Sunday, March 29, 2020

पारसमणि ...

पारसमणि ...
मेरे पिता, हाथ ठेले से ग्राहकों का सामान, दुकान से उनके घर तक ढोया करते थे।
मैं तब, कक्षा आठ में पढ़ा करता था, जब 1 रोड एक्सीडेंट में, शिकार हुए, उन्होंने, अपने प्राण गँवा दिए थे।
भाग्य से, मैं अपनी माँ की, एकमात्र जीवित संतान था।
पिता की असमय मौत के बाद, उन्होंने मुझे अनाथ नहीं होने दिया था। अब तक निर्धन परिवार होते हुए भी, उन्हें पिता ने, गृहणी ही रूप में रखा था।
उन्हें जीविकोपार्जन में कोई काम के लिए बाहर नहीं भेजा था। किंतु तब आई मुसीबत ने उन्हें, बाध्य किया था। वे मुझे पढ़ाई जारी रखते हुए देखना चाहती थी।
मेरी पढाई को अनवरत जारी रखने को सुनिश्चित करने के लिए, उन्होंने संकोच त्यागे थे, साहस बटोरा था, कमर कस, निकल पड़ी थीं, वे मेरे पिता का हाथ ठेला लिए जीविकोपार्जन हेतु। हमारी जाति, पिछड़े वर्ग में आती थी।
वे सुबह जल्दी जागतीं, साथ ही मुझे पढ़ाई के लिए जगा देंती। घर के सारे काम करतीं, खाना दोनों समय का तैयार कर खिलातीं और मेरे स्कूल के समय मेरे घर से निकलते वक़्त साथ हाथ ठेला लिए निकल पड़तीं, अपने जीवन संग्राम में विजय पाने। और
मेरे लिए पाल ली, 'मुझे उच्च शिक्षा दिलाने की', अपनी महत्वाकाँक्षा की पूर्ति का, लक्ष्य हृदय में लिए।   
तब पिता के अकाल मौत जैसी ही, विपदा अपने दुर्भाग्य पर मैंने, एक और देखी थी।
शायद यह उम्र-जनित, आवश्यकता थी या उनके साथ काम करने वाले पुरुषों के धूर्त फुसलावे, कि उनके एकाधिक पुरुषों से, संबंध होने के किस्से, पास पड़ोस में चर्चा के विषय बने थे।
मालूम नहीं माँ को इस संबंध में क्या ताने-उलहाने सहने होते, मुझे कभी कुछ वे बतातीं नहीं थी। मगर,
स्कूल और मौहल्ले में शरारती तत्वों ने, मुझ पर 'हरामी' का टैग लगा दिया था। यह सुन, पहले मुझे बहुत खीझ हुआ करती, मैं रोया करता था। 
लेकिन ईश्वर प्रदत्त इन विपरीत हालातों में, ईश्वर प्रदत्त ही, संघर्ष क्षमता वाले एक गुण ने भी मुझमें, निखार पाया था। 
चाहे जैसी हों, वे मेरी माँ हैं, मेरे लिए ही यह मेहनत करतीं हैं।
बड़े लोगों में, जो खराबी, उनकी मर्दानगी की, ख्याति की तरह कही जाती है, उसी तरह के, बहु-शरीर संबंध, निम्न मध्यम वर्ग में, नारी के चरित्र पर लाँछन लगाए जाने की इबारत बनती हैं, यह समाज विचित्रता, उस कम उम्र में ही, मुझे समझ आ गई थी। 
मैंने, अपनी माँ का आदर करना, जारी रखा था। जैसे वे, इस बदनामी की कोई चर्चा, मुझसे नहीं करतीं, वैसे ही मैं, अन्य के व्यंग्य और आक्षेपों से मानसिक रूप से आहत होकर, अकेले में रो लेता, मगर उनसे कुछ नहीं कहता, पूछता।
मेरी माँ भी, प्रतिकूल परिस्थतियों से जूझते, कदाचित अकेले में रो लेतीं होंगी, किंतु पिता के मौत, के समय के अतिरिक्त, उनका कोई रुदन, मैंने नहीं देखा था। 
जीवन में मिली कमियों को, अपनी ताकत में परिवर्तित करने की क्षमता, शायद, मुझे जन्मजात मिली थी।
मैं अपने सहपाठियों के उपहास किये जाने और 'हरामी' कहे जाने पर, अब चिढ़ता नहीं, अनसुना कर देता था। 
मैं उनके द्वारा, अपमानित किये जाने को, चुनौती की तरह स्वीकार करता था। 
मैंने ठान लिया था, उनके मुहँ पर ताला, मैं अपनी अध्ययन श्रेष्ठता के माध्यम से, जड़ दूँगा। 
मैं, उत्तरोत्तर अपना पढ़ाई में प्रदर्शन, सुधारता गया था। बारहवी कक्षा के परिणाम घोषित हुए थे, मैं, पिछड़े वर्ग के गणित-विज्ञान संकाय में, देश में टॉपर हुआ था।
माँ के और मेरे साक्षात्कार, टीवी और समाचार पत्रों में छाये थे। पास पड़ोस और मेरे सहपाठियों के मुहँ बंद हो गए थे।
मुझे, मुंबई आईआईटी में स्कॉलरशिप सहित दाखिला मिला था। कोर्स पूरा होने पर, मैंने प्रशासनिक सेवा के चयन में भी, सफलता अर्जित की थी।

