Sunday, September 2, 2012

सांसारिक ज्ञान ,आचरण और कर्मों की शिक्षा

सांसारिक ज्ञान ,आचरण और कर्मों  की शिक्षा 

                                 सिनेमा  अस्तित्व में आने के पूर्व  जिन  साधनों  से हम सांसारिक ज्ञान ,आचरण और कर्मों  की शिक्षा  प्राप्त करते थे , उनमें जन्म से प्राप्त घर और उसमें हमारे माता-पिता सहित बड़ों के सानिध्य  से प्राप्त संस्कार , लौकिक शिक्षा  आरम्भ करने के पूर्व  ही  अबोध उम्र में ही मंदिर/धर्मस्थल पर दर्शन वहां वांचे जाते धार्मिक विषय से प्राप्त धार्मिक संस्कार , फिर पाठशालाओं /गुरुकुल / विद्यालय /महा विद्यालय  में प्राम्भिक /उच्च लौकिक शिक्षा     , लोक कथाओं  /लोक नृत्य  के मंचन के दर्शक बन  लोक संस्कार , साहित्यकारों  के साहित्य  से उच्च प्रेरणाएं  , और महान  सच्चे  नायकों  की सभाओं /आश्रमों  से  पवित्र  कर्मों  और आचरणों  की  सीख  के साथ  जीवन संघर्ष और जीवन पथ  तय करते   अपना जीवन निर्वाह करते थे  .यह क्रम अबाध  शताब्दियों से  बहुत धीमे परिवर्तनों  के साथ प्रत्येक मनुष्य  के जीवन  में  चला आ रहा  था  . 

                                           फिर पिछले सदी में सिनेमा  अस्तित्व  में आया . सिनेमा  धीरे धीरे समाज में  फैलता और विकसित होना शुरू  हुआ . जिस पीढ़ी  में यह नया था  उस पीढ़ी के बुजुर्गों  ने इस की खराबी अनुभव की , उनकी दूरदर्शी  द्रष्टि में अपने  संतति पर  इसके बुरे प्रभाव  की आशंका ने  आश्रितों  को इस के दर्शन  से दूर रखने का  असफल प्रयास किया .प्रारंभ में आज्ञाकारी  बच्चे युवा होते होते अपने बड़ों  का  पहले छिपे तौर पर और बाद में  प्रत्यक्ष  अवहेलना की प्रवत्ति हमेशा से रखते आये हैं.उसी  सहज प्रवत्ति  के कारण सिनेमा घर भी  इनकी उपिस्थिति से हर वर्ष  के बीतते ज्यादा भरे होने लगे .

                                        स्पष्ट था  कि सिनेमा घरों  में इनकी उपस्थिति  किसी अन्य जगह इनकी अनुपस्थिति की कीमत पर ही होनी थी . ये स्थान  जहाँ  इनकी  अनुपस्थिति  होने लगी वे सर्वप्रथम धर्मालय थे  . मायने यह कि धार्मिक संस्कार /श्रध्दा  में निरंतर कमी  होना था  सिनेमा  के लोकप्रियता के साथ . अन्य शब्द  में   सिनेमा  ने अपने सफर में अपने कदम तले पहली सीढ़ी फलांगी वह हमारे धर्मालयों को पीछे /नीचे  छोड़ रही थी .   फिर उसका अगला  पग लोक कथाओं  /लोक नृत्य  के मंचन   स्थल पर दर्शकों की कमी के रूप में दूसरी सीढ़ी पार करने  वाला सिध्द हुआ ,  सांस्कृतिक विरासत एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने वाली  लोक कथाओं  /लोक नृत्य  के मंचन  वाली संस्थाएं  और उनके कलाकार बिरले और बिरले होते चले गए . इस तरह पहले धार्मिक संस्कारों  और फिर  अपनी सांस्कृतिक गरिमा  से हर पीढ़ी धीरे धीरे दूर होती  गयी . 

                              सिनेमा  अब जिसे अगले पग में रौंदने वाला था , वह थे  साहित्यकारों  के साहित्य   और महान  सच्चे  नायकों  की सभाओं /आश्रमों  का संग . अब  यहाँ  से जनता कि उदासीनता  से उच्च प्रेरणाएं  ,पवित्र  कर्मों  और आचरणों का  अभाव निरंतर इस समाज को देखना था . इसके प्रति अरुचि साहित्यकारों  को हतोत्साहित  करने वाली सिध्द होने लगी  , कथाकार ,लेखक और कवि  आर्थिक अभाव का तो हमेशा ही सामना करते रहे थे  ,जो एक सामाजिक सम्मान उन्हें संतुष्ट करता था वह भी नहीं बचा और इस तरह यह मनुष्य नस्ल भी लुप्तप्राय हो गयी . 

