जीवन की दो समानान्तर रेखाएं
---------------------------------------
एक साधारण समझ विकसित होते होते मनुष्य जीवन के 18 -20 वर्ष व्यय हो जाते हैं . फिर मनुष्य जीवन दो समानान्तर रेखाओं के बीच व्यतीत होता है . एक रेखा जो उसके बाह्य दिखावे को बढ़ने में सहायक होती है . दूसरी अनुभव , ज्ञान , संगति , अध्यात्म और धर्म चिंतन से उसके आन्तरिक निखार दिलाती है.
प्रथम रेखा --
अपना शरीर बलिष्ट , सुन्दर , शारीरिक स्वास्थ्य , अपनी व्यवहारिक शिक्षा , अपने व्यवहार , अपने स्वर माधुर्य और आसपास के साधन ( अपने मित्र ,रिश्तेदार , अपने बंगले, गाड़ी , वस्त्र ) इत्यादि को ज्यादा से ज्यादा प्रभावशील बनाने / रखने को प्रेरित करती है . जिसमें से शरीर तो 30 वर्ष आते आते ढलान की और चलना प्रारंभ कर देता है , हर अगले कुछ अरसे में उसमें नई कमियां
बढती जाती हैं . आडम्बर की हर वस्तु (बंगले सहित ) एक अवधि विशेष में चलन के बाहर या उपयोगी उतनी न रह जाने से परिवर्तित करने या उसमें सुधार की आवश्यकता उत्पन्न करती है. यह रेखा निरंतर इन्हें जुटाने के लिए मनुष्य को बाध्य करती है . समस्त उपायों के बाद भी प्रतिष्ठा ,शक्ति , और व्यक्तित्व में उम्र बढ़ने के साथ कमी की प्रवृत्ति अनुभव होती है.
द्वतीय रेखा --
इस रेखा की प्रेरणा आज कल कम जागृति से ग्रहण की जा रही है. यह उम्र बढ़ने के साथ व्यक्तित्व में क्रमशः निखार लाती है . यह मनुष्य में निरंतर दया ,करुणा ,न्याय ,परोपकार और निस्वार्थ बोध बढाती है . जो इससे ज्यादा प्रेरित होता है उसका उम्र वृध्दि से आई कमियों ( प्रथम रेखा से प्रेरित उपायों के बाद भी ) को काफी हद तक क्षति पूर्ति में सहायक होती है . सच्ची प्रेरणा लेने के बाद जो उपलब्धि इससे मिलती है वह मनुष्य के जितनी उम्र बढती है , उतना और निखार व्यक्तित्व में पैदा करती है . प्रथम रेखा की प्रधानता से जिया गया जीवन जब वृध्दावस्था में अपने ही बच्चों से स्नेह और आदर को तरसता है . उस समय उतना ही वह बूढ़ा जिसके विवेक ने द्वतीय रेखा की प्रेरणा को प्रधानता दी होगी वह अपने बच्चों से तो क्या , अन्य जन समूह से स्नेह और आदर पाता देखा जा सकता है . उसके दीर्घ जीवन की कामना सभी कर रहे होते हैं .
मनुष्य जीवन प्रथम रेखा और द्वतीय रेखा के एक समुचित संतुलन से ही सार्थक होता है . हम क्या चाहते हैं ? यह व्यक्तिगत प्रश्न होता है . लेकिन समाज में आज जो बुराइयों की भरमार हैं , उन्हें कम करने के लिए अर्थात आज के और आने वाले मनुष्य समाज की सुख शांति के लिए सब उपरोक्त संतुलन से जीवन यापन करें ऐसी मेरी हार्दिक कामनाएं हैं .
" विभिन्न धर्मों में भी विभिन्न शब्दों में ऐसे उल्लेख मिलेंगे, जिससे यह अनुयायियों को बताया जाता है कि परलोक भी आंतरिक निखार प्राप्त करने से ही सुधरता है "
No comments:
Post a Comment