आज, जब कोविड-19 का खतरा हमारे देश-समाज पर मँडराया, मैं अपने जिले का डिस्ट्रिक्ट मेजिस्ट्रेट हूँ। अभी मेरी शादी नहीं हुईं है। मेरी माँ, अब मेरे साथ जिलाधीश बँगले में रहती हैं। और 45 वर्ष की उम्र में पढ़ कर जानकारियाँ बढ़ाने में लगी रहतीं हैं।
अब तक कड़ी चुनौतियाँ पर विजय पा लेना, मेरा सहज स्वभाव बन चुका है।
जिले की प्रशासनिक कमान मेरे हाथ में है। मैंने अन्य कलेक्टर से, भिन्न तरह से, विपरीत स्थितियों को निबटने की ठानी है।
मैं, अपनी माँ को साथ लिए पूरे जिले में सक्रिय रहने लगा हूँ। मैं सारी व्यवस्थाओं और अनुशासन को बनाये रखने के लिए 18-18 घंटे तक फील्ड में रहता हूँ।
मैं जिले की, आम जनता के बीच, बहुत ही साधारण आदमी सा उतर जाता हूँ। उनकी आवश्यकताओं को समझता हूँ। और इंतजामत सुनिश्चित करता हूँ।
जब लोग मुझे नहीं पहचानते हैं तब तक मुझसे उलझते भी हैं। जब उन्हें मेरा डीएम होना पता चल जाता है। वे शिष्टता से पेश आने लगते हैं।
मैं, मेरी माँ की सेवायें, गैर सरकारी रूप से पिछड़े मोहल्लों की अशिक्षित नारी और बच्चों की, कोरोना प्रति जागरूकता बढाने में लेता हूँ। अथक परिश्रम उनकी फितरत है, वे भी मेरी भाँति ही 18 घंटे सब में दे रहीं हैं। 
मैंने अपनी अब तक जमा पूँजी का, बड़ा हिस्सा, 11 लाख रूपये प्रधानमंत्री कोष में दान दिए हैं।
अपनी व्यवस्थाओं के बलबूते, जिले में आये, कोरोना संक्रमित तीनों लोगों को, कुछ ही दिन में कोरोना नेगेटिव, करवा सका हूँ। अब हमारा जिला कोरोना संक्रमण मुक्त हुआ है।
मेरे दान, मेरी प्रशासनिक क्षमता की ख्याति प्रधानमंत्री तक पहुँची है। उन्होंने, मेरे और मेरी माँ के कार्य की प्रशंसा, अपने राष्ट्र संबोधन में की है।
आज 29 मार्च 2020 को, 1 लोकप्रिय राष्ट्रीय समाचार चैनल के द्वारा, मेरा इंटरव्यू लिया जा रहा है। एक प्रश्न के उत्तर में, मैं बता रहा हूँ कि -
"वास्तव में, कोरोना खतरे की उत्पन्न चुनौती, मेरे लिए पारसमणि की तरह सिध्द हुई है। जिसने मेरी सोच के समस्त लौह अणुओं को, स्पर्श करते हुए, उन्हें उत्कृष्ट मानवता के, स्वर्ण अणुओं में बदल दिया है। 
