Saturday, March 28, 2020

तुमसे भी ज्यादा प्यारा, मेरा भारत देश है- मेरी खूबसूरत नज़मा ...

तुमसे भी ज्यादा प्यारा, मेरा भारत देश है- मेरी खूबसूरत नज़मा ...


भैय्या जी, मैं अभी कुछ दिनों के लिए मुजफ़्फ़रनगर वापिस जाना चाहता हूँ।
वहाँ से भैय्या जी ने रिप्लाई में कहा था- नज़ीर भाई, हमने आपके लिए प्रबंध तो कर दिए हैं। और, समस्या यह है कि अभी कोई साधन भी नहीं मिलेंगे, आप जाओगे कैसे? 
भैय्या जी, आपको, मैंने बताया था ना कि मेरे घर पहला बच्चा आने वाला है, फिर रुक कर बेझिझक कहा था- यहाँ अकेले बैठे बैठे मुझे, नज़मा की प्यारी सूरत बहुत याद आ रही है, भैय्या जी!
दूसरी ओर से हल्की सी हँसी की आवाज सुनाई पड़ी थी, फिर भैय्या जी ने कहा था- मगर नज़ीर भाई, आपका पास भी नहीं बन पायेगा। फिर मुजफ़्फ़रनगर 125 किमी दूर है, आप जाओगे, कैसे?
मैंने कहा था- भैय्या जी, पैदल ही निकल जाऊँगा, देर रात तक पहुँच जाऊँगा। 
भैय्या जी ने कहा था- देख लो नज़ीर भाई, रास्ते में पुलिस वाले भी परेशान कर सकते हैं। 
भैय्या जी, आप हमारी ही उम्र के हैं इसलिए विनम्रता से बताता हूँ आपको कि नज़मा की मोहब्बत मुझे डोर में बाँध खींच रही है। मुझ पर इस तन्हाई में मँजनु वाला भूत सवार हो रहा है,
फिर कुछ शर्माते हुए, मैं हँसा था।
भैय्या जी ने हँसते हुए कहा था-
आप, मँजनु कहाँ रहे हो, अब तो आप जिम्मेदार पति हो। मगर, जाओ कि  गर्भावस्था में पति का पास होना, पत्नी का मनोबल बनाये रखता है। कोरोना संक्रमण के इन दिनों में दूर होने से, नज़मा को आपकी और आपको नज़मा की फ़िक्र  कुछ ज्यादा ही सता रही होगी। जो बच्चे और नज़मा के लिए ठीक नहीं होगा।
फिर थोड़ा पॉज लेकर बहुत ही मृदु स्वर में उन्होंने कहा था- सबेरे खाने पीने की पर्याप्त सामग्री साथ लेकर चले जाना।   
रात सोते हुए मैं, भैय्या जी के अनुग्रह याद कर रहा था।
दिल्ली के इस फ्लैट में पिछले एक माह से इंटीरियर के काम करने, मुजफ़्फ़रनगर से हम तीन लड़के आये थे। बाकि मेरे दो साथी कोरोना खतरे के मालूम होने पर हफ्ते भर पूर्व चले गए थे।
अकेले के, कुछ और कार्य कर सकूँ, ताकि नज़मा की डिलीवरी के समय घर पर रहूँ सोच कर, तब मैं रुक गया था।
फिर अचानक कर्फ्यू लग गया था। मार्केट और ट्रेन आदि सब बंद हो गया। मैं अकेला फँसा रह गया।
तब चार दिन पहले, भैय्या जी ने, पड़ोस के फ्लैट में रहने वाले, अपने फ्रेंड के मार्फत, हीटर और अनाज, मसाले और कुछ अन्य खाने पीने की सामग्री  पहुँचवाई थी, ताकि फ्लैट में ही, मैं कुछ पका सकूँ और मुझे, भूखा नहीं सोना पड़े।
अभी तक मैं उनसे, अपने को, मालिक तथा काम वाले के संबंध में जुड़ा मानता था। लेकिन मेरे लिए उनकी इस तरह की फ़िक्र ने, उनका, मुझसे, मानव का मानवता वाला रिश्ता अनुभव कराया था।
वे और हम अलग अलग कौम के थे। हम, ऊपर से जाहिर तौर पर अच्छा व्यवहार दिखाते थे मगर  हमारे मन में कुछ कुछ आपसी नफरत के कीड़े अंदर रहा करते थे।
लेकिन
कोरोना कीड़े के खतरे, ने वह हालात खड़े किये कि हम सब साथ साथ ज़िंदगी की फ़िक्र में डूब गए थे।
ऐसे में, भैय्या जी ने जो स्नेह एवं अपनत्व का व्यवहार, मेरे प्रति दर्शाया उससे, मेरे अंदर वाला कौमी नफरत का कीड़ा, सुसुप्तावस्था में चला गया था। 
भारत में मानवीय आत्मीयता के ऐसे व्यवहार के विपरीत, 26 मार्च 2020 को, मोबाइल पर न्यूज़ में, मैंने पढ़ा था कि अफगानिस्तान में, गुरूद्वारे पर अटैक कर, वहाँ 27 श्रध्दालुओं को मौत के घाट उतार दिया गया है।
इसे पढ़कर तब  ऐसी वैश्विक आपदा की घड़ी में, कट्टरपंथी और नफरत के इस कौमी एजेंडे पर, मेरा खून खौल उठा था।
