Tuesday, June 16, 2020

सीता जैसी (2) ...

सीता जैसी (2) ...

मैं सत्रह वर्षों बाद ससुराल वापिस आ गई। जिसे ससुराल कहना ठीक नहीं, मेरा घर कहना ठीक होगा। अब, घर की मालकिन मैं थी। अब, पति की दो बेटियाँ एवं पति, घर में मेरे आश्रित थे। बड़ी बेटी 12 एवं छोटी 9 की थी।
छोटी, पापा से बोली थी- ये, हमारी मम्मी नहीं हैं।
पतिदेव का धर्मसंकट, मैंने दूर किया, मैं छोटी से बोली - हाँ, मैं तुम्हारी मम्मी नहीं हूँ।
 तब बड़ी ने पूछा - फिर हम, आपको क्या बोलें?
 मैंने प्यार से पूछा - स्कूल में, आप टीचर को क्या कहती हो?
 वह बोली- मेम !
मैंने कहा- आप दोनों, मुझे भी मेम कहो, मैं आप दोनों को स्टडीज़ में गाइड करुँगी।
कम उम्र के बच्चे थे। मैं, उनसे, प्यार एवं आदर से बात करती, उनकी जरूरतों का एवं खाने को मनपसंद बनाती, उन्हें पढ़ाती, उनकी कठिनाई दूर करती, इनसे वे मुझे चाहने लगीं। मैंने उनके मन में बसी उनकी माँ को भी रहने दिया था। वे मुझे, मेम कहतीं और खुश रहती थीं।
मैं गाँव के स्कूल में, इसी उम्र के बच्चों को पढ़ाती रही थी। मुझे, थोड़ी मुश्किल, उनका अँग्रेजी माध्यम था लेकिन इसे मैंने, अपने लिए इंग्लिश पर दखल बढ़ाने का अवसर माना था। 
पतिदेव काम पर और बेटियाँ स्कूल जा चुकतीं तब मैं, इंग्लिश पढ़ा करती। छोटे बच्चों के सामने, वीक इंग्लिश में भी मुझे हिच नहीं होती। बल्कि उनके, बोलने से मेरी स्पीकिंग इंग्लिश की प्रैक्टिस होती थी।     
एक रात दबे स्वर में पतिदेव ने मुझसे पूछा- तुम कहो तो मैं ऑपरेशन रिवर्स करवा लूँ ? 
मैंने आशय समझा उत्तर दिया - नहीं, परिवार में दो से अधिक बच्चे ठीक नहीं। 
मेरे संक्षिप्त उत्तर ने जैसे उनके सीने पर रखा बड़ा बोझ हटा दिया। वे तुरंत ही मानसिक रूप से तनाव मुक्त दिखाई दिए। वापसी के चार महीने में ही हम चारों सदस्यों के बीच, पारिवारिक प्रेम एवं विश्वास निर्मित हो गया।
एक रात अनुग्रह के स्वर में इन्होंने मुझसे कहा - मैं गाँव पहुँचा था तब मेरे दिमाग में बहुत से डर थे, तुम साथ आईं, तुमने एहसान किया। यहाँ बच्चों को प्यार से अपना लिया। अपने खुद के बच्चे की कामना नहीं की।
मुझे, अपनी प्रशंसा नहीं सुननी थी, मैंने बीच में टोक दिया - हम कोई निर्णय करते हैं कुछ लोगों की दृष्टि में वह सही, कुछ की दृष्टि में गलत होता है। यह हम पर होता है कि हम ऐसा करें कि, भविष्य को लेकर किया हमारा वह निर्णय कालांतर में सही सिद्ध हो। यह बात, मैंने आपके साथ लौटते हुए ट्रेन में ही तय की थी कि मैं, हमारे निर्णय को, गलत सिद्ध ना होने दूँगी।
इस पर वह कुछ कहना चाहते थे। मैंने उन्हें रोकते हुए कहा था - जी, कुछ न कहिये। जो भी है हमें कह कर नहीं, कर के दिखाना है।
स्पष्ट था कि 17 साल पहले की, उनकी मुझ पर हावी (डामनैटिंग) होने की प्रवृत्ति, अब नहीं रही थी।
यूँ तो मोबाइल पर बातें होती रहीं थीं मगर जब मुझे तीन वर्ष वापिस आये हो गए तो, गाँव से माँ-बापू यह सुनिश्चित करने आये कि मैं वास्तव में खुश हूँ या नहीं?
पतिदेव उनकी आवभगत करते बहुत खुश हुए। सच ही कहा जाता है कि पत्नी यदि पति का दिल जीतती है तो पति के मन में, पत्नी के मायके वालों का आदर हो जाता है।
उन्हीं दिनों में, एक दोपहर घर में जब, माँ-बापू एवं मैं ही थे। तब बापू बोले - बेटी, मैं चकित था, जब दामाद जी, तुम्हें वापिस लेने आये और तुमने साथ आना सहमत किया था।
उत्तर में तब मैंने बताया कि - बापू, इन्होंने मेरा परित्याग अवश्य किया था लेकिन उसके पहले, डेढ़ वर्ष के साथ में इन्होंने, ना कभी मुझ पर हाथ उठाया था, ना ही कभी नशे में घर लौटे थे। युवावस्था वाली गरमी में जरूर इन्होंने, मुझे परित्याग कर, बड़ी भूल की थी। जब ये मुझे लेने आये तो, दूसरी पत्नी के बाद, इनके पास तीसरी कर लेने के विकल्प थे, लेकिन यह लौटे मेरे लिए थे। इन तथ्यों से मुझे आशा थी कि इनका साथ देना, मेरी भूल, सिध्द नहीं होगी। ऐसा हुआ भी है। बल्कि मेरी बिना मान मनौव्वल की हाँ, इन्हें, स्वयं पर आभार सी लगी और तब से इन्होंने, हमारे हर मामलों में, मेरी इक्छाओं का पूरा ध्यान रखा है। 