मैं पिछड़े वर्ग से हूँ, लेकिन ऐसी पारसमणि ने, मेरे मानव मन को स्वर्णिम रूप प्रदान किया है। मैं अपने कर्म से, सवर्णों के कर्मों से बढ़कर, ज्यादा स्वर्णिम उपलब्धि हासिल सका हूँ।" 
इंटरव्यू लेने वाली, मेम ने मेरे प्रशंसा के पुल बाँधे हैं।
लेकिन, अपने चैनल की टीआरपी बढ़ाने के कुत्सित प्रयास में, उसने मेरी माँ से बेहद घटिया प्रश्न पूछ लिया है कि-
 माँजी, आपको, अपने वैधव्य वाले जीवन में, चरित्र लाँछन सहने पड़े हैं, इसका सच क्या है?
अपमान सरलता से सहन कर लेना, मैं पूरे जीवन करता आया हूँ। मैं इस पर चुप रहा हूँ मगर, माँ ने हँसते हुए उत्तर दिया है -
"सच सुनिये, आदरणीया, धुँआ उठता है तो, इसमें कहीं आग अवश्य रहती है। लेकिन, आप इसे मेरी कमी जैसी प्रचारित नहीं कीजिये, अपितु जिन अभिनेत्रियों के द्वारा, आपके चैनल को उपकृत किया जाता है, फिर उनके विवाह पहले, विवाहेत्तर या बिन विवाह के प्रेम संबंधों का,  आप प्रशंसापूर्ण बखान, दर्शकों के समक्ष करती हैं, उसी, अपनी दृष्टि से, मेरी जीवन की लाचारियों को देखिए, कृपया!
आपको मेरे से सहमत होना होगा कि, कोई नारी अपना, तथाकथित चरित्र खोती है तो, उसकी जिम्मेदार वही अकेली नहीं है, अपितु निश्चित ही इसके लिए कम से कम एक पुरुष, उसके साथ जिम्मेदार होता है। 
अगर आप ईमानदारी से चाहती हैं कि पुरुष इस तरह प्रवृत्त न हो, तब पुरुष सेलिब्रिटीज के, बहुस्त्री प्रेम प्रसंगों को चटपटे रूप से अपनी चैनल पर प्रचारित न करें। 
आपकी चूक और सामाजिक दायित्वों की उपेक्षा, समाज दुर्भाग्य हुआ है। जिससे, कोई अच्छे चरित्र के व्यक्ति के अपेक्षा, विभिन्न ख्याति लब्ध सेलेब्रिटीस मीडिया पर आज, ज्यादा तारीफ़ बटोरते हैं।
ऐसे परिदृश्य में वे, हमारे देशवासियों के मॉडल आइकॉन होते हैं। हमारा युवा अंधाधुंध, उनका अनुकरण करता है और समाज संस्कृति बिगाड़ने में अनायास प्रवृत्त हो जाता है। "
मेरी माँ के, इस उत्तर ने, चैनल की दर्शक सँख्या बहुत बड़ा दी है।
लेकिन-
समाज को विवश कर दिया है कि वह अपने डबल स्टैंडर्ड से उबरे  ...


-- राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
29.03.2020

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