तुम्हें लाज़बाब हम इसलिए नहीं कह सकते
कि
ज़माना कहीं झूठा होने को प्रवृत्त न हो जाए
इन दोहरे मानदंडों ने समाज का कौमी सोहाद्र मिटा रखा है
तौफ़ीक़ -
'एक इंसान के रूप में मिली ज़िंदगी' को जहन्नुम दे रखा है
कि
ज़माना कहीं झूठा होने को प्रवृत्त न हो जाए
इन दोहरे मानदंडों ने समाज का कौमी सोहाद्र मिटा रखा है
तौफ़ीक़ -
'एक इंसान के रूप में मिली ज़िंदगी' को जहन्नुम दे रखा है
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