने शयन कक्ष में पहुँचा तो शिखा, सुहाग शैय्या पर शायद मेरे आने की प्रतीक्षा करते हुए सो चुकी थी। कक्ष में प्रवेश के साथ जब मैंने, अपने पीछे कमरे की साँकल चढ़ाई तो इस आहट से चौंकते हुए शिखा उठ गई थी। वह अपने वस्त्रों को व्यवस्थित करने में लग गई थी। 

देर से आने एवं शिखा की नींद में विघ्न के लिए मैंने, खेद दिखाने का कोई प्रयास नहीं किया था। शैय्या पर शिखा के बाजू में बैठते हुए, मैंने अपने हाथ में ली हुई गहने की डिब्बी खोल कर, कानों के बाले उसे दिए थे। देखकर शिखा के मुख पर प्रसन्नता के भाव उभरे थे। जिन्हें शिखा ने तुरंत ही गंभीरता दिखाते हुए, बदल लिया था। कदाचित शिखा, मेरे द्वारा अत्यधिक प्रतीक्षा कराने पर नाराजगी दिखाना चाहती थी। 

मैंने उसकी इस भाव भंगिमा को समझा था। फिर भी उस बारे में कुछ ना कहते हुए अपने पहले शब्द ये कहे - 

देखो, शिखा व्यर्थ के आश्वासन देना मेरा स्वभाव नहीं है। अभी ही समझ लो कि तुमसे प्यार में, मैं ना तो कोई आसमान के तारे तोड़ कर लाने वाला हूँ और ना ही पूरी दुनिया की सैर तुम्हें कराने वाला हूँ। शिखा, मैं, तुम्हें इस बात के लिए अवश्य आश्वस्त करता हूँ कि फेरों में लिए वचनों को निभाने के लिए अपना अधिकतम सामर्थ्य लगाऊँगा। तुम्हें आजीवन, आदर सहित साथ और मानसिक संबल प्रदान करूँगा। 

शिखा उत्तर में सिर्फ जी कह पाई थी। तत्पश्चात प्रणय के क्षणों को, उसने सहमी सहमी रहकर निभाया था। इसमें शिखा का कोई दोष नहीं था। मेरा भी नहीं क्योंकि ‘मैं था ही ऐसा’। मैं, किसी से भी कुछ, शब्दों को अलंकृत कर नहीं कह पाता था। 

अगले दिन अपनी छोटी बहन एवं शिखा में कानाफूसी, मैंने देखी थी। बहन के मुख पर, शिखा को कुछ बताने जैसे भाव थे। 

मैंने अनुमान लगाया कि मेरी बहन, अपनी भाभी शिखा की शिकायत पर, उसे समझाने के लिए कह रही होगी - 

कोई नहीं भाभी, थोड़े दिन में आप अभ्यस्त हो जाओगी तब आपको अच्छा लगने लगेगा। महेंद्र भैय्या, नीम खाते हैं अतः उनके मुँह से, शब्द कड़वे निकलते हैं मगर दुर्गन्ध नहीं आती है। 

अपने ग्रामीण संयुक्त परिवार में, मेरे विवाह पर हर्षोल्लास से चलते कार्यक्रमों के बीच ही, मैं पाँच दिन में शिखा को लेकर नौकरी पर वापस लौट आया था। सर्विस नई थी अतः मैं अधिक छुट्टी नहीं ले सका था। 

शहर आकर मैं, अपने विभागीय कार्यों में लग गया था। शिखा घर में सब काम करती, मेरी आवश्यकताओं का ध्यान रखती लेकिन मुझसे बात के लिए कम से कम शब्द प्रयुक्त करती थी। मैंने तो देखा था कि महिलाएं बातूनी होती हैं। शिखा ऐसा क्यों नहीं करती है, यह बात समझने में मुझे देरी नहीं लगी थी। उसे मेरा बिना लाग लपेट की बातों से भय सा लगता था। मगर मैं भी क्या करता ‘मैं था ही ऐसा’। 

15 दिन ऐसे बीते। एक छुट्टी के दिन मैंने भोजन के बाद कहा - आओ शिखा यहाँ मेरे सामने बैठो। वह सहमते हुए आ बैठी। मैं समझ गया वह सोच रही थी - पता नहीं इन से क्या सुनने मिलने वाला है। 

मैंने कहा - तुम्हारे सर्टीफिकेट्स एवं पासपोर्ट साइज फोटो हैं ना, यहीं तुम्हारे पास?

उसने कहा - हां हैं तो। 

इसके आगे के, शिखा के प्रश्न का, अनुमान मुझे करना पड़ा कि जैसे पूछना चाहती हो - मगर क्यों, क्या जरूरत पड़ गई इनकी, आपको?  

मैंने कहा - समाचार पत्र में, हाईस्कूल गणित के अध्यापक की, पद रिक्तता निकली है। तुम में योग्यता है, तुम एमएससी (गणित) हो। इस नौकरी के लिए तुम्हारा फॉर्म भरना है। 

वह सहज ही कह बैठी - आप राजपत्रित अधिकारी तो हैं। फिर मेरी, अध्यापक की नौकरी की क्या आवश्यकता है? 