माँ-बापू 20 दिन रहकर जब लौट रहे थे तब अत्यंत ही संतुष्ट और जितना पहले कभी, मैंने नहीं देखा था, उतने प्रसन्न थे।
फिर बच्चे बड़े हो गए कक्षा 12 एवं 9 में आ गए। उन्हें गाइड करते हुए, मेरा अँग्रेजी पर अधिकार भी बढ़ गया। अवकाश वाले एक दिन मैंने, पतिदेव से नारी सशक्तिकरण वाले संगठन को ज्वाइन करने की अनुमति माँगी जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकृत कर दिया।
मुझे, उसमें दो साल हो गए तब एक कॉन्फ्रेंस में, स्पीच का अवसर मिला। अपने संबोधन में, मैंने कहा कि
"नारी सशक्तिकरण के अपने प्रयासों में हम, अपने पूर्वाग्रह अलग नहीं कर पाते हैं। मैं मानती हूँ कि पुरुष हम पर ज्यादती करते हैं लेकिन अधिकाँश प्रकरण में उनके अत्याचार में, हम नारी में से ही किसी का उन्हें, साथ-सहयोग मिलता है। उदाहरण के लिए, कोई नारी परित्यक्ता कब होती है? जब पुरुष को उसके विकल्प में कोई अन्य नारी, पत्नी के रूप में उपलब्ध होती है। हमें, पुरुष के ऐसे अत्याचार मिटाने हैं तो उस पुरुष की दूसरी पत्नी नहीं होना चाहिए जिसने डिवोर्स के माध्यम से, पहली पत्नी को छोड़ा होता है।"
मेरी स्पीच के बाद ऑडियंस में तालियाँ बजी थी। संगठन अध्यक्षा ने मेरे कथनों को, 'अलग नज़रिया' निरूपित करते हुए, अनुमोदित किया था।   
ऐसे मेरी पहचान एवं स्वीकार्यता सशक्तिकरण संगठन में बनी।
मेरे लौटने के बाद, 15 वर्ष फिर बीत गए थे। तब दुःखद रूप से, छह माह के अंतराल में पहले मेरी माँ, फिर बापू नहीं रहे थे। मुझे इस बात का संतोष था कि यदि मैं पति के साथ नहीं लौटी होती तो देहांत के समय, उन दोनों के हृदय में मेरे भविष्य को आशंकायें रहतीं।
हमने इस बीच ही दोनों बेटियों के बारी बारी विवाह कर दिये थे। इस समय तक मैं उनकी मेम से मम्मी बन चुकी थी। मुझे या उन्हें, अब लगता नहीं था कि वे मेरी जाई नहीं हैं।
अब घर में हम दो ही रह गए थे। मुझे खाली समय होता था। मुझे नारी सशक्तिकरण में अध्यक्ष चुना गया, यह जिम्मेदारी मैंने मंजूर कर ली।  उस अवसर पर मेरे भाषण में मैंने कहा -
"निशंक रूप से, पुरुष में बुराइयाँ होती हैं लेकिन हमें, इसे अपनी कमी के रूप में देखना चाहिए कि हममें वह बौद्धिक सामर्थ्य क्यों नहीं कि, अपने कर्म-व्यवहार से उन्हें, उनकी बुराई का अहसास करा सकें। हम बुराई का विरोध अवश्य करें लेकिन साथ ही अपने में, वह बौध्दिक चातुर्य भी लायें, जिसके होने से, हम पुरुष के अवगुण दूर कर सकें, उनमें, उनके गुणों के साथ जीवन यापन करने की, समझ विकसित कर सकें।"
मुझे कहना न होगा कि श्रोताओं की क्या प्रतिक्रिया रही।
ऐसे मुझे कोई पछतावा नहीं रहा कि मैंने, अपनी आर्थिक आत्मनिर्भरता खोकर, वापिस पति पर निर्भर हो जाना चुना था।
फिर मैं 61 वर्ष की हुई, हमारे विवाह को 42 वर्ष हुए, तब पतिदेव ने मैरिज सिल्वर जुबली (हम 17 वर्ष अलग रहे थे) आयोजित की। इस अवसर पर अतिथियों, जिनमें हमारे संगठन की सदस्यों के परिवार भी थे, के समक्ष, निः संकोच उन्होंने कहा कि -
"हम पुरुष, व्यर्थ दंभ पालते हैं कि अपनी पत्नी की ज़िंदगी हम बनाते हैं। मैं वह भाग्यशाली पति हूँ (कहते हुए फिर, मेरी तरफ इशारा किया) , जिसकी ज़िंदगी, मेरी इन पत्नी महोदया के द्वारा बनाई गई है, बनाई ही नहीं उत्कृष्ट बनाई गई है ".. 


--राजेश चंद्रानी मदनलाल जैन
16-06-2020
         

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