Tuesday, October 30, 2012

दर्शन गोष्टी -- भारतीय संस्कृति की रक्षा

  दर्शन गोष्टी - भारतीय संस्कृति की रक्षा                   

                          समय में परिवर्तन पिछले 30  वर्षों में अधिक तीव्र गति से हुआ .  जीवन ज्यादा व्यस्तता का हुआ . दूरदर्शन , नेट , फ़िल्मी और मोबाईल फोन माध्यमों से देखी और पढ़ी जाने वाली सामग्रियां प्रचुर मात्रा में सर्वत्र उपलब्ध हुयीं . पाठ्यक्रमों में भी नए विषयों का समावेश हुआ  . इन सारी देखी और पढ़ी जा सकने वाली सामग्रियों से हम मनुष्य जन क्या पढ़ा जाना चाहिए और क्या नहीं ? तय करने में चूक   करने लगे .  बहुत से विषयों में हमने  संक्षिप्त मार्गों  की तलाश की . व्यस्तता में इन मार्गों का अनुशरण करते अपने मंतव्य भी पूरे  करने आरम्भ किये . श्रवण और दर्शन की जाने वाली सामग्रियों की इस तरह प्रचुरता के मध्य हमने इनमें भी  संक्षिप्त मार्ग अपनाया . हमने स्वयं से निर्णय करने में कम समय लगाया , यह देखा दूसरे क्या पढ़ और देख रहे हैं , उसे अच्छा माना और उन्हीं सामग्रियों का इस हेतु उपयोग किया .
              बहुमत की राय महत्व  की होती है कई सन्दर्भों में यह सिध्द भी होता रहा है  . पर जब व्यस्तता में हम ही ज्यादा सोच विचार करने में असमर्थ रहे , तब अन्य  ज्यादा सोच विचार के ही पठन ,श्रवण और दर्शन की सही सामग्री का चयन कर रहे होंगे . इस पर शंका तक का विचार हम नहीं कर सके . भौतिक प्रगति में तो हमारा दूसरे का अनुकरण या नक़ल उचित सा भी सिध्द हुआ . और ऐसा करते हुए  आधुनिक साधनों ,सुविधाओं और विषयों में हमने उन्नति अनुभव की .  हम तथा परिजन इस उपाय से ज्यादा सुविधाजनक जीवन शैली में जीने लगे . पर मानवीय दृष्टि  और सहस्त्रों वर्षों में हमारे पूर्वज द्वारा अनुभव और विचार पूर्वक बनायीं मर्यादा , परम्पराओं और सिध्दांतों के बारे में हमारा  पठन ,श्रवण और दर्शन कम होने से हम सहज ही इनसे दूर होते गए .चूँकि आधुनिक इन माध्यमों के जनक पाश्चात्य महादीप (यूरोप तथा अमेरिका )  थे . अतः इन माध्यमों पर वहां की जीवन शैली और संस्कृति की प्रचुरता थी .  ये सब ज्यादा देख और  पढ़ हम उसे सामान्य रूप में लेने लगे . जब इसे इस तरह स्वीकार करने लगे तो आचरण , व्यवहार और हमारे कर्मों में धीरे धीरे यह शैली आने लगी .  चूँकि युवा वर्ग हमारी संस्कृति के विषय में कम देख और पढ़ पा रहा था, अतः अपनी भाषा , पहनावा    , खानपान , जीवन शैली ,परम्पराओं और मर्यादाओं को तजने में कोई धर्म संकट या संकोच नहीं हुआ .