मैंने कहा - मैं, तुम्हें नौलखा हार कभी नहीं दिलवा सकूँगा। तुम्हारी योग्यता अनुसार  नौकरी लगवा देता हूँ। किसी दिन हमारे परिवार के लिए यह नौकरी, नौलखा से अच्छी सिद्ध हो सकती है।

स्पष्ट था, उसे नौकरी करने का विचार, अरुचिकर लग रहा था। मगर शिखा ने कोई और बात नहीं की और अपनी अलमारी से सभी प्रमाण पत्र एवं फोटो लाकर सामने रख दिए थे।    

मैंने शिखा का आवेदन तैयार करके, डाकघर में रजिस्टर्ड पोस्ट कर दिया था। शिखा का इंटरव्यू कॉल आया। फिर उसका चयन भी हो गया था। मेरी पोस्टिंग यहां होने पर ध्यान देते हुए, उसे पास के स्कूल में पोस्ट कर दिया गया था। 

विवाह के तीन महीने बाद ही शिखा नौकरीपेशा महिला हो गई। इन तीन महीनों में शिखा, यह भी समझने लगी कि उसका पति (मैं) “आई लव यू” कह कर प्रेम नहीं बताता है। अपितु शिखा से मेरा (पति का) प्यार, उसके लिए किए जाने वाले, पति के (मेरे) काम और शिखा के सुख के प्रति परवाह में झलकता है। 

शिखा को क्या पहनना, क्या खाना, कहाँ जाना, किन से मिलना पसंद है, शिखा ने इस हेतु मेरे परवाह रखने से मेरे प्यार को समझ लिया था। शिखा को यह भी समझ आ गया था कि उसमें योग्यता देखकर, उसके अध्यापक की नौकरी लगवाना भी उसके प्रति मेरे प्यार से प्रेरित काम था। 

शिखा समझ चुकी थी कि स्वनिर्भर होने की तथा उसमें निहित योग्यता का लाभ, पढ़ने वाले बच्चों को मिलते देखने की संतुष्टि, शिखा को सुख की अनुभूति सुनिश्चित करेगी। यह भी सोच कर मैंने, उसे इस नौकरी के लिए प्रेरित किया था। 

प्रथम रात्रि में शिखा को मैं विचित्र व्यक्ति प्रतीत हुआ था। बाद के छह माह में शिखा समझ चुकी थी कि मैं, विचित्र किंतु प्यार करने वाला आदर्श पति हूँ। 

अगले दस वर्ष में हमारा गृहस्थ जीवन औरों के लिए प्रेरणा हुआ था। इस दौरान हमारे दो बेटे भी हुए थे। 

फिर आया था महामारी वाले वायरस का समय। मुझे उच्च रक्तचाप के साथ ही डायबीटीस भी थी। वायरस का हुआ संक्रमण मेरे लिए प्राण लेवा सिद्ध हुआ। उपचार के लिए मुझे अस्पताल में अकेले भर्ती रहना पड़ा था। 

मैं सोचता कि अच्छा किया था मैंने कि शिखा को अध्यापक की नौकरी लगवाई थी। 

फिर वह पीड़ाकारी समय आया था। मैं दम तोड़ने की हालत में पहुँचा था। मैं सोच रहा था कि मेरे मरते समय मेरा सिर, काश! शिखा की गोदी में होता। उसकी आँखों में देखते हुए मेरा दम टूटता। 

मेरे चाहने से भिन्न मैंने दम, वेंटीलेटर पर तोड़ दिया था …”   

यह कहानी मैं बार बार पढ़ता था। यह मेरी ही लिखी कहानी थी। मैं चाहता तो अंत बदल सकता था। ऐसा मैंने नहीं किया था। 

चार वर्ष व्यतीत हुए। मुझे रिया का फोन आया था बताया - पापा, भगवान को प्यारे हो गए। मैं संवेदना प्रकट करने नोएडा गया था। शिखा को देख लगता था जैसे वह, मुझसे कुछ बोलना चाहती है। फिर भी उसने कुछ नहीं कहा था। हाथ जोड़कर, वापस आते समय मेरे नेत्र भीगे हुए थे। मेरी व्यक्त की गई इतनी संवेदना ही शिखा के लिए पर्याप्त थी। उसके आंसुओं के बीच उसके होंठ पर आई स्मित से, मैंने यह अर्थ लगाया था। 

चार महीने बाद रिया ने (ना जाने कैसे) राशि से संपर्क किया था। ना जाने रिया ने राशि को क्या बताया था। 

उनके आग्रह पर शिखा, रिया, राशि एवं मेरा मिलना हुआ था। 

तब रिया ने कहा - मैं और राशि चाहती हैं कि ‘मम्मा एवं अंकल’ विवाह करें। 

शिखा ने इस बात को विनम्रता से सिर हिलाकर अस्वीकार कर दिया। 

रिया ने पूछा - मम्मा मगर क्यों? अंकल और आप, पसंद करते हैं एक दूसरे को?

शिखा ने कहा - यह समाज कहेगा, मैं सर, से विवाह करने के लिए अपने पति की मौत की प्रतीक्षा कर रही थी। 

मैंने शिखा के स्वर में अपना स्वर मिलाया - शिखा जी सही कहती हैं। हम में प्रेम है मगर वैसा नहीं जिस का शक सब करते हैं  .....       

(समाप्त)

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

21-04-2021

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