Wednesday, June 10, 2020

मैं, राम की पत्नी ...

मैं, राम की पत्नी ...  

जीवन में आये इन बिलकुल ही अलग तरह के दिनों में, आज छठा दिन था जब मैं, अपनी दुधमुँहीं बेटी एवं पति राम के साथ महानगर से अपने गाँव के तरफ चले जा रहे काफिले में चल रही थी।
अभी हम सड़क से थोड़ा हटकर, एक पीपल के पेड़ की छाँव में बैठे हुए थे। पीपल में पतझड़ के बाद नई नई आई पत्तियों का, हल्का ताजा हरा रंग, पीपल को अत्यंत आकर्षक एवं मनोरम रूप प्रदान कर रहा था।
पीपल की पत्ती का आकार, प्यार के प्रतीक में आज बनाये जाते हृदय जैसा होता है। हवा में हिल रहीं, इन पीपल पत्तियों को देख, मुझे यूँ लग रहा था जैसे एक साथ, हजारों दिल मचल रहे हों।
यहाँ बैठकर, कुछ समय पहले परोपकारियों से पैकेट्स में मिले भोजन को, राम एवं मैं, सस्वाद ग्रहण कर रहे थे। मेरी बेटी सो रही होने से, मैंने उसे पास ही दरी पर लिटाया हुआ था।
तब मैंने देखा कि वे अधबूढ़े व्यक्ति, जिन्होंने मुझे परोपकारी संस्था की तरफ से, ये भोजन पैकेट्स दिए थे, हमारी तरफ आ रहे हैं।
क्षणांश में ही मेरी आँखों के सामने, पैकेट्स लेते समय का दृश्य उभर आया था।
यह व्यक्ति वहाँ लगी कतार में, औरतों को पैकेट्स वितरित कर रहे थे। कतार में अपनी बारी आने के पूर्व तक मैं, इनकी दृष्टि की वासना को अनुभव करते रही थी।
इनकी दृष्टि में, हाथ फैलाने के अनुग्रह बोझ से दबीं, युवावय औरतों के लिए, वासना उभर आती थी। मेरी बारी आई तो इन्होंने, मुझे एक पैकेट दिया था।
मैंने तब कहा भैय्या जी, मेरे पति भी साथ हैं, मुझे एक और पैकेट दीजिये। तो इन्होंने कहा था कि वह, उसको ही मिलेगा।
तभी मेरे कंधे से लगी/चिपकी, मेरी बेटी का हाथ, चला था। जिससे मेरी साड़ी का पल्लू सरक गया था। बेटी को अभी ही मैंने स्तनपान कराया था, अतः ब्लाउज भीगा हुआ सा था।
अप्रत्याशित रूप से इन्होंने, मुझे दूसरा पैकेट दे दिया था लेकिन ऐसा करते हुए, इनकी कामुक दृष्टि, मेरे वक्ष स्थल पर अटकी हुई थी। जिसे पल्लू ठीक करते हुए, मैंने अनदेखा कर दिया था।
अब, जब यह अधबूढ़े व्यक्ति हमारे समीप आ गए और हमें नमस्कार किया तो, राम ने प्रत्युत्तर में हाथ जोड़, नमस्कार किया था। इन्हें बैठने के लिए एक छोटी चटाई बिछाकर, उस पर बैठा लिया था।
हमने खाना रोक लिया था। मैंने पीपल की पत्तियों की तरह ही इनके मचलते दिल का, अनुभव किया था। मैं तय कर चुकी थी कि मुझे कहना क्या है। फिर जब ये, मुझे देख मुस्कुरा रहे थे, मैं कहने लगी थी -
नारी कोई भी, एक ही होती है। वह अलग-अलग रूपों में दिखती/प्रतीत होती है।
पिता की दृष्टि आजीवन उसे, एक नन्हीं लाड़ दुलारी सी बच्ची देखती है।
उसके पुत्र की दृष्टि उसे हमेशा, अपनी भगवान समान, पूज्या माँ देखती है।
जो नारी अंग पुत्र के जन्म एवं आरंभिक जीवन में उसके उदर पूर्ति के माध्यम होने से विशेष महत्व के होते हैं। वही अंग नारी के पति की दृष्टि में, अन्य महत्व के हो जाते हैं।
नारी का अस्तित्व एक ही होकर भी, सृष्टि उसे ऐसी अलग अलग दृष्टि से दिखने का, वरदान प्रदान करती है।
इन तीन पुरुषों की विशेष दृष्टि में देखे जाने से, इनके अलावा दुनिया के शेष पुरुषों के सम्मुख नारी का एक ही रूप होता है, जो उनसे आदर एवं गरिमापूर्ण व्यवहार की अपेक्षा करता है। 
यद्यपि ऐसा ना होने से, गंदी दृष्टि तो देखने वाले के पास ही रह जाती है और पराई नारी जा चुकी होती है।
मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि नारी को कोई अंतर नहीं पड़ता कि उसमें, किसने क्या देख लिया। अंतर उस परंपरा को पड़ता है जिसने, उसके चरित्र का प्रभाव, उसके अपने पिता, भाई, पति और पुत्र के ऊपर पड़ता हुआ बनाया है। 
यह परंपरा नारी को, परिवार की आन, बान और शान कहती एवं मानती है।
वह अधबूढा व्यक्ति भी, एक माँ का जाया, एक पत्नी का पति और शायद एक किशोरवया पुत्री का पिता था। 
मुझसे, यह सब सुनते हुए, उसके ओंठों से मुस्कान गायब हो गई थी।उनकी दृष्टि की अपवित्रता दूर हो गई थी। उनने यह कहते हुए विदा ली थी कि आप लोग, कुशलता से अपने घर पहुँचे मेरी शुभकामनायें है। 
फिर हमने, भोजन ग्रहण करना पुनः आरंभ किया था। 
किसी पहेली में खोये हुए से राम तब, मुझसे यूँ पूछ रहे थे- तुमने कहा तो बहुत अच्छा है लेकिन ऐसा सब, कहने की जरूरत क्या थी?
मैंने बताया - इन्होंने आपके लिए अतिरिक्त भोजन पैकेट देते हुए कहा था यह मुफ्त नहीं है। इसके बदले मैं, आपसे कुछ अच्छा सुनना चाहूँगा। ये उसी सुनने के मंतव्य से, हमारे पास आये थे ...     

--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
10-06-2020

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