Monday, February 17, 2014

संकोच लज्जा

संकोच लज्जा
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दुनिया को क्यों माने अपना
दुनिया जिससे अच्छी लगती
दुनिया जिससे अपनी लगती
दुनिया में छूट कहीं वे जाते हैं


हमें छोड़ना पड़ता कभी उन्हें
छोड़ हमें कभी जाना दुनिया से
या प्रिय वे दुनिया छोड़ जायेंगे
ना बनाऊंगा घर इस दुनिया में


दुनिया इतनी अजीब अगर है
आभासित ही अपना अपनी है
क्यों पडूं व्यर्थ की खींचतान में
क्यों जोडूँ मैं दिल यहाँ किसी से

इसलिए ढूँढूगा मैं ऐसी दुनिया
 भ्रम ना जहाँ होगी अपनी दुनिया
 उस दुनिया में ना साथी छूटेगा
 और न हमें छोड़नी होगी दुनिया


ह्रदय जुड़े नहीं संकोच करूँगा
लज्जा ना साथ छोड़ने की होगी
उस दुनिया में बने आशियाना
साथी वहाँ बनूँगा और बनाऊंगा


यह दुनिया सराय है इसलिए
सराय जान ही प्रयोग करूँगा
यद्यपि अच्छी परम्परा खातिर
स्वच्छ रखने के यत्न करूँगा


--राजेश जैन
18-02-2014

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