Wednesday, April 14, 2021

शिखा ..

 

शिखा .. 

मैंने उस लड़की से शादी की थी जिसे मेरे लिए, मेरे पिता जी एवं माँ ने पसंद किया था। विवाह उपरान्त शुरू में मुझे ऐसा लगता था कि अगर मेरे पालकों ने, मुझे स्वयं चयन का अवसर दिया होता तो शायद मैं, अपनी पत्नी होने का सौभाग्य अन्य लड़की को देता। 

विवाह हो चुका था। तब अनिच्छा होने पर भी, परिवार के सदस्यों विशेषकर माँ, पिता, बड़े भाई बहन की इच्छा को मान देना पारिवारिक परिपाटी थी। जैसे उस समय, सब निभाते थे वैसे मैंने भी अपना दांपत्य निभाना आरंभ कर दिया था। मेरे मन में एक कसक अवश्य रही थी कि काश मैं, मुझे प्यार करने वाली किसी लड़की से शादी कर सकता। तब भी अपनी पत्नी के, मेरे प्रति आदर एवं मेरी सेवा के, समर्पण वाले भाव अनुभव करने के कारण मुझे, उससे प्यार हो गया था। अन्य शब्दों में कहूं तो “प्यार करने वाली कोई लड़की से मेरी शादी तो नहीं हुई थी मगर जिससे शादी हुई उसे, मुझसे और मुझे, उससे प्यार हो गया था”। 

फिर क्या था जैसे समाज में, अन्य परिवार होते हैं वैसा ही एक, मेरा परिवार हो गया था। तब कभी कभी मैं सोचता कि ठीक ही हुआ अगर किसी से मैं प्यार में पड़ा होता और उससे मेरी शादी होती तो मुझे, सदा उससे चाहे-अनचाहे प्यार जताते दिखना होता। उसके मन में, मेरे लिए प्यार तो होता मगर शायद ऐसा नहीं होता जैसे मेरी पत्नी के मन में मेरे लिए था। मेरी पत्नी के मन में मैंने, मेरे लिए प्यार से भी अधिक, श्रद्धा होना अनुभव की थी। 

हमारे तीन बच्चे हुए थे। यथा प्रकार पत्नी और मैंने, उनका लालन पालन किया। समय गुजरता गया। बच्चे पढ़ लिख गए। बच्चों ने, हमेशा अपनी माँ और मुझे परिवार के प्रति, समर्पित भाव से काम एवं सुविधाओं की फ़िक्र में लगा देखा था। इससे बच्चों में संस्कार भी अच्छे आ गए। वे, हमें बहुत चाहते एवं हमारा आदर भी करते थे। 

वे योग्य हुए, उनका विवाह हुआ तो बेटियां ससुराल चलीं गईं। बेटे ने अपनी पसंद की, हमारे लिए बहू ला दी। 

और पाँच वर्ष बीते तो हमारा, एक लाड़ला पोता और एक सुंदर पोती हो गई। कुछ समय बेटे एवं मेरी नौकरी एक ही स्थान पर रही तो हमें पोते-पोती को खिलाने, लाड़-दुलार करने का सुख मिल गया। फिर मेरी सेवा निवृत्ति को दो वर्ष रहे, तब मुझे प्रोन्नति मिली एवं मेरा स्थानांतरण नोएडा हो गया। यहाँ मैं और मेरी पत्नी, पोते पोतियों से दूर होने की उदासी लिए आए थे। 

मेरी पत्नी, अब अपने जीवन में सब कुछ देख लिया, इस संतुष्टि का स्थाई भाव ग्रहण करके अपना, परलोक सुधारने के लिए धर्म/प्रभु शरण में अधिक रहने लगी थी। करना मेरे लिए भी यही अपेक्षित एवं उचित होता। शायद मैं भी अपनी अवस्था अनुसार इसी पथ का अनुगामी होता मगर मेरी प्रोन्नति एवं नोएडा पद स्थापना ने मुझे अन्य पथ पर ला दिया। 

मेरे अधिकार बढ़ गए थे। नोएडा के ऑफिस में वातावरण अधिक आधुनिक था। मेरे मातहत कर्मी, मेरे साथ एवं आपस में अधिक खुला व्यवहार करते थे। प्रोन्नत किए जाने से विभाग की मुझसे अपेक्षा अधिक हो गई थी। मेरा दायित्व, अधीनस्थ कर्मियों से अधिकतम काम लेकर बड़ा लक्ष्य पूरा करना था। मेरे लिए बड़ा लक्ष्य चुनौती पूर्ण इसलिए था कि यहाँ, अधिकारी एवं कर्मचारी गण अपने काम से अधिक मोबाइल एवं नेट पर अधिक समय बिताया करते थे। तब मैंने अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए, नेटवर्क फ़ायरवॉल के जरिए, कार्यालीन नेटवर्क पर अनावश्यक साइट्स ब्लॉक करवा दीं। इसके साथ ही मैंने, व्हाट्सएप्प पर कार्यालयीन समय में, सिर्फ विभाग के ग्रुप पर एक्टिव रहने के निर्देश का परिपत्र जारी किया था। 