 
              भारतीय सिनेमा और दूरदर्शन ने भी यह ज्यादा दिखाया . या अगर हमारी संस्कृति प्रधान कुछ निर्माण भी किया तो उसे ज्यादा लोकप्रियता मिले इसलिए उन निर्माणों में भी मसाला रूप में पाश्चात्य सामग्री डाली . इसमें हम बुराई नहीं देख रहे हैं . इन सामग्रियों का निर्माण व्यवसायिक दृष्टि से किया जाता है. अतः अधिक आय हो इस लक्ष्य  से , इस तरह मसालों के समावेश और उससे मिलती लोकप्रियता के कारण उन्हें (निर्माण करने वालों को )  लुभाने लगा तो अस्वाभाविक नहीं था .      लेकिन व्यवसायिक सफलता  के लक्ष्य में एक चिंतन गंभीरता से नहीं हो सका . वह था जो मसालों के कारण ऐसे फिल्म या धारावाहिक देखना पसंद करते हैं वे कौन हैं . क्या वे प्रबुध्द वर्ग के हैं या  दैनिक आवश्यकताओं को जूझते   और जीवन संघर्ष में थक जाने वाले हैं . जो विवेक विचार करने का समय ही नहीं निकाल सकते इसलिए गहन विषय पर उनकी सोच का अभ्यास नहीं रहा है .लोकप्रियता , बहुमत की राय तो दर्शा रही थी लेकिन बौध्दिक स्तर नहीं प्रकट कर सकती थी . बहुमत की राय यदि बौध्दिक स्तर की कमी के बाद है तो उसका औचित्य संदिघ्न   होता है . 
                इस तथ्य को जानते हुए अथवा अनजाने में अनदेखा किया गया . जो इस देश की संस्कृति से मेल नहीं खाता था  . उनका चित्रांकन करते हुए प्रदर्शित कर बेहद धन कमाया गया . धनी बन जाने के बाद या  तेजी से बनते देख  कुछ और धनवान जो पहले हिकारत से इन्हें देखते थे . इन क्षेत्रों में आ कर धन उपार्जन करने लगे. फिर लोकप्रियता के नाम मसालों की मात्रा और बढती चली गयी . लगातार ऐसा देख इसे ही जीवन स्वरूप समझ हम  संस्कृति , सिध्दांत और परम्पराओं से दूर होते गए . समय आया अब कम युवा ही हमारी संस्कृति ,जीवन शैली क्या थी क्या होना चाहिए इस पर विचार करते हैं .
                     जब प्रचार और प्रकाशन माध्यम कम थे तो लोगों तक ज्यादातर अच्छा साहित्य ही पहुँचता था . जिसे पढ़ते हुए उसके   महत्व को समझा जा सकता था . कवि  सम्मलेन  ,साहित्य गोष्टियाँ ,काव्य गोष्टियाँ होती थीं . स्तर के नाट्य मंचन करने वाली संस्थाएं और कलाकार थे . स्तर से देखा और दिखलाया जाता था. अच्छा देख और समझ कर लोगों में मनो ग्रंथिया और विकृतियाँ कम थी . मर्यादा पालन होता था . अन्य को यथोचित सम्मान से देखा जाता  और व्यवहार होता था .
                 इसलिए समाज में कुछ अधिक शांति और अहिंसा अस्तित्व में थी . सामाजिक अवसरों पर मेल मिलाप और गर्म जोशी थी स्वार्थ परस्ती कम थी . जिनसे प्रेरणा मिलती थी वे  विचारक ,दार्शनिक और साहित्यकार थे , धर्म गुरु थे , घर के बुजुर्ग और बड़े सदस्य थे , समाज सुधारक थे . फिल्म और धारावाहिक में होते लाभ में इनके निर्माण में जिन्होंने रूचि दिखाई वे धनवान थे या जल्दी धनवान बन गए लोग थे . (जो इन क्षेत्रों में सक्रिय थे और अब जीवित नहीं वे इस टिप्पणी के दायरे में नहीं हैं) . सारे  धनवान ऐसा कर रहे थे यह नहीं कहता  . सारे ऐसे निर्माण करने वाले ऐसा ही कर रहे थे यह भी नहीं दावा करता .  (जिन्हें भी ऐसा पढ़ते यह लगे कि उन्होंने इस दृष्टि से कोई सृजन नहीं किया , और उनका निर्माण गंभीरता और समाज हित को ध्यान रख ही किया गया था वे भी टिप्पणी के दायरे से बाहर हैं ) . यह अवश्य लिखूंगा , अधिकांश निर्माताओं ने जो निर्मित किया उसमें नैतिकता ,सांस्कृतिकता , और चारित्रकता    में क्रमश गिरावट होती गयी.
                                              निर्माताओं या  शीघ्र धनार्जन को लक्ष्य करने वालों ने जो निर्माण किया और प्रदर्शित किया उसे देख दर्शक ने "धन दर्शन" की प्रेरणा ही ली . धन भारतीय समाज में प्रधानता पाने लगा . सबसे पहले कुछ और नहीं केवल धन का चिंतन  प्रमुख होने लगा . लाभ सिर्फ धन के रूप में ही देखा जाने लगा . सोच , समझ ,संस्कृति , नैतिकता , चरित्र और जीवन लक्ष्य किस तरह प्रभावित होंगे ? यह सोच बहुत कम प्रबुध्दों में सीमित होता गया. अच्छे साहित्य और साहित्यकार का महत्त्व घट गया . काव्य गोष्टी , साहित्य गोष्टी और कवि सम्मलेन क्रमशः कम होते गए . पैसे की सत्ता बड़ी तो साहित्य लेखन के तरफ उदासीनता बढती गयी. जो इस विधा के जानकार थे उन्होंने भी बाध्य हो वह लिखना आरम्भ किया जो आम मांग होती थी.