                                  जो और लील लेने को सिनेमा  के लिए शेष था वह थे हमारे माता-पिता सहित बड़ों के सानिध्य  से प्राप्त संस्कार जो हमें पृथ्वी के इस क्षेत्र  की  सामाजिक व्यवस्था  मान्यताओं  और संस्कृति  पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करते थे  . हमारे माता-पिता सहित बड़ों  के आज भी प्रयास तो यही होते हैं . पर जन्म से ही दूरदर्शन पर प्रसारित सिनेमा और संगीत  के सम्मुख होने थे  वे निष्प्रभावी होने लगे . अबोध बच्चे  जिसे ज्ञान में नहीं  होता कि गाने कि पंक्ति का अर्थ  क्या है गाने का प्रयास और उसमे थिरकना आरम्भ करने लगे . आधुनिकता के नाम पर घरों  में उन्हें सराहना और प्रोत्साहन मिलने लगा . जो बच्चों को हम नहीं दिखलाना और बताना चाहते थे  वह इन प्रसारणों के माध्यम से उन्हें सहज उपलब्ध था . सिने दर्शन से धन बनाने कि प्रेरणा ने हमें इतना व्यस्त कर दिया था कि हम यह भी नहीं  विचार कर पाते कि बच्चे पर इसका क्या असर होने वाला है. हमारी उनसे अपेक्षाएं तो वही पारंपरिक थीं  पर उस के लिए उन्हें कैसा तराशा जाये उस पर हम गंभीर कोई उपाय /कार्य  नहीं कर पा रहे थे . बच्चे  घर और बाहर अपनी पाठ्यक्रम की  शिक्षा   के साथ सिने चर्चा  में तल्लीन थे .  

                                   इतना सब भी चिंताजनक ना  होता  निरंतर परिवर्तन स्रष्टि का नियम है . यह परिवर्तन  भी स्वागत योग्य होता  यदि सिनेमा नामक इस संस्था ने जिन जिन का अस्तित्व मिटा  ( या लुप्त होने  की  कगार पर पहुँचाया ) दिया था  उनकी यथोचित भरपाई कर दी होती . अर्थात धर्म जो करुणा ,न्याय ,त्याग  इत्यादि सिखलाते थे  , साहित्य जो उच्च जीवन प्रेरणाएं देते थे  ,  लोक मंचन जो सांस्कृतिक  विरासत  हस्तांतरित करते और संस्कार जो बड़ों का सम्मान और सेवा  की  भावना  उत्पन्न करते थे  वह दायित्व निभा ले जाते . लेकिन सिनेमा ने पृथ्वी के अन्य क्षेत्र की  खानपान , पहनावा , विचार , और स्वछंदता  प्रसारित और प्रचारित कर दी . देश की  अधिकांश  जनता  जो कम पढ़ी लिखी  और वैचारिक रूप से पिछड़ी थी उनके सम्मुख हलकी  सोच चित्रित करना प्रारंभ कर दिया तर्क यह था जो पसंद किया जाता है वह दिखलाना बाध्यता है. अर्थात इस   कम पढ़े लिखे हमारे  मनुष्य  साथियों  के लिए  नैतिक कर्तव्य से कोई सरोकार नहीं था . क्षेत्र की पारंपरिक परिवार संरचना और उसमे वैवाहिक बंधन के परस्पर कर्तव्य  को बनाये रखने , चरित्र धवलता  को कोई प्रोत्साहन नहीं था .  

 संस्कार और संस्कारिक रूप सवेंदन   शील  व्यक्ति को आहत करती हैं . तब कहना पड़ता है , सिनेमा के पीछे कार्यरत कथालेखक , गीतकार , निर्माता  और जुड़े कलाकारों  के संस्कारों  के अभाव के बारे में , वे और ज्यादा उच्च संस्कारी होते स्वयं  अच्छा चरित्र  और विचार जी रहे होते सिर्फ भोगी नहीं कुछ त्यागी भी होते तो  जिन जिन  उच्च आदर्शी  के अस्तित्व को उन्होंने मिटाया था  उनकी जिम्मेदारी  कुछ निभा  इस समाज का कुछ भला करते .   इस महत्त्व पूर्ण  स्थान  के कर्तव्य को अनुभव करते , जहाँ उनके पीछे लाखों /करोड़ों  का स्नेह विश्वास और दीवानगी है . वहां  वे पथप्रदर्शन  करते इन पीछे आ रहे अनुकरण करती भीड़ को अच्छी राह और अच्छी मंजिल की ओर ले जाते . वे यह समझते कि ऐसा सौभाग्य हर किसी का नहीं था ,जिससे कोई अपनी सच्ची बातें इतनी बड़ी भीड़ से आसानी से मनवा सकता . जीवन उनका कुछ ही वर्षों  का था  पर इतिहास के प्रष्टों पर दीर्घ काल के लिए अमर हो सकते थे . ये क्यों खो देते हैं  यह अभूतपूर्व अवसर अपनी जरासे समय कि विलासित्ता और भोग लोलुपता में
             काश किसी जागरूक सच्चे  नायक को ऐसे अवसर प्राप्त होते . वह जीवन सार्थक कर लेता अपना . और समाज की बुराई मिटा देता और एक सुखद वातावरण दे जाता .सिने कर्मी इसे आलोचना नहीं अपने प्रति शुभ चिन्तक भाव देखें   अब भी परिवर्तन उनके हाथ है . न फिसल जाने दे इस स्वर्णिम अवसर को योहीं .............
 


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