मेरी इन व्यवस्थाओं से अधीनस्थ कर्मियों में, मेरे प्रति रोष रहा मगर तब उनकी बढ़ी हुई कार्य उपलब्धियां एवं क्षमता स्पष्ट दिखने लगीं थीं। 

एक दिन मेरी पत्नी को पोते पोती की याद अधिक आने लगी। मैंने उन्हें महीने भर के लिए बेटे के पास भिजवा दिया था। दो दिन बाद मेरे एक कर्मचारी ने, मुझे व्हाट्सएप पर एक वीडियो भेजा जिसमें, मेरे ही मातहत काम करने वाली शिखा, कार्यालय में बैठकर एक वेब सीरीज देखने में तन्मय दिख रही थी। 

इसे देखकर, आदेश के उल्लंघन के लिए मैंने, शिखा को कारण बताओ नोटिस जारी किया। उसमें पूछा कि कार्यालयीन समय में वेब सीरीज देखने के लिए क्यों ना, शिखा के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाए। 

घटना के अगले दिन अवकाश था। मुझे उस दिन अपनी पसंद का भोजन स्वयं बनाने की इच्छा हुई थी। मैंने रसोईये को छुट्टी दे दी। मैं स्वयं रसोई बनाने में लगा था तब, डोर बेल बज उठी थी। हाउस हेल्प अभी अभी ही घर का झाड़ू पोंछा, कपड़े-बर्तन का काम निबटा कर गई थी। रसोई में, मेरे रुचिपूर्वक काम करने में आई यह विघ्न मुझे अप्रिय लगी थी। फिर भी कौन आया है यह देखना आवश्यक था। 

मैंने बेसिन में हाथ धोए एवं जाकर दरवाजा खोला। सामने शिखा खड़ी थी। मैंने पूछा - शिखा, क्या बात है, मेरे घर का एड्रेस कैसे पता चला तुम्हें, ऐसे मेरे घर क्यों आई हो?

शिखा ने कहा - सर, मुझे आपसे बात करनी है। 

मैंने, उसे घर के अंदर आने के लिए नहीं कहा था। दरवाजे पर ही उस से कहा - जो भी बात है कल ऑफिस में ही कर लेना। 

स्पष्ट था कि मैं उसे दरवाजे से ही टाल देना चाहता था। 

शिखा ने याचना के स्वर में कहा - सर प्लीज, आज ही अपनी बात, मुझे कह लेने दीजिए। रात चिंता के कारण मैं सो नहीं सकी हूँ। अभी अपनी बात नहीं कह पाई तो शायद आज रात भी सो ना पाऊंगी। मेरी तबियत बिगड़ जाएगी। 

मुझे भय लगा कि यह, मुझे षड़यंत्र में तो फँसाने की कोई कोशिश तो नहीं। मैंने कहा - शिखा, घर पर मैं अकेला हूँ। ऐसे में मेरा तुम्हें घर में बिठा कर बात करना उचित नहीं है। तुम्हारी जो भी चिंताएं हैं उन्हें एक दिन के लिए त्याग दो। कल ऑफिस में मुझसे बात करना। मैं, संभव सहायता करके तुम्हें चिंता मुक्त करने का प्रयास करूंगा। 

शिखा रुआंसी एवं निराश दिखी। तभी रसोई से आवाज सुनाई दी, यह कुकर की थी। लगता था कुकर का सेफ्टी वॉल्व फट गया था। मुझे संदेह हुआ कि कुकर में मैंने पानी डाला भी था या नहीं। इस चिंता में, मैं शिखा को भूल, रसोई में चला गया। 

देखा कि यह कुकर का सेफ्टी वॉल्व ही था। मैंने गैस बंद किया। रसोई में दीवार एवं प्लेटफार्म पर फ़ैल गई सामग्री की साफ़ किया। तब मुझे ध्यान आया कि जल्दी में, मैंने दरवाजा बंद ही नहीं किया था। मैं दरवाजा बंद करने गया तो देखा, पाँच मिनट होने पर भी शिखा वहाँ वैसी ही खड़ी थी।

शिखा मुझसे बीस बरस छोटी रही होगी। कार्यालय में कभी मैंने, गौर नहीं किया था। आज सामने उदास खड़ी वह, मुझे आकर्षक लग रही थी। मुझे उस पर दया आई थी। मैंने कहा - शिखा, आप गईं नहीं अभी तक! कब तक यहीं ऐसे खड़ी रहोगी? 

शिखा ने कहा - सर, मैं अपनी बात तो कल कह लूँगी लेकिन अभी मेरी इच्छा आप की सहायता करने की है। 

मैंने कहा - कैसी सहायता? 