                    फलस्वरूप अराजकता , भ्रष्टाचार , आडम्बर , अश्लीलता , स्वार्थ और सिध्दांत हीनता   का हर दिशा में बोलबाला होने लगा . पुरानी  पीढ़ी के बचे लोग अचंभित थे क्या और कैसे सब इस तेजी से परिवर्तित हो गया .युवा पीढ़ी बिना परम्परगत जीवनशैली , संस्कृति और भारतीय मानदंड को पहचाने उसे पुरातन पंथी कह तजने लगे . जो सेलुलर पर्दों पर दिखाया गया उसे आधुनिकता और जीवन के मजे कहने लगे और इस और प्रवृत्त होने लगे .
             भारतीय संस्कृति और मर्यादाओं की ओर तो मनुष्य समाज को लौटना ही होगा . पर इसको अनुभव करने में हमारे अपने समाज और संतति को कितना समय लगेगा यह कहना तो संभव नहीं है .लेकिन लेख में उल्लेखित चिंताओं से अगर सहमती लगे तो हमें विचार करना चाहिए और उपाय किये जानने चाहिए.
                  घरों में हो रही किटी पार्टी , पिकनिक स्थलों पर हो रहे फ़िल्मी तर्ज के नृत्य , और जब तब होते फ़िल्मी अन्ताक्षरी और होउसी और इसी तरह के ज्यादा मनोरंजक प्रचलन को तजना होगा .   कम मनोरंजक लेकिन प्रेरणा देती  काव्य गोष्टी , साहित्य गोष्टी और दर्शन गोष्टी (दार्शनिकों द्वारा ) को  गृहों ,पिकनिक स्थलों में बढ़ावा देते प्रचलन में लाना होगा . इसे आधुनिकता और आधुनिक विचार और जीवन शैली के रूप में प्रचारित करना होगा . साहित्यकार , कवि और दार्शनिक का उत्साहवर्धन करना होगा . स्वयं के अन्दर विद्यमान  दार्शनिक     और साहित्यकार  को तराशना होगा .    ये उपाय ही हमारी सांस्कृतिक विरासत को हमारी युवा पीढ़ी में पुनरजीवित कर सकेगी ,उसकी रक्षा कर सकेगी . तब समाज में शांति और सुरक्षा बढ़ेगी . तब हमारा परस्पर सम्मान की परंपरा पुनः दृष्टव्य हो सकेगी . तब हमारा रहन सहन , वेशभूषा और खानपान फिर भारतीय हो सकेगा .तब ही हमारी चरित्र और मर्यादाओं को फिर पुराने स्तर मिल सकेंगे .

               आज ही कीजिये    किटी पार्टी के स्थान पर ऊपर दिखाई कोई गोष्टी . जन्म दिन में फ़िल्मी नृत्य या गीत  की जगह सुनिए बुलाकर किसी कवि से जन्म और जीवन पर कोई ओजस्वी साहित्यिक कविता .  साहस कीजिये और यह कीजिये . ना सिर्फ बच्चे के संस्कार सही होंगे बल्कि  पूरा भारतीय समाज बदलने लगेगा . फिर पाश्चात्य देश भारतीय संस्कृति की ओर लालाइत दिखेंगे . फिर मनुष्य जीवन रहस्य को समझने इस देश की ओर आने लगेंगे.   

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