Sunday, October 21, 2012

आधिपत्य

                              आधिपत्य                             

                             हम प्रत्येक अच्छी ,आकर्षक ,नई ,आधुनिक , सुविधा जनक या सुन्दर वस्तु ,स्थान या मनुष्य साथी को देखते हैं , तब सहज मानवीय प्रवृत्ति के वशीभूत उसे पाने ,  आधिपत्य  करने या उस पर अपने नाम जोड़ने की इक्छा करने लगते हैं .अन्य शब्दों में कहें तो उसका पीछा करते हैं या पीछे भागते हैं. हम इसलिए भी करते हैं क्योंकि अपने बचपने से ऐसा करते लगभग सभी को देखते हैं. अतः ऐसा करना सही मानते हैं. हम ऐसा इसलिए भी करते हैं क्योंकि ऐसा होने पर हम स्वयं भी प्रसन्नता अनुभव करते हैं. अधिकांश पूरा जीवन ऐसा ही करते बिता देते हैं. या अधिकांश अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा ऐसे व्यतीत करते हैं . अपवाद हुए हैं , जिन्होंने जैसा सब करते हैं उससे अलग ढंग से जीवन जिया है . या प्रारंभिक जीवन सब जैसा जिया फिर अपने अनुभव से ,विवेक से समझदारी से जीवन उत्तरार्ध्द   में अपना जीवन पथ परिवर्तित कर लिया . बाद के जीवन में वे किसी की   पीछे नहीं भागे .  तब उनमें से कुछ के  पीछे शेष विश्व भागने लगा . उनके पदचिन्हों पर
 चलने लगा उनको आदर्श मान उनका अनुकरण करने लगा .
                           
                   पूरे विवरण का सार यह कि जिन्होंने सबके जैसा जीवन जिया वे सर्व साधारण जैसे आये (मनुष्य जीवन में ) और   सर्व साधारण जैसे ही चले गए .  पर जो दूसरे जैसे करने या बनने  की चिंता से मुक्त हुए वे वे सर्व साधारण जैसे आये मगर गए असाधारण की तरह. मनुष्य सभ्यता के यहाँ तक विकसित होने में योगदान थोडा सर्व साधारण मनुष्यों का तो है . पर वे थोड़े जो असाधारण सिध्द हुए उनका योगदान अत्यंत अधिक रहा जिने मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग जीवन पध्दति , शैली और विकास           प्रदान                  किया .महान दार्शनिक , साहित्यकार , वैज्ञानिक और महात्मा ऐसे उदाहरण देखने मिलते हैं . जिनके जीवन वृतांत पर गौर करें तो पाएंगे उन्होंने दूसरे क्या करते हैं वह नहीं देखा और सोचा .निश्चिन्त होकर स्वयं   विवेक       और ज्ञान का प्रयोग करते          हुए          अपने उद्देश्य ,लक्ष्य और कर्मों में तल्लीन रहे .जिससे उनका जीवन पूरा होते होते, अन्य          मनुष्यों          ने           उनकी महानता          को पहचान लिया उन पर श्रृध्दा    की    और उनका अनुकरण भी किया .


                        तात्पर्य यह कि सब जैसा हम भी जियें कोई खराबी नहीं है . पर जैसा दूसरा करते हैं  हमें वही करने की बाध्यता कतई नहीं  है. हम अपनी विवेक बुध्दि और ज्ञान अनुसार सबसे अलग तरह भी अपना जीवन व्यतीत कर सकते हैं . ऐसा हमारा जीवन ना सिर्फ हमें संतोष देगा बल्कि अगर हमारे कर्म परहितकारी सिध्द हुए तो दूसरों के जीवन पथ को आलोकित भी करने में सफल होगा .      
                           अब विचार करें सब क्या करते हैं . कुछ सामान्य बातों से ही ये समझें . सब अच्छा से अच्छा संभव है वस्त्र पहनना चाहते हैं . सबसे अच्छा और स्वादिष्ट अधिक खाना चाहते हैं . अपना बंगला सबसे बेहतर करना चाहते हैं . अपनी मान प्रतिष्ठा और प्रशंसा सर्वत्र चाहते हैं. अधिकतम सुविधा से रहना चाहते हैं. जीवन में अमर हो जाना चाहते हैं . सफलता शीघ्र और अधिकतम पाना चाहते हैं. अपना ज्ञान और सूझबूझ सर्वाधिक कहलवाना चाहते हैं. अपने परिवार में सुन्दर ,सुशील पत्नी ,बच्चे ,भाई-बहन होना पसंद करते हैं . अपनों पर कोई विपत्ति न आये यह चाहते हैं.ऐसा नहीं है तो इसके उपाय ,इस हेतु छीना-झपटी और उचित अनुचित प्रयत्न करते हैं. हासिल कर सके तो और अधिक चाहने लगते हैं. नहीं होता है तो बेचैन होते हैं. इन क्रमों और कर्मों में जीवन का प्रारंभ कब जीवन संध्या पर आ पहुँचता है . पता नहीं पड़ता और फिर चौंकते हैं और भयभीत होते हैं .भ्रमों में कभी सबसे खुशहाल और कभी लाचार मानते अभिमान और हीनता बोध के बीच दोलन करते रहते हैं .    