शिखा ने कहा - सर, कुकर का सेफ्टी वॉल्व ख़राब हो गया लगता है। ऐसे में आपको भोजन तैयार करने में कठिनाई होगी। मैं, आपके लिए भोजन बना देती हूँ। 

मैंने सोचते हुए कहा - नहीं कठिनाई कोई नहीं है, मेरी पत्नी बहुत सुघड़ हैं। उनकी रसोई में कई कुकर रहते हैं। मैं भोजन बना लूँगा, लेकिन चलो पहले मैं तुम्हारी बात सुन लेता हूँ। 

अब शिखा के उत्तर ने मुझे अचंभित किया। उसने कहा - सर, बात तो ऑफिस की है अब वह कल मैं ऑफिस में ही कर लूँगी। अभी मेरी रिक्वेस्ट यह है कि मुझे, आज अपने हाथ से तैयार भोजन, आपको खिला सकने का अवसर दे दीजिए। 

ना जाने क्यों, मेरा किसी षड्यंत्र का संदेह उस समय दूर हो गया था। मेरा स्वभाव, स्त्री जाति को परेशान ना देखने का है। मैंने, शिखा की ख़ुशी समझते हुए उसे अनुमति दे दी। मेरी अनुमति से उसने अपने पाँव, मेरे घर में रखकर रसोई के तरफ बढ़ा दिए थे। 

ऐसा होते ही मेरा मन में दूसरी चिंता उठ खड़ी हुई कि सूने अकेले घर में, मेरे साथ शिखा के होने की बात मुझे पत्नी से छुपानी या बता देनी होगी। छुपाना तो ठीक नहीं था तब परेशानी यह थी कि यह क्या कहकर उनसे बताऊंगा। 

मैं इस दुविधा में था। तब ही किचन से, शिखा की आवाज आई वह पूछ रही थी - सर, कुछ विशेष खाने की इच्छा है, आपकी? 

मैंने रसोई में गए बिना ही कह दिया - नहीं, उपलब्ध सामग्री में जो आप, उचित समझें वह बना लीजिए। और हाँ, आप भी यहीं खा सकें, इतना बना लीजिए। 

कह कर मैं चुप हो गया था। 

शिखा ने फिर कुछ नहीं कहा। मैं सोचने लगा कि मैंने रसोईए को छुट्टी, उसे आराम देने और खुद अपने हाथ के खाने के लिए दी थी। आज संयोग मगर कुछ और होना था। मुझे भोजन, शिखा के हाथ का मिलना था। तब मेरा ध्यान, अपनी पत्नी को कही जाने वाली बात पर पुनः चला गया था। मैंने उचित समझा कि बिना लाग लपेट के जो सच है वही मैं उन्हें बता दूंगा। हमारा, कम नहीं 35 वर्ष का परस्पर परायण साथ था। पत्नी को इस सब में कोई संदेह क्यों होगा। 

शिखा को एक घंटा लगा था। इस बीच शिखा किचन में ही रही थी। मैंने भी शिखा के होते तक किचन में नहीं जाने का निश्चय कर रखा था। मैंने सामने के दरवाजे भी खुले ही रहने दिए थे। 

अब मुझे अपनी नहीं शिखा की चिंता थी कि कोई देखे तो वह, शिखा के यहाँ होने से उस पर व्यर्थ शक नहीं करे। जो भी हो शिखा मेरी मातहत कार्यरत थी। कार्यालयीन कार्यों के दायित्व अपेक्षा के साथ ही किसी मातहत से मेरा, उन्हें लेकर पिता या बड़े भाई की तरह चिंता रखने का अपना दायित्व बोध याद रहता था। 

शिखा अब बनाया भोजन डाइनिंग टेबल पर लगा रही थी। फिर उसने, मुझे टेबल पर आने के लिए कहा था। मैं टेबल पर गया था। मैंने देखा, तरतीब से लगाई सलाद के साथ पालक पूरी, बूंदी रायता, बेसन के चीले एवं मीठे चावल टेबल पर सजे हुए थे। 

मेरे, शिखा से आग्रह पर वह सामने बैठी थी। फिर हम दोनों ने मौन रहकर भोजन ग्रहण किया था। आज अपने हाथ से मैं, जो तैयार करके खाने की सोच रहा था, उससे बहुत अच्छा भोजन मुझे खाने मिला था। 

भोजन करने के बाद, शिखा ने ही, जूठे प्लेट्स, गिलास आदि यूटिलिटी सिंक में रखे थे। उसी ने बच गई सामग्री फ्रिज में रखी थी। यह सब करता देख शिखा में, सुघड़ता मेरी पत्नी जैसी ही लगी थी। 

मैं जब सोच रहा था कि बिन कहे कोई बात कैसे कह दी जाती है यह शिखा को अच्छी तरह से पता है। तभी शिखा ने मुझसे कहा था - सर, मुझे देर हो गई है। अब मैं जाउंगी। 

मैंने धन्यवाद कहने की औपचारिकता नहीं की थी। मुस्कुरा बस दिया था।  

तब विचित्र संयोग हुआ। जब खुले दरवाजे से शिखा निकल रही थी तभी, दरवाजे पर मेरी छोटी बेटी राशि का, अचानक पूर्व सूचना बिना आगमन हुआ था  …     

(प्रथम भाग समाप्त)

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन

14-04-2021


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