Thursday, September 27, 2012

जीवन की  दो समानान्तर रेखाएं    

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                     एक साधारण समझ विकसित होते होते मनुष्य जीवन के 18 -20  वर्ष व्यय हो जाते हैं .  फिर मनुष्य जीवन दो समानान्तर रेखाओं के बीच व्यतीत होता है . एक रेखा जो उसके बाह्य दिखावे  को बढ़ने में सहायक होती है . दूसरी अनुभव , ज्ञान ,  संगति , अध्यात्म और धर्म चिंतन से उसके आन्तरिक निखार दिलाती है.

प्रथम  रेखा --

                               अपना शरीर बलिष्ट , सुन्दर , शारीरिक स्वास्थ्य , अपनी व्यवहारिक शिक्षा , अपने व्यवहार , अपने स्वर माधुर्य  और आसपास के साधन ( अपने मित्र ,रिश्तेदार ,  अपने बंगले, गाड़ी , वस्त्र ) इत्यादि को ज्यादा से ज्यादा प्रभावशील बनाने / रखने को प्रेरित करती है . जिसमें से शरीर तो 30  वर्ष आते आते ढलान की और चलना प्रारंभ कर देता है , हर अगले कुछ अरसे में उसमें नई कमियां 
बढती जाती हैं . आडम्बर की हर वस्तु  (बंगले सहित ) एक अवधि विशेष में चलन के बाहर या उपयोगी उतनी न रह जाने से परिवर्तित करने या उसमें सुधार की आवश्यकता उत्पन्न करती है. यह रेखा निरंतर इन्हें जुटाने के लिए मनुष्य को बाध्य करती है . समस्त उपायों के बाद भी प्रतिष्ठा ,शक्ति , और व्यक्तित्व में उम्र बढ़ने के साथ कमी की प्रवृत्ति अनुभव होती है.
 

द्वतीय रेखा --

                         इस रेखा की प्रेरणा आज कल कम जागृति से ग्रहण  की जा रही है. यह उम्र बढ़ने के साथ  व्यक्तित्व में क्रमशः निखार लाती है . यह मनुष्य में निरंतर दया ,करुणा ,न्याय ,परोपकार और निस्वार्थ बोध बढाती है . जो इससे ज्यादा प्रेरित होता है उसका उम्र वृध्दि से आई कमियों ( प्रथम रेखा से प्रेरित उपायों के बाद भी )   को काफी हद तक क्षति पूर्ति में सहायक होती है . सच्ची प्रेरणा लेने के बाद जो उपलब्धि इससे मिलती है वह मनुष्य के जितनी उम्र बढती है , उतना और निखार व्यक्तित्व में पैदा करती है . प्रथम रेखा की प्रधानता से जिया गया  जीवन जब वृध्दावस्था में अपने ही बच्चों से स्नेह और आदर को तरसता है . उस समय उतना ही वह बूढ़ा जिसके विवेक ने  द्वतीय रेखा की प्रेरणा को प्रधानता दी होगी वह अपने  बच्चों से तो क्या , अन्य जन समूह से स्नेह और आदर   पाता  देखा जा सकता है . उसके  दीर्घ जीवन की कामना सभी कर रहे होते हैं .
                        मनुष्य जीवन    प्रथम  रेखा और  द्वतीय रेखा के एक समुचित संतुलन  से ही सार्थक  होता है . हम  क्या चाहते हैं ? यह व्यक्तिगत प्रश्न होता है . लेकिन समाज में आज जो बुराइयों की भरमार हैं , उन्हें कम करने के लिए अर्थात  आज के और आने वाले मनुष्य समाज की सुख शांति के लिए सब उपरोक्त संतुलन से जीवन यापन करें ऐसी मेरी हार्दिक कामनाएं हैं . 
                    
                           " विभिन्न धर्मों में भी विभिन्न शब्दों में ऐसे उल्लेख मिलेंगे, जिससे  यह अनुयायियों को बताया जाता  है  कि परलोक भी  आंतरिक निखार प्राप्त करने से  ही सुधरता है "
 
 

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