   अब बारी है इस विवेचना की , जो असाधारण हैं या असाधारण बन चले गए हैं , उनके कर्म आचरण इन्हीं बातों में क्या रहे  ? वस्त्र धारण यानि बाह्य स्वरूप और मर्यादा के लिए ,उन्होंने जो सहज , सरलता से मिला उसे धारण किया , इस पर विशेष महत्त्व नहीं दिया . उनका ध्यान इस बात पर ज्यादा रहा कि उनके मन और ह्रदय में धारण किये गए विवेक विचार श्रेष्ठ रहें . भोजन आम तौर पर शाकाहारी , और सात्विक रखा जिसमें मात्रा भी उदर पूर्ती के लिए जितनी आवश्यक है उस पर ध्यान दिया . अन्य भोज्य यदि ग्रहण किये भी तो उस पर ध्यान रखा कि उसकी व्यवस्था न्यायोचित ढंग से की गयी हो . उन्होंने इस पर विशेष ध्यान दिया कि जिनके बीच वे रह रहे हैं. उनको भी उदर  पूर्ती के लिए आवश्यक मात्रा मिल पा रही अथवा नहीं. अगर आवश्यक हुआ तो उन्होंने अपनी थाली में से बाँट कर अन्य को आवश्यक मात्रा मिल सके यह सुनिश्चित करने की चेष्टा रखी.रहने के लिए अपने निवास को जीवन में उन्होंने अस्थायी ही माना , क्योंकि उन्हें इस बात का ज्ञान पूरे जीवन में रहा कि जीवन बाद धरती पर एक छोटे से टुकड़े पर उसका कोई अधिकार नहीं रह जाता है. यह अवश्य कोशिश रही कि मिले आवास को साफ़ सुथरा रख आसपास भी  अन्य साफ़ सुथरे तरीके से जीवन यापन करें. सुविधा उन्हें क्या उपलब्ध है ? इस पर विचार में व्यर्थ समय गंवाने के उन्होंने इस का चिंतन और उपाय किया कि दूसरों को आवश्यक सुविधा कम से कम जो पर्याप्त मानी जाती है वह उपलब्ध हो सके.   मान ,प्रतिष्ठा और प्रशंसा पर उनका मन कभी आकुल-व्याकुल नहीं रहा . यद्यपि उनके कर्मों और आचरण ने धीरे -धीरे अन्य के बीच स्वतः ही मान, प्रतिष्ठा और प्रशंसा में क्रमशः वृध्दि दिलवाई . अमरत्व के तरफ बेफिक्री दिखाई . भली भांति इस बात को समझा . एक दिन आये को जाना ही होता है. जीवन कि दीर्घता कितनी है इस पर नियंत्रण किसी का नहीं है, यह ज्ञान रखा . जितने उपाय संभव हैं उस अनुसार जीवन बचाव किया . और फिर जितना जीवन मिला उसे सद्कर्मों , सदाचार  और परहित में लगाया . इसे ही स्वहित भी माना और जीवन सार्थकता इसी में देखी. अगर गृहस्थ रहे तो  पत्नी ,बच्चे ,भाई-बहन और अन्य परिवार जन दैहिक रूप से सुन्दर हैं या नहीं इस पर चिंता न कर उनके गुण विचार और व्यवहार सुन्दर हो इसे प्रमुख किया और उसके उपाय और प्रेरणा दी. प्रतिकूलताओं को विपत्ति मानने के स्थान पर   कभी अनुकूलता और कभी प्रतिकूलता को जीवन स्वरूप माना . जब इस तरह के कर्म और विचार रहे तो उनके आचरण और प्रेरणाओं में छल -कपट और छीना-झपटी का अभाव रहा और जहाँ आवश्यक रहा त्याग उनके जीवन में हमेशा देखने मिला . अवसरों पर जीवन तक त्याग देने /बलिदान की मिसालें उनके द्वारा दी गयी.जीवन के  प्रारंभ से जीवन संध्या तक एक एक क्षण को जीवन्तता से जिया .मनुष्य और प्राणी समाज कि भलाई को जीवन लक्ष्य रखा . जीवन के कुछ समय साधारण बिताने के बाद किसी प्रेरणा से असाधारण में परिवर्तित हुए तो उस प्रेरणा के बाद उनका लक्ष्य ,कर्म और आचरण यही हुआ .

              जब इस तरह की विभूति को अपने बीच अन्यों ने पाया तो उनके पदचिन्हों पर वे चलने लगे . उनको आदर्श मान उनका अनुकरण करने लगे .पूरे लेख का सार यही है . कभी किसी को कोई अन्य की देखा-सीखी करने की सोच विचार रखने की  कतई आवश्यकता नहीं है  . अच्छी बात स्वतः ही बिना विशेष विचार के वह ग्रहण कर सकता है. विवेक और विचारशीलता को पुष्ट करते वह अपनी कल्पनाशीलता और बुध्दिमत्ता से ऐसा अनूठा करता है , जिससे उसका कार्य मानव विकास के क्रम में मील का पत्थर बन जाता है .गगन में उड़ रहे हवाई जहाज , तारों में दौड़ रही बिजली , विश्व के एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजे जा सकने वाले सन्देश और चित्र विज्ञान में , और सदाचार को प्रेरित करते साहित्य और धर्म महान दार्शनिकों ,विचारकों और साहित्यकार का  अनूठापन ही है  . जिनसे मानव संस्कृति और विकास को दिशा और गति मिली .इन महा मानवों ने यह सब विश्व को सबसे अलग तरह सोच ,कर्म और आचरण से दिया . उन्होंने इसकी चिंता नहीं की दूसरे क्या कहते और करते हैं . अपने बारे में क्या कहा जा रहा है ,इससे भी उदासीन रहते हुए ही  उन्होंने  जीवन सार्थक कर विशेष योगदान इस विश्व और समाज को दिया . वे हमारे तरह साधारण नहीं असाधारण हो गए और इस दुनिया से इस हैसियत में विदा लेते हैं.       
         क्या हमें साधारण ही बने रहना है, हम यह सोचें . इसमें बुराई तो नहीं पर उपरोक्त वर्णित असाधारणता में ज्यादा अच्छाई दिखती है  .    हममें से प्रत्येक को यह क्षमता प्रकृति प्रदत्त मिली है . जिससे हम भी ऐसे असाधारण  बन सकते हैं . अगर हम चाहें तो इसे व्यर्थ गंवाने के इसका प्रयोग कर ऐसा अनूठा सोच और अनूठा योगदान अपनी और से दे सकते हैं . जैसा हुए इन अनूठों से अलग अनूठा हमें भी सिध्द कर सकता है. प्रारंभिक उपाय में हमें यही करना है कि हम इस चिंतन से मुक्त हो जाएँ सब क्या कर रहे हैं , सब क्या कह रहें हैं ? साथ ही चीजों को अपनी और खींचने के स्थान पर इस धैर्य  को धारण करें जो सहज सरलता से मिल रही है उसे मिलने दें . मिले में से भी पर्याप्त को उपयोग करें और अधिक को दूसरों में मिल बाँट लें. इतना त्याग इसलिए भी आवश्यक है कि जीवन खोते ही आधिपत्य में कुछ नहीं बचता . तथा इससे बच रहने वाले हमारे मनुष्य समाज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता कि हम क्या खाते रहे थे  ? क्या पहनते रहे थे या कहाँ और किस सुविधा से जीवन यापन करते थे ?
                           कृपया आयें प्रेरणा लें और मिले जीवन के 90 -100  वर्षों में जो बच रह गए हैं उनका उपयोग परोपकार में भी करें . अपना मनुष्य जीवन सफल और सार्थक करें .

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