मुझे लगा कि, मेरा भारत ही महान देश है। जो गरीब भी है, जिसमें अपढ़/कम पढ़ लिखे लोग भी हैं, व्यवस्था की अफरा तफरी, हम भुगतते भी हैं। मगर सब होते हुए भी दया, करुणा और त्याग की सँस्कृति यहाँ, दुनिया के किसी भी हिस्से से ज्यादा अस्तित्व में रहती है।
अभी इन दो व्यवहारों की तुलना के क्षणों में, मन ही मन, मैं यह निश्चय कर रहा था कि आगे, अपने दायरे में परस्पर भाईचारे और इस देश के दायित्वों के प्रति, मैं, जागृति जगाने का कार्य करूँगा।
फिर मुझे नींद आ गई थी। सुबह उठकर, रास्ते के लिए मैंने पराँठे बनाये थे। अचार छोटी शीशी में रखा था और पानी की बोतल सहित, सब बेग में डाल लिया था।
फ्लैट की चाबी, भैय्या जी के, फ्रेंड को सौंपी थी।
फिर, नज़मा की प्यारी सूरत अपने ज़ेहन में ताजा की थी, अब्बा, अम्मी और तीन छोटी बहनों का स्मरण किया था और चल निकला था, रोमाँचक पैदल यात्रा पर।    
रास्ते में कई अचरज देखे थे। बच्चों, बीबी को सम्हालते लोगों के जत्थे सड़कों पर चले जा रहे थे।
वैसे, अपढ़-गँवार भी कह दिया जाता था इन्हें, मगर ये डिस्टैन्सिंग की सावधानी बरतते हुए बढ़ रहे थे।
एक दृश्य तो बेहद ही आदर्श देखा था, जिसमें एक व्यक्ति, अपनी पत्नी को काँधे पर बिठाये लिए जा रहा था। पता चला था कि पत्नी के पैर में, फ्रैक्चर है, चल नहीं पा रही है और गाँव भी जाना है, इसलिए वह बहादुर पति, अपनी अर्धागिनी को काँधों पर बिठाकर, यूँ चल निकला था
कुछेक और दृश्य देखे थे रास्ते भर, जिन पुलिस वालों को हम, ज़ालिम कहते आये थे, उनका व्यवहार आज अत्यंत आत्मीय था, वे जिधर तिधर जिम्मेदारी से व्यवस्था और मार्गदर्शन करते दिखाई पड़ रहे थे।
रास्ते भर परोपकारी लोग, हम राहगीरों के खाने पीने को, सामग्री प्रदान कर रहे थे।
आज हममें कोई कौमी भेद, कहीं दृष्टि गोचर नहीं हो रहा था। 
मैं, संकट की घड़ी में, यूँ मेरे देशवासियों के व्यवहार पर मुरीद हो गया था। मुझे लग रहा था कि, नहीं होगा, हमसे ज्यादा भी, विकसित देश कोई ऐसा, जहाँ मानवता का ऐसा जज्बा होगा। जहाँ, एक दूसरे के प्राण रक्षा के लिए लोग, ऐसे त्याग का इतिहास रच रहे होंगे।
पूरे दिन की यात्रा बाद, देर रात्रि, मैंने घर के सामने दरवाजे की, कुंडी खटखटाई थी। खोले जाने पर, अब्बा, अम्मी और बहनों से, गले लग कर, अपने और उनके, सुरक्षित होने की ख़ुशी का इजहार किया था।
यद्यपि ऐसे मिलना, संक्रमण के खतरे की दृष्टि से, उचित तो नहीं था लेकिन मेरी भाव विहलता में, हमने यह खतरा लिया था।
फिर, अंदर कमरे में आया था - नज़मा को भरपूर प्यार की नज़रों से देखा था। वह मुझे, ऐसे देखते पाकर लजाई थी। उसके गोरे खूबसूरत चेहरे पर तब, शर्म की गुलाबी उभर आई थी। जिसने, उसकी खूबसूरती को बाहर निकले चाँद से भी ज्यादा, प्यारा बना दिया था।
मेरी हालत, प्यार को प्यासे प्रेमी सी हुई थी। मैंने उसके, सुंदर मुखड़े को, अपनी हथेलियों बीच लिया था। उसकी नज़रें झुक गईं थी। उसने, लगता है, मेरे आने की प्रतीक्षा में, श्रृंगार कर लिया था। उसकी काजल लगी पलकें, उसे अनूठी सुंदरता प्रदान कर रहा था।
तब, मैंने कहा था-
तुम बुरा नहीं मानना, अगर मैं कहूँ कि तुमसे भी ज्यादा, प्यारा, मेरा भारत देश है, मेरी खूबसूरत नज़मा।
इससे, उसके चेहरे पर, अजीब बात के होने वाले भाव झलके थे। फिर, मैंने उसके पेट पर हौले से हाथ रखते हुए कहा था-
यह अपना बच्चा बेहद खुशनसीब है कि जो ,यह भारत में जन्मने वाला है ... 

  -- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
28.03.